डाॅ. चंचलमल चोरडिया
अच्छे स्वास्थ्य हेतु निम्नतम आवश्यकताएँ-
स्वस्थ जीवन जीने के लिए शरीर, मन और आत्मा, तीनों की स्वस्थता आवश्यक होती है। तीनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। तीनों के विकारों को दूर कर तथा सन्तुलित रख आपसी तालमेल द्वारा ही स्थायी स्वास्थ्य को प्राप्त किया जा सकता है। अतः स्वास्थ्य की चर्चा करते समय जहाँ एक-तरफ हमें यह समझना आवश्यक है कि शरीर, मन और आत्मा का सम्बन्ध क्या है? किसका कितना महत्त्व है? दूसरी तरफ जीवन की मूलभूत आवश्यक ऊर्जा स्रोतों का सम्यक् उपयोग करना होता है तथा दुरुपयोग अथवा अपव्यय रोकना पड़ता है।
स्वास्थ्य के लिए हमारे शरीर में समाधान हैं, प्रकृति में समाधान हैं, वातावरण में समाधान हैं। भोजन, पानी और हवा के सम्यक् उपयोग और विसर्जन में समाधान हैं। समाधान भरे पड़े हैं। परन्तु उस व्यक्ति के लिए कोई समाधान नहीं है, जिसमें अविवेक और अज्ञान भरा पड़ा है।
राहत ही पूर्ण उपचार नहीं होताः-
आज उपचार के नाम पर रोग के कारणों को दूर करने के बजाय अपने-अपने सिद्धान्तों के आधार पर रोग के लक्षण मिटाने का प्रयास हो रहा है। उपचार में समग्र दृष्टिकोण का अभाव होने से तथा रोग का मूल कारण पता लगाये बिना उपचार किया जा रहा है अर्थात् रोग से राहत ही उपचार का लक्ष्य बनता जा रहा है। भावात्मक एवं मानसिक असंतुलन, तनाव, आवेग जैसे प्रमुख कारण हमारी अन्तःश्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करते हैं। हमारे शारीरिक, मानसिक एवं चारित्रिक विकास का ग्रन्थियों से सम्बन्ध होता है। ग्रन्थियों का असन्तुलन हमारे 60 से 75 प्रतिशत रोगों का मूल कारण होता है, फिर भी आधुनिकता का एवं सम्पूर्ण चिकित्सा का दम्भ भरने वाली उपचार पद्धतियों के पास उसको सन्तुलित रखने का कोई सरल एवं प्रभावशाली उपाय नहीं है। आज राहत को ही प्रभावशाली उपचार समझने की भूल हो रही है। उपचार में दुष्प्रभावों की उपेक्षा हो रही है। ऐसा उपचार दीमक लगी लकड़ी पर रंग-रोगन कर चमकाने के समान होता है तथा हमारी असजगता, अविवेक एवं अज्ञान का परिचायक। रूई में लगी आग को हम कब तक छिपाये रख सकेंगे? आज उपचार के नाम पर मूल में भूल हो रही है। रोगों के कारणों की उपेक्षा कर उन्हें दूर करने के बजाय उन्हें दबाकर तात्कालिक राहत पहुँचायी जाती है। गन्दगीं को सफाई के नाम पर दबाकर या छिपाकर रखने से हानि ही अधिक होगी। उसमें सड़ान्ध, दुर्गन्धता बढ़ेगी। उसी प्रकार शरीर में रोग को दबाने से वह भविष्य में विकराल रूप धारण करेगा एवं असाध्य बन अधिक परेशानी तथा संकट का कारण बनेगा।
स्वास्थ्य के प्रति हमारी असजगता के परिणामः-
आज का मानव कहने को तो अपने आपको सर्वश्रेष्ठ, बुद्धिमान, प्रगतिशील, चिन्तक मानता है परन्तु अधिकांश व्यक्ति स्वयं के स्वास्थ्य के प्रति इतने उदासीन, उपेक्षित रहते हैं कि उनका स्वास्थ्य भाग्य के भरोसे अथवा चिकित्सकों के हाथों में होता है। आरोग्यता के नियमों का पालन किये बिना, डाॅक्टरों के मधुर-मधुर आश्वासनों के सहारे स्वस्थ रहने के प्रयास में वे पूर्ण सुखी नहीं है। कुछ रोगों में तो दवाइयाँ उनके जीवन की आवश्यकता बनती जा रही हैं। संक्रामक रोगों में तो रोगी का जीवन दवा के सहारे ही चलने लगता है। इसका प्रमुख कारण रोगी विज्ञापनों, प्रदर्शनों, डाॅक्टरों की बड़ी-बड़ी डिग्रियों एवं उनके पास पड़ने वाली भीड़ से भ्रमित हो साधारण से रोगों में डाॅक्टरों के सामने अन्ध श्रद्धा के कारण अपना आत्म समर्पण कर अपनी शारीरिक क्षमताओं को तो नष्ट करते ही हैं, तात्कालिक राहत के नाम पर अज्ञानतावश स्वयं पर डाॅक्टरों द्वारा किये जा रहे, प्रयोगों एवं दवाओं के दुष्प्रभावों से पूर्ण रुपेण बेखबर हैं। रोगी को तत्काल राहत पहुँचाने का प्रयास, दुःख को भुलाने के लिये शराब के नशे में अपना भान भुलाने के समान ही होता है। यदि आधुनिक उपचार प्रभावशाली होते तो रोगों से तत्काल राहत मिलती और आज अस्पताल खाली रहते?
पशु भले ही बेजुबान हो-बेजान नहीं हैं-
किसी भी जीव को स्वस्थ रखने में दिया गया सहयोग उत्कृष्ट सेवा होती है। संवेदना जागे बिना सच्ची सेवा नहीं हो सकती। आधुनिक चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मूक, बेबस, असहाय जीवों पर विभिन्न प्रकार के प्राणघातक प्रयोग किए जाते हैं। लकड़ी में आग होती है। क्या उसको देखा जा सकता है? ठीक उसी प्रकार जानवरों के विच्छेदन से शरीर के बनावट की जानकारी तो हो सकती है, परन्तु चेतना की उपेक्षा करने वाला ज्ञान कैसे पूर्ण, वास्तविक और सच्चा हो सकता है?
दवाइयों के निर्माण हेतु जीवों के अवयवों का बिना किसी परहेज उपयोग होता है। औषधियों के परीक्षण हेतु जीवों को यातनाएँ दी जाती है। उनकी मान्यतानुसार मनुष्य के लिए सभी अपराध क्षमा होते हैं। क्या आपने कभी सोचा आपके दुःख, दर्द,रोग अथवा पीड़ा का क्या कारण है? यह तो आपके ही किए की प्रतिक्रिया है। ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया’’ तो इस सृष्टि का सनातन सिद्धान्त है। हमने अतीत जीवन में या जन्मों में किसी को मारा है, पीटा है, सताया है, रूलाया है, प्रताडि़त किया है, उसी की सजा के रूप में रोग आते है। स्पष्ट है रोग का कारण हमारी क्रूरता, कठोरता, कामुकता से जुड़ा हुआ है। मस्तिष्क में अविवेक एवं प्राणिमात्र के प्रति अशुभ चिन्तन सबसे बड़ा ब्रेन हेमरेज है तथा हृदय में दया, करूणा नहीं होना सबसे बड़ी हार्ट ट्रबल है। अपराध करने, करवाने और करने में सहयोग देने वाले प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में अपराधी होते हैं। हिंसा को प्रोत्साहन देने वालों की संवेदना प्रायः प्राणि मात्र के प्रति विकसित नहीं होती। इसी कारण आधुनिक चिकित्सक अपेक्षाकृत कम संवेदनशील होते हैं। रोग का सही निदान न जानने के बावजूद अपनी गलती न स्वीकार कर येन-केन-प्रकारेण रोगों को दबा वाहवाही लूट न केवल अपने अहं का पोशण करते हैं, अपितु रोगी को प्रयोगशाला बना अपना स्वार्थ साधते हैं। अतः दुःख से बचने वालों को अन्य प्राणियों को दुःखी बनाने में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सहयोगी नहीं बनना चाहिए। सेवा कर्म निर्जरा का सशक्त माध्यम है और हिंसा कर्म बन्धन का प्रमुख कारण। अतः सेवा के साथ साधन और सामग्री की पवित्रता आवश्यक होती है, उसके अभाव में की गई सेवा घाटे का सौदा है।
अहिंसक साधकों का उपचार के समय दायित्वः-
आश्चर्य तो इस बात का है कि अधिकांश साधक जो जीवन का मोह छोड़ साधना पथ के पथिक बन कठिन से कठिन परिषह सहन करने का संकल्प लेने वाले अज्ञान अथवा अविवेक के कारण साधारण से रोगों से विचलित हो जाते हैं। अपनी सहनशक्ति, धैर्य खो जीवन के मोह का परिचय देने लगते हैं। दवाओं की गवेषणा तक नहीं करते। मानव सेवा के नाम पर हिंसा पर आधारित चिकित्सालयों के निर्माण की प्रेरणा देते अथवा अनुमोदना करते संकोच नहीं करते? हम बूचड़खानों अथवा जीव हिंसा का तो विरोध करें परन्तु उनसे बने उत्पादकों का स्वयं उपयोग करें, दूसरों से करवाएँ तथा उपयोग में लेने वालों को प्रोत्साहन देकर अथवा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनुमोदना कर सहयोग देना कहाँ तक उचित है? जिस पर अहिंसा का पूर्णतया पालन करने वालों को तो विशेष चिन्तन करना चाहिए। अहिंसक विकल्पों को प्राथमिकता देने की मानसिकता बनानी चाहिए।
चिकित्सा हेतु हिंसा अनुचितः-
किसी प्राणी को दुःख दिये बिना हिंसा, क्रूरता, निर्दयता हो नहीं सकती। जो प्राण हम दे नहीं सकते, उसको लेने का हमें क्या अधिकार? दुःख देने से दुःख ही मिलेगा। प्रकृति के न्याय में देर हो सकती है, अंधेर नहीं। जो हम नहीं बना सकते, उसको स्वार्थवश नष्ट कना बुद्धिमत्ता नहीं। अतः चिकित्सा के नाम पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में हिंसा करना, कराना और करने वालों को सहयोग देना अपराध है। जिसका परिणाम हिंसा में सहयोग देने वालों को भविष्य में रोगी बन भुगतना पड़ेगा। हिंसक दवाओं के माध्यम से शरीर में जाने वाले उन बेजुबान प्राणियों की बद्दुआओं की तरंगें शरीर को दुष्प्रभावों से ग्रसित करें तो आश्चर्य नहीं। अतः चिकित्सा हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा, कर्जा चुकाने हेतु ऊँचे ब्याज पर कर्जा लेने के समान नासमझी होती है।
अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ क्यों विश्वसनीय?
अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ हिंसा पर नहीं-अहिंसा पर, विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर नहीं-साधना पर, परावलम्बन पर नहीं स्वावलम्बन पर, क्षणिक राहत पर नहीं अपितु अन्तिम प्रभावशाली स्थायी परिणामों पर आधारित होती है। रोग के लक्षणों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को महत्त्व देती है। जिसमें साधन, साध्य एवं सामग्री तीनों पवित्र होते हैं। इसमें यथा सम्भव दवा एवं चिकित्सक पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहती। बिना किसी जीव को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कष्ट पहुँचाए सहज रूप से उपलब्ध पूर्णतः अहिंसक एवं दुष्प्रभावों से रहित साधनों का सहयोग लिया जाता है। इसमें शरीर, मन और आत्मा में जो जितना महत्त्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्त्व एवं प्राथमिकता दी जाती है। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों की उपेक्षा नहीं हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है। शरीर विज्ञान के विशेष जानकारी की आवश्यकता नहीं होती है। ये उपचार सहज, सरल, सस्ते, सर्वत्र उपलब्ध होने से व्यक्ति को सजग, स्वतंत्र, स्वावलंबी एवं सम्यक् सोच वाला बनाते हैं।
-चोरडिया भवन, जालोरी गेट के बाहर, जोधपुर (राज.)
फोन नं. 2621454, मोबाईल 94141-34606, फेक्स-2435471
29.7.15
अच्छी चिकित्सा पद्धति कौनसी?
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