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8.7.19

कांग्रेस का संकटकाल

अंशुमान सिंह
कांग्रेस स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से देश की सबसे बडी और व्यापक रूप से सक्रिय पार्टी रही है। कांग्रेस के केन्द्रीय सत्ता के क्रियान्वयन में नेहरू परिवार का अधिपत्य रहा है। चाहे जवाहरलाल नेहरू हों, इंदिरागांधी गांधी हों, राजीव गाँधी हों, कांग्रेस की निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी हों या फिर वर्तमान अध्यक्ष राहुल गाँधी हों।

महात्मा गाँधी द्वारा गाँधी विचारधारा पर स्थापित एवं स्वतंत्रता प्राप्ति में सक्रिय भूमिका निभाने वाली गाँधी विचारधारा पर आधारित कांग्रेस पार्टी के लिये लोकसभा चुनाव 2014 से वर्तमान तक का राजनीतिक सफर बड़ा ही चुनौतीपूर्ण तथा दुर्भाग्यपूर्ण रहा है। लोकसभा चुनाव 2014 में अपनी राजनीतिक  साख को चुनाव नतीजों के रूप में हारने वाली कांग्रेस पार्टी की बची-कुची साख भी 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड जीत में जाती रही। जिसका प्रमुख कारण है कांग्रेस के राज्यीय नेतृत्व में बेहतर क्रियान्वयन का अभाव। जिससे संगठन में पारस्परिक असमंजस्य रहा और राष्ट्रपिता की विचारधारा पर स्थापित पार्टी स्वयं की विचारधारा को जनमानस तक पहुंचाने में असमर्थ रही।

वर्तमान का समय कांग्रेस के लिये मंथन का समय है। कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को इस तथ्य पर गहन मंथन की आवश्यकता है कि क्यों पार्टी के अनुभवी और शाही चेहरों को दुर्दांत हार का सामना करना पड़ा। जी, हाँ! मैं बात कर रहा हूँ मध्यप्रदेश की राजनीतिक धरा का अनुभवी चेहरा दिग्विजय सिंह तथा मध्यप्रदेश राजनीति का चर्चित शाही चेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया की। कभी मध्यप्रदेश के मुखिया रहे दिग्विजय सिंह के लिये भोपाल से चुनाव लड़ना उस समय मील का पत्थर साबित हुआ। जब बीजेपी ने भोपाल से चुनाव लडने के लिये साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को चुनाव मैदान में उतारा।

विडम्बना है कि कभी 'हिन्दू आतंकवाद'शब्द को मध्यप्रदेश की राजनीतिक धरा पर उच्चारित करने वाले दिग्विजय सिंह उन्हीं हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक 'मंदिरों 'में सिर झुका झुका कर प्रणाम करते नजर आये। खैर,यह सब तो राजनीति में आम बात है। भारतीय जनता पार्टी ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से राजनीतिक धरा पर उतारकर सम्पूर्ण को भगवामय कर दिया और इस गहन भगवा रंग में न चाहते हुये भी दिग्विजय सिंह रंग ही गये। और दिग्विजय सिंह को व्यक्तिगत शत्रु मानने वाली प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने दिग्विजय को शिकस्त दे ही दी। दिग्विजय की हार का एक कारण यह भी रहा कि पिछले कुछ समय से अपने गलत बयानों के कारण जनता का विश्वास खो दिया।

वहीं, गुना से कांग्रेस में सक्रिय भूमिका रखने वाले ग्वालियर के शाही व्यक्तित्व ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी अपनी परंपरागत सीट पर मुंह की खानी पड़ी।और दिलचस्प तथ्य यह है कि उनके विरूद्ध बीजेपी ने के पी यादव को मैदान में उतारा जो किसी समय ज्योतिरादित्य सिंधिया के खास सिपहसालार हुआ करते थे। उन्होंने गुना से मुकाबला और दिलचस्प बना दिया। और सिंधिया को परंपरागत सीट से हार का सामना करना पड़ा। वाकई, कांग्रेस के लिये यह गहन मंथन का विषय है।

और यदि बात की जाये मध्यप्रदेश के तात्कालीन मुखिया और कांग्रेस के प्रतिष्ठित राजनेता कमलनाथ की तो महाभारत काल की मात्र एक ही बात जहन में आती है कि 'पुत्र मोह ने धृतराष्ट्र से क्या कुछ नहीं कराया' तो मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ भला कैसे पीछे हटते। उन्होने तो सम्पूर्ण लोकसभा चुनाव में एक ही चौपाई को राजनीतिक सूत्र के रूप में आत्मसात कर लिया कि "मेरा सूत्र यही है भाई, सब कुछ जाये पर पुत्र की सीट न जाई।" सम्पूर्ण चुनावी परिवेश में यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता रहा कि मध्यप्रदेश कांग्रेस के प्रभावी तथा बडे चेहरे स्वयं के स्वार्थ सिद्धि में लगे रहे और उनके 'हाथ ' से समस्त मध्यप्रदेश निकल गया।

Anushant Singh
singhanushant902@gmail.com

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