हाल ही में एबीपी न्यूज़ से पुण्य प्रसून बाजपेयी सहित कई अन्य पत्रकार निकाले गए या निकलने के लिए मजबूर कर दिये गए। वैसे यह कोई नयी बात नहीं है। वो दिन लद गए जब पत्रकार की बाकायदे बिदाई होती थी। अर्सा हो गया अखबार में माला पहने हुए पत्रकार की फोटो सेवानिवृत्त की खबर के साथ देखे हुए। कुछ वर्ष पहले तक मशीन में काम करने वाले अखबारकर्मी की माला पहने हुए फोटो देखे हुए। क्या अखबार में काम करने वाले लोग रिटायर नहीं होते।
बहरहाल, पुण्य प्रसुन्न बाजपेयी हटे या हटाये क्या गए जिसे देखो वही " तरकश से तीर" निकाल कर उन्हें निशाने पर ले रहा है। कोई हमदर्दी का है तो कोई " ज़हर से बुझा हुआ"। मसलन NDTV, से इतने मीडिया कर्मी निकाले गए तब रवीश कुमार चुप क्यों थे? IBN7 से थोक में लोग निकाले गए तब लोगों की तालू क्यों चिपक गई थी। NEWS 24 से अजित अंजुम निकाले गए तो कोई नहीं बोला। ज़ी न्यूज़ से रोहित सरदाना हटे तब लोगों ने लट्ठ नहीं भांजी। सहारा मीडिया से सैकड़ों कर्मचारी निकाले गए तब खड़के साहब नहीं " खड़के, दैनिक जागरण ने बड़ी संख्या में कर्मचारियों को " दूध में पड़ी मक्खी" की तरह फेंक दिया गया तब खड़के साहब नहीं खड़के साहब नहीं " खड़के "। मतलब यह कि खड़के साहब अपने मन से खड़क भी नहीं सकते।
यह (खड़के) तुकबंदी नहीं इसी (भड़ास4मीडिया) न्यूज पार्टल पर उठाये गए सवाल का उसी लहज़े में जवाब है लेकिन इतना लिखने का कारण लोगों का बेतुकापन है। सवाल करो तो क्यों किया, नहीं करो तो क्यों नहीं किया। ठीक इसी तरह का सवाल " गोदी " मीडिया और गोदी पत्रकार उठाते हैं। अब यह अलग बात है कि वे जानबूझकर उठाते हैं या अनज़ाने में शिकार हो जाते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि, कुछ नया के चक्कर में ऐसा लिख जाते हैं। इसके दोषी भी हम जैसे हैं।
याद करिए। इस याद करने के लिए बहुत पीछे जाने की की जरूरत नहीं है। बामुश्किल दो - तीन साल पहले की बात है। तीन लेखकों पनसारे, कलबुर्गी और दामोलकर (हो सकता है कि नाम/टाइटिल गलत हो गए हों) की हत्या कर दी गई, बड़ी संख्या में साहित्यकारों ने पुरस्कार/सम्मान वापस किए। फिर उस तरह की या उससे मिलती-जुलती घटना हो गई। किसी ने पुरस्कार वापस नहीं किया बस फिर क्या गोदी मीडिया " हाथ धोकर क्या, नहा-धोकर पीछे पड़ गया कि, "तब वापस किया था, अब क्यों नहीं किया? इस तरह के सवाल आज भी उठाये जा रहे हैं। एक खबरिया चैनल ने तो इन लोगों को " अवार्ड वापसी" गैंग का खिताब दे रहा है। गैंग नकारात्मक शब्द/सोच है। गैंग गुंडे-बदमाशों का होता है।
इस चैनल की निगाह में पत्रकार/सम्मान वापस करनेवाले गुंंडे-बदमाश होते हैं। क्या यह सवाल नहीं उठता कि जिन साहित्यकारों ने एक बार अवार्ड वापस कर दिया वे दूसरी बार कहां से वापस करें किसी से मांग कर वापस करें क्या? इसी तरह कुछ लोग (इसमें खबरिया चैनल भी शामिल हैं) आज सवाल करते हैं कि जब कश्मीर से वहां के पंडित भगाये गए तब लोगों ने पुरस्कार और सम्मान वापस क्यों नहीं किया? बात को आसान करने के लिए आमिर खान को ( उदाहरण के लिए) लेते हैं क्योंकि बिना नाम लिए अनुपम खेर ने सवाल खड़ा किया कि तब ऐसे लोग कहां थे? 1991 के आसपास कश्मीर से वहां के मूल लोगों (कश्मीरी पंडितों) को भगाया गया या भाग जाने के लिए मज़बूर किया गया। हो सकता है कि 1991 में आमिर खान को पुरस्कार/सम्मान मिला ही ना हो तो वे कहां से वापस करते? कुछ मित्र मुझसे ही सवाल करते हैं कि फलां मुद्दे पर तब आप क्यों नहीं बोले आज क्यों बोल रहे हैं तो अपनी बात कहने का, विरोध करने का कोई मंच (वाट्सएप-फेसबुक) नहीं था, हो सकता है कि उस समय मेरे अंदर इतनी जागरूकता/राजनीतिक चेतना ना रही हो जितनी आज है।
बात मुद्दे की... एबीपी न्यूज़ से पहले भी पत्रकार निकाले गए और आगे भी निकाले जाएंगे। पहले विरोध या हो-हल्ला नहीं हुआ और अब हो गया तो कौन सा गुनाह हो गया अरे कभी तो हुआ, शुरुआत तो हुई। पुण्य ज़ी को मैं जानता नहीं पर आदर करता हूं। इससे पहले भी वे न्ज़ूज चैनल आजतक से हटाए गए थे। सुना है कि सीधी बात नामक कार्यक्रम में उन्होंने बाबा (लाला) रामदेव से चुभते हुए सवाल पूछने के कारण नौकरी से हटाये/हटवाए गए। इस कार्यक्रम में अंजना ओम कश्यप और नईम अंसारी भी थे लेकिन हटाये गए बाजपेयी जी ही।
टीवी चैनलों में काम करने वाले लोग हों या अखबार में काम करने वाले हटने और हटाये जाने में अंतर होता है और यह अंतर किसी को ना दिखाई दे तो वह उसकी आंखों का दोष है, सोच का दोष है। हटाये जाने की वज़ह भी मायने रखती है। हम जो़श में, गुटबाजी में आपसी खुन्नस में चाहे जो कहें। अखबार की नौकरी से मैं भी हटाया गया हूं वो भी एक नहीं दो-दो बार। पहली बार हिन्दी दैनिक " आज " दूसरी बार राष्ट्रीय सहारा से। आज से शादी के पांच दिन पहले निकाला गया था और सहारा से 24 साल की नौकरी के बाद 57 साल की उम्र में।
सहारा मीडिया से लगभग सात सौ कर्मचारी निकाले गए। जहां तक मैं समझता हूं कि इसमें से एक भी सत्ता या सत्ता के केंद्रबिंदु का विरोध करने के लिए नहीं निकाले गए। अधिकतर लोग इसलिए निकाले गए कि मालिकानों को मज़ीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के अनुसार अधिक वेतन और अन्य परिलाभ न देना पड़े। बड़ी संख्या में अखबारकर्मी इसलिए निकाले जाते हैं (वैसे कोई भी अखबार अपने कर्मचारियों को निकालता नहीं वह ऐसी हालत पैदा कर देता है कि कर्मचारी खुद ही छोड़ दे। वह कश्मीर में काम करने वाले कर्मचारी का कन्याकुमारी तबादला कर देता है। अखबार में वेतन कम और भत्ते ज्यादा होते हैं वो भी फालतू वाले। भत्ते कभी भी खत्म किये जा सकते हैं और खत्म कर भी दिये जाते हैं ऐसे में कोई और चारा नहीं होता नौकरी छोड़ने के।
पुण्य प्रसुन्न बाजपेयी, अभिसार शर्मा और मिलिंद के निकाले जाने में और " थोक में" अन्य पत्रकारों के निकाले जाने में शायद यही अंतर है।
अरुण श्रीवास्तव
देहरादून।
arun.srivastava06@gmail.com
10.8.18
पुण्य प्रसून बाजपेयी के बहाने
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