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4.7.19

अमेरिका के आगे क्यों नतमस्तक है मोदी सरकार

Shyam Singh Rawat
थोड़ा पीछे चलकर याद कीजिये कि किस तरह 2014 के लोकसभा चुनाव के दौर में नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन कांग्रेसनीत यूपीए सरकार तथा कांग्रेस को बुरी तरह सवालों के जाल में फँसाकर सत्ता पर कब्जा जमाने में कामयाबी हासिल कर ली थी। उन्होंने ऐसा क्यों हुआ, ऐसा क्यों नहीं किया गया आदि विभिन्न प्रकार के प्रश्नों के अलावा देशभर में घूम-घूमकर देशप्रेम के सुनहरे सपनों का मायाजाल रचा लेकिन दिल्ली की सत्ता कब्जियाने के बाद वे देशहित की बलि चढ़ाते हुए एक के बाद दूसरा फैसला अमेरिका तथा उसकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित-लाभ में लेते रहे हैं।  

अभी हाल ही में अमेरिका ने मोदी सरकार की नाक में नकेल डालकर भारत को ईरान से अनेक प्रकार की आसान भुगतान शर्तों, ढुलाई में छूट व सस्ते तेल को छोड़कर सऊदी अरब से महंगा, अमेरिकी डॉलर में नकद भुगतान व किराया देकर तेल लेने पर मजबूर कर दिया। अमेरिका ने पांच देशों―भारत, चीन, तुर्की, जापान और दक्षिण कोरिया को ईरानी तेल आयात को खत्म करने या फिर अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करने को तैयार रहने का अल्टीमेटम दिया। जिनमें ईरानी तेल के सबसे बड़े आयातक चीन और भारत हैं। मोदी सरकार बिना किसी चूं-चपड़ के अमेरिका के आगे झुक गई, जबकि चीन ने अमेरिकी अल्टीमेटम को ठुकरा दिया।

दूसरी घटना, भारत ने सभी विदेशी पेमेंट कंपनियों को डेटा लोकलाइजेशन के अंतर्गत अपना डेटा 'केवल भारत' में रखना अनिवार्य बनाने हेतु जो अपनी नई ई-कॉमर्स पॉलिसी तैयार की थी और जिसके मसौदे पर कन्फैडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (CAIT) भी सहमत हो गई थी, उसे अमेरिका के दबाव में एक साल के लिए टाल दिया गया है।

जबकि इस नीति के सम्बंध में रिजर्व बैंक ने पिछले साल अप्रैल में अपने निर्देश में कहा था कि सभी विदेशी पेमेंट कंपनियों को अपने डेटा काे 'केवल भारत' में ही रखना होगा। ताकि देश के नागरिकों के निजी आंकड़ों का कलैक्शन, प्रोसेस और स्टोर करके देश के भीतर ही रखने से उन पर निर्बाध तरीके से निगरानी रखी जा सके।

रिजर्व बैंक के इस निर्देश के बाद ही अमेरिकी सरकार और कंपनियां इस नीति में बदलाव के लिए जबरदस्त दबाव बना रही थीं क्योंकि इस प्रावधान से विदेशी कंपनियों के बुनियादी ढांचे पर लागत बढ़ेगी और उनकी निवेश योजनाओं को चोट पहुंचेगी।

इससे पहले, अमेरिका ने अपने जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेंसेंज (जीएसपी/सामान्य तरजीही प्रणाली) व्यापार कार्यक्रम के तहत भारत को प्राप्त लाभार्थी विकासशील देश का दर्जा खत्म कर दिया। अमेरिका की यह जीएसपी प्रणाली उसके द्वारा अन्य देशों को व्यापार में दी जाने वाली तरजीह की सबसे पुरानी और बड़ी प्रणाली है। ऐसा दर्जा प्राप्त देशों को हजारों सामान बिना किसी शुल्क के अमेरिका को निर्यात करने की छूट मिलती है।

अमेरिका ने भारत समेत दुनिया के 129 देशों को यह सुविधा दी है। यह लाभ उन उत्पादों पर उठाया जाता है जिनका निर्यात अमेरिका को किया जाता है। वर्ष 2017 में भारत ने इसके तहत अमेरिका को 5.7 अरब डॉलर का निर्यात किया था। भारत जीएसपी का अब तक सबसे बड़ा लाभार्थी देश रहा है लेकिन अब अमेरिका के इस कदम से भारत को प्रतिवर्ष औसतन 5.6 अरब डॉलर (40,000 करोड़ रुपए) का नुकसान होगा।

अमेरिका ने क्यों वापस लिया यह दर्जा? अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का कहना है कि भारत ने अमेरिका को 'अपने बाजार तक समान और तर्कपूर्ण पहुंच' देने का आश्वासन नहीं दिया है। भारत में पाबंदियों की वजह से उसे व्यापारिक नुकसान हो रहा है। इसलिए यह फैसला लिया है कि भारत अपने बाजार में अमेरिकी उत्पादों को बराबर की छूट देगा।

अमेरिका के आगे नहीं झुकने के चंद ऐतिहासिक उदाहरण―

इतिहास में ऐसे अनेक मौके आये जब अमेरिकी दबाव के आगे भारतीय नेतृत्व ने घुटने टेकने की बजाय उसे उसकी ही भाषा में जवाब दिया। देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के समय में देश में भयंकर सूखा पड़ने से अन्न उत्पादन घट गया था और पाकिस्तान ने भारत पर हमला भी कर दिया था। ऐसे विकट समय में अमेरिका ने अपनी PL-480 योजना के तहत कुछ शर्तों के साथ भारत को खाद्यान्न देना मंजूर किया। शास्त्री जी को वे शर्तें देश की आन-बान-शान के विरुद्ध महसूस हुईं और उन्होंने अमेरिका से अनाज लेने से मना कर दिया। उन्होंने अन्न संकट से उबरने के लिए देशवासियों से अपील की कि सभी देशवासी सप्ताह में एक दिन का व्रत रखें। उनकी अपील पर देशवासियों ने सोमवार को व्रत रखना शुरू कर दिया था। इस प्रकार देश अन्न संकट से उबरने में कामयाब हुआ।

इंदिरा गांधी के समय में 1971 के भारत-पाक युद्ध के चरमोत्कर्ष के दिनों में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड मिल्हौस निक्सन ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बाग्लांदेश) से अपनी सेनायें वापस वापस बुलाने अन्यथा परमाणु शक्ति सम्पन्न अमेरिकी सातवें बेड़े का प्रहार झेलने का अटीमेटम दिया था जिसे इंदिरा गांधी ने अनसुना कर रातों-रात तत्कालीन सोवियत संघ से दीर्घकालिक संधि के तहत उसकी परमाणु अस्त्रों से लैस पनडुब्बी हासिल कर ली। इससे अमेरिका तथा उसके पिट्ठू देश सकते में आकर चुप हो गये और भारतीय सेनाओं ने इतिहास रच दिया।

तीसरी घटना बताती है कि किस तरह भारत ने दुनिया के विरोध के बावजूद अपने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु शक्ति विकसित की और 18 मई, 1974 को राजस्थान के पोखरण (जैसलमेर) में पहला परमाणु परीक्षण किया। इससे भारत पांच देशों के परमाणु शक्ति सम्पन्न समूह में आ गया। भारत के इस परमाणु परीक्षण की दुनियाभर में निंदा होने लगी और अमेरिका तथा उसके साथी देशों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। अमेरिका व कनाडा ने परमाणु रिएक्टरों को दिए जाने वाले रेडियोएक्टिव ईंधन और भारी जल की सप्लाइ रोक दी। इसके बावजूद इंदिरा गांधी ने हार नहीं मानी और शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु कार्यक्रम जारी रखा।

चौथी घटना पीवी. नरसिंहा राव के समय में हुई। जब 1992 में अमेरिका ने भारत को इसके अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए पहले तो क्रायोजेनिक इंजन व तकनीक देना मंजूर किया लेकिन बाद में मुकर गया। इससे भारत ने रूस से क्रायोजेनिक प्रौद्योगिक हासिल करने की कोशिश की लेकिन अमेरिकी दबाव और प्रमुख शक्तियों की संवदेनशील प्रौद्योगिकी सम्बंधी नीति के कारण वह कोशिश भी नाकाम रही। इस पर भी भारतीय नेतृत्व ने हार नहीं मानी और अपने निजी तकनीकी कौशल से क्रायोजेनिक इंजन बनाने में सफलता हासिल की। जिससे इसका अंतरिक्ष कार्यक्रम अमेरिका, रूस, चीन को टक्कर देने लगा।

इसी दौर में भारत को अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम तथा मौसम सम्बंधी आंकड़ों की तीव्र व अचूक गणना के लिए सुपर कम्प्यूटर की आवश्यकता महसूस हुई। इसके लिए भी अमेरिका तथा सोवियत संघ ने क्रायोजेनिक इंजन तथा इसकी प्रौद्योगिक वाले मामले की तरह अनेक प्रकार की नखरेबाजी के बाद अन्त में सुपर कम्प्यूटर व तकनीक देने से इनकार कर दिया। इसके बावजूद भारत ने बहुत कम लागत और कम समय में अमेरिका व रूस से भी अधिक उन्नत किस्म का सुपर कम्प्यूटर परम-10000 बना लिया।

अब मोदी सरकार का हाल यह है कि अपनी नाकामियों और अक्षमता पर पर्दा डालते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की लल्लो-चप्पो करते हुए उनके आगे घुटनों के बल बैठी दिखाई देती है। जैसा कि ट्रंप ने अभी-अभी कहा है कि भारत-अमेरिका के सम्बंध इससे पहले कभी भी इतने अच्छे नहीं रहे। तो विचार करने की बात है कि यदि अमेरिका भारत को हज़ारों करोड़ का व्यापार घाटा देकर कह रहा है कि रिश्ते बेहतर हैं तो इससे बेहतर तो तब था, जबकि भारत के रिश्ते अमेरिका की नज़र में खराब रहे होंगे क्योंकि तब कम से कम भारत का न तो विशिष्ट व्यापार का दर्जा छीना गया था और न ही भारत को घुटने के बल रीढ़विहीन होकर अमेरिकी घुड़की से डर कर अमेरिका के हर फैसले को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार श्याम सिंह रावत की एफबी वॉल से.

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