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28.12.15

भाजपा संकट : ...और कितने ‘कीर्ति’ होंगे आजाद...?

-अरविन्द कुमार सिंह-
दरभंगा के सांसद और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री भगत झा आजाद के क्रिकेटर बेटे कीर्ति ‘आजाद’ को भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से आजाद कर दिया गया । उनके इस निलंबन का आधार बनाया गया भाजपा के वरिष्ठ नेता और भारत सरकार के वित्त तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेटली के विरुद्ध उनका बगावती तेवर । आजाद का यह तेवर कोई नया नहीं है बल्कि इसकी संगे-बुनियाद तो कई वर्षों पूर्व पड चुकी थी, जब श्रीजेटली दिल्ली क्रिकेट निकाय यानी डीडीसीए के चेयरमैन थे। इनके कार्यकाल में दिल्ली का फिरोजशाह कोटला स्टेडियम की मरम्मत में 24 करोड़ की लागत के बजाय 114 करोड़ रुपये खर्च किये गये और 90 करोड़ गबन कर लिया गया, जबकि कीर्तिआजाद के अनुसार वे डीडीसीए के सदस्य और एक अन्तराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी की हैसियत से श्रीजेटली से अनेक बार लिखित और मौखिक शिकायत कर चुके थें । डीडीसीए में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटाले की शिकायत केवल आजाद ही नहीं बल्कि कई दूसरे सदस्य खिलाड़ी जैसे विशन सिंह वेदी और सुरेन्द्र खन्ना भी कर चुके हैं।



ताजा मामला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के आफिस  में सीबीआई का छापा और उनके मुख्यसचिव से पूछताछ से ज्यादा गरमा गया । श्री केजरीवाल के अनुसार वे डीडीसीए के घोटाले की जांच, एक जांच-आयोग बनाकर  करवाना चाहते हैं । जिसकी फाइल की तलाश में भारत सरकार ने सीबीआई को लगाया था और  जब उनके आफिस में वह  फाइल नहीं  मिली  तो उनके प्रधान सचिव को ही निशाना बना दिया गया, किन्हीं पुराने कार्यकाल से  जुड़े मामले को आधार बनाकर । ‘आजाद’ एक कुशल क्रिकेटर रहे हैं लिहाजा उनका श्रीजेटली पर डीडीसीए संबंधी आरोप लगाना गम्भीर हो जाता है। इसकी जांच करा लेने में कोई हर्ज नहीं था और नहीं है। उनकी जांच संबंधी मांगों के आधार पर उन्हें भाजपा द्वारा विपक्ष का एजेंट समझना सत्य की अवहेलना करने के समान है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था की रहनुमाई करने वाली, फिलहाल देश की सबसे बड़ी राजनीतिक दल भाजपा का आन्तरिक लोकतंत्र तो, कम से कम यहाँ पर, यही दर्शाता है कि उसके नेतृत्व के खिलाफ बोलने की स्वतन्त्रता किसी को भी नहीं है ,चाहे शीर्ष नेतृत्व कुछ भी करे या कहे। क्या अब नये अवतार में भाजपा इस विचार-धारा से पुष्ट हो चुकी है कि उसकी खिलाफ़त करने वालों को इसी तरह निपटा दिया जाएगा। चाहे वह आजाद हों या फिर भाजपा के शिखर पुरुष रहे, उसकी संगे-बुनियाद का पत्थर स्वयं ‘लालकृष्ण आडवाणी’। क्या भाजपा का यह नया संस्करण है या ‘अटल-आडवाणी’ युग के अवसान के बाद ‘मोदी-युग’ की शुरुआत ।  यह सवाल उतना ही संजीदा है, जितना भाजपा के संसदीय दल द्वारा कीर्ति आजाद को निलंबित करने का निर्णय लिया जाना।

दरअसल भाजपा के गर्भ में नैतिक ढलान के बीज तो उसी दिन पड गये थे जब बीते वर्ष-2014 के आम-चुनाव में उसे अभूतपूर्व सफलता मिली और देश के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने शपथ लिया । समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान का एक मानक सिद्धांत है कि अप्रत्याशित और अभूतपूर्व सफलता व्यक्ति या संस्था को तानाशाही की ओर अग्रसर करती है। वैसे भारतीय साहित्य में इसी बात को सोने और धतूरे के प्रतीकों को आधार बनाकर भी कहा गया है- ‘‘कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय या खाये बौराए या पाये बौराए।’’

यहाँ तो देश-विजय की अपार सफलता की मादकता है, जो शीर्ष नेतृत्व के सिर चढ़ बोल रही है। संसद के भीतर सरकार और बाहर भाजपा के लिए मुसीबत बनें ‘आजाद’ के बहाने कितनी ही उपेक्षित और  दमित सियासी आत्माएं पुनर्जागरित हो चुकी हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भाजपा के कभी रीढ़ रहे आज के बुजुर्ग मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के दूसरे मार्गदर्शक एम०एम०जोशी से नये सियासी घटनाक्रम के सिलसिले में मिलने उनके घर पहुँच गए, जहाँ दूसरे बुजुर्ग नेता यशवंत सिन्हा और हरियाणा के नेता शान्ता कुमार भी इस बैठक में उपस्थित थें। बैठक का लक्ष्य चाहे जो भी बताया जाये लेकिन इसके निहितार्थ ‘आजाद’ को जोडकर ही निकाले जा रहे हैं। भाजपा की मुसीबत ‘कीर्ति’ को लेकर कम होगी या नहीं, लेकिन बुजुर्ग मार्गदर्शकों का यह आपात-मिलन शीर्ष नेतृत्व के गले की फांस बन सकती है।

भारत विजय के बाद अति विश्वास की शिकार भाजपा और भारत सरकार अपनी प्रबल ताकत के बाद भी दिल्ली नहीं जीत सकी। केजरीवाल जैसे नौसिखिये नेता ने एक छोटे से राज्य में ही महाबली और भारत के बयानवीर प्रधानमंत्री को धुल चटा दिया। हद तो तब हो जाती है जब एक महा-हार के बाद सियासी कमियों की समीक्षा करने की बजाय, उसी ‘दल’ ने बिहार में फिर उसी कमी को दोहराया और परिणाम यह हुआ कि एक वर्ष से ऊपर देश पर ‘राज’ कर चुकी पार्टी को बिहार में भी करारी हार का सामना करना पड़ा। क्या यह मोदी के तिलिस्मी जादू का पराभव है या उनके दाहिने हाथ ‘अमित शाह’ की संगठनात्मक चूक। जो भी हो बिहार में भाजपा और भारत सरकार दोनों ही हारी, जिसकी समीक्षा तो होनी ही चाहिए और उस हार की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में बिहार के नेता शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आजाद वास्तव में बहादुर हैं जो अपने नुकसान और फायदों की परवाह किए बिना सत्य बोलते रहंे। नये सियासी घटनाक्रमों के देखते हुए भाजपा का उपेक्षित तबका और आडवाणी खेमा खाद पानी पाकर नये सियासी संधान में लग गया है और ‘आजाद’ की आजादी में बुजुर्ग मंडल ही नहीं, बल्कि विधिवेत्ता और भाजपा के सुब्रहम्णयम स्वामी जैसा नेता भी लग चुके हैं। ऐसे में भाजपा नेतृत्व और सरकार के लिए यह संकट की स्थिति होगी कि वह अभी कितने और ‘कीर्ति आजादों’ को आजाद करेगी़, क्यों कि शत्रुघ्न सिन्हा, सुब्रह्मणयम स्वामी,शान्ता कुमार,यशवंत सिन्हा और फिर आडवाणी सरीकों वरिण्ठ नेताओं की एक लम्बी फेहरिस्त तैयार होती दिख रही है। क्या भाजपा का वर्तमान नेतृत्व अपनी सत्ता की मादकता में इस परिघटना को देख पा रहा है या ‘सत्ता-सुन्दरी’ का रूप-पाश उसकी आँखों पर पर्दा डाल दी।      

लेखक अरविन्द कुमार सिंह शार्प रिपोर्टर पत्रिका के प्रधान संपादक हैं. मो०09451827982

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