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30.7.15

रंगकर्म और साधन सम्पन्नता

-   मंजुल भारद्वाज

रंगकर्म और साधन सम्पन्नता – बड़ी आकर्षक और दिल को छूने वाली बात है हर रंगकर्मी का ख्वाब होता है की उसके रंगकर्म के लिए सभी संसाधन मौजूद हों चाहे वो “राज्य व्यवस्था” उपलब्ध कराए या समाज व्यवस्था उपलब्ध  कराए...  बड़ी अच्छी बात है ..और दिल की बात है और दिल की बात हर व्यक्ति को पसंद आती है ... पर क्या रंगकर्म केवल लोक लुभावन दिल को छूने भर की कला है .. नहीं रंगकर्म दिल को छूते हुए दिमाग को झक झोरने और चिंतन प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाली , मानसिक रूढ़ियों को तोड़ने वाली कला है .. यानी इंसान को इंसान बनाये रखने वाली विधा है ..एक ऐसे “व्यक्ति और समाज” का निर्माण करने वाली विधा जो न्याय संगत और शोषण मुक्त हो, जो मानवीय मूल्यों , शांति, सौहार्द और समानता वाली व्यवस्था का निर्माण करे .



जब “व्यवस्था” पर प्रश्न उठाया जाता है तब बात गड़बड़ होनी शुरू होती है ..जब तक भोगवादी “रंगकर्म” करते रहो तो संसाधन उपलब्ध होते रहते हैं पर जब “व्यवस्था” पर प्रश्न उठाने वाला  तर्क संगत “ रंगकर्म” अपने पावं पसारने लगता है संसाधन गायब हो जाते हैं .

एक विश्लेषण करें की जिस देश में “राज्य व्यवस्था” रंगकर्म को संसाधन उपलब्ध कराती है क्या वहाँ  प्रगतिशील रंगकर्म होता है क्या ? ..जैसे अमेरिका विश्व का सबसे अमीर देश , विकसित देश ..जहाँ बुनियादी सुविधाएं हैं वहां किन नाटककारों  ने और कितने रंगकर्मियों ने “ नर संहार  करने वाले हथियार बनाने और बेचने” वाली अपने देश की नीति का विरोध किया हो क्योंकि अमेरिका की मजबूत अर्थ व्यवस्था की रीढ़ है हथियार बेचना और बनाना . कितना बेमेल है ना सब, युद्ध में इंसान और इंसानियत को मारो और शांति का पाठ पढाओ और बहस करो हम “शांति और इंसानियत” को  बचाने के लिए युद्ध करते हैं .

दूसरा उदाहरण लें ब्रिटेन ... हँसी आई ना रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट ... इससे गुरु ज्ञान लेने वाले छात्रों ने अपने देश की शोषण नीति या साम्राज्यवादी नीति के खिलाफ कितना और कितनी बार  ‘रंग आन्दोलन” किया . हमारे देश में ब्रेश्ट का नाम सम्मान से लिया जाता है लेकिन उनके  ही देश में रंगकर्म के सारे संसाधन होते हुए हाशिये पर फैंका हुआ है . “राज्य व्यवस्था” पोषित सांस्कृतिक नीति वाली सोवियत सरकार क्यों ढह गयी ..  सोवियत – भारत  सांस्कृतिक आदान प्रदान जिससे हमारे यहाँ अनेक “जन रंगकर्मी” पैदा हुए क्यों निरर्थक हो गयी ... ये सवाल  मेरे मस्तिष्क में उमड़ घुमड़ रहे हैं और इनका जवाब मेरे पास है वो ये की “रूप यानी फॉर्म” को आगे बढ़ाने वाली  रंग गतिविधियाँ संसाधनों से लबरेज़ रहेंगी और “प्रश्न उठाने वाला और व्यवस्था” को चुनौती देने वाला रंगकर्म ,रंगकर्मी , रंग आन्दोलन या रंग नीति संसाधन विहीन रहेगी ..क्योंकि ये चेतना का रंगकर्म है जो संसाधनों से नहीं प्रतिबद्धता यानी जूनून से चलता है  !

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