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9.12.19

इमरान को भारी ना पड़ जाये बाजवा से टकराहट!

कृष्णमोहन झा

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद पर इमरान खान को आसीन हुए अभी मुश्किल से 16 माह का वक्त ही बीता है ,लेकिन इतनी छोटी सी अवधि में ही सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा के साथ उनके संबंधों में इतनी खटास आ गई है कि निकट भविष्य में ही प्रधानमंत्री पद से इमरान खान की विदाई के कयास लगाए जाने लगे हैं। दरअसल सेना अध्यक्ष बाजवा से लगभग दो माह के बाद इमरान खान की मुलाकात के तत्काल बाद जब इमरान खान अचानक दो दिन की छुट्टी पर चले गए ,तभी से राजनीतिक दलों एवं मीडिया द्वारा इसे सेना एवं सरकार के बीच बढ़ती दूरियों के रूप में देखा जा रहा है।

सेना प्रमुख के बीच हुई भेंट के दौरान प्रधानमंत्री इमरान खान के चेहरे पर बनावटी मुस्कान स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी, जबकि इस भेंट के दौरान जनरल बाजवा पूरे समय गम्भीरता ओढे रहे। यह बात इस बात की गवाही दे रही थी कि सेना प्रमुख देश के प्रधानमंत्री के प्रदर्शन से संतुष्ट नहीं है। सेनाध्यक्ष के चेहरे की गंभीरता प्रधानमंत्री को यह संदेश देना चाह रही थी कि अब उन्हें खुद आगे होकर सत्ता से हट जाने का विकल्प चुन लेना चाहिए। अगर ऐसा नहीं था तो इमरान खान के अचानक छुट्टी पर जाने चले जाने की कोई वजह ही नहीं थी। उनका दो दिन की छुट्टी पर जाने का कोई कार्यक्रम भी पहले से तय नहीं कर रखा था। इससे आगे आने वाले समय में देश के राजनीतिक घटनाक्रम में अगर कोई बड़ा बदलाव देखने को मिलता है इससे तो इमरान खान की इस आकस्मिक छुट्टी की असली वजह भी सामने आ जाएगी।  पाकिस्तान में अब इन अटकलों का बाजार गर्म है कि इमरान खान को जल्द ही प्रधानमंत्री पद का मोह त्यागना पड़ेगा। शायद उन्हें भी इस कड़वी सच्चाई का अनुमान लग चुका है।

लगभग सोलह माह पूर्व इमरान खान जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए थे वह उन्हें इसलिए नहीं मिली थी कि वह देश के सबसे लोकप्रिय नेता है। पाकिस्तान की जनता के बीच वे इतने लोकप्रिय भी नही रहे कि वे भारी बहुमत से प्रधानमंत्री चुन लिए जाते। दरअसल प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने का सौभाग्य तो उन्हें इसलिए मिला था क्योंकि वह खुशी-खुशी सेना की कठपुतली बनने के लिए तैयार हो गए थे। इसलिए सेना ने उन्हें और उनकी पार्टी को जिताने में भरपूर मदद की। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने अपनी कार्यशैली से सेना को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पाकिस्तान की सेना को हमेशा से ऐसे ही प्रधानमंत्री पसंद आते रहे ,जो उनके इशारे पर नाचने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो जाए। इमरान खान ने अपने अब तक के कार्यकाल में खुद को ऐसे ही प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया है।प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही इमरान खान ने सेना को खुश करने के लिए सबसे पहले तो भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार को अपनी सरकार का असली एजेंडा बनाया। दुनिया भर में और संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्था के मंच से उन्होंने हमेशा भारत के विरुद्ध जहर ही उगला, लेकिन उन्हें कहीं से भी भारत के विरुद्ध समर्थन जुटाने में सफलता नहीं मिली। पाकिस्तान की सेना के हुक्मरानों को खुश करने के लिए उन्होंने आतंकी संगठनों को भी फलने फूलने से कभी नहीं रोका। जब पाकिस्तान के इन संगठनों ने भारत में भयावह आतंकी हमलों की साजिश रची तो उन्होंने यह मानने से ही इंकार कर दिया कि पाकिस्तान के अंदर इन आतंकी हमलों की साजिश रची गई थी।इमरान खान की आतंकी संगठनों को प्रतिबंधित करने की कभी कोशिश ही नहीं की। क्योंकि अगर वैसा करते हैं तो उन्हें सेना के कोप भाजन का डर था। आखिर इन आतंकियों को प्रशिक्षित करने का काम तो सेना ही कर रही थी।

 इमरान खान शायद सोच रहे थे कि उनके देश में पल रहे आतंकी संगठनों द्वारा भारत में किए जा रहे आतंकी हमलों का भारत के द्वारा कोई प्रतिरोध नहीं किया जाएगा, लेकिन भारतीय सेना ने पाकिस्तान की सीमा के पांच किलोमीटर अंदर घुसकर एयर स्ट्राइक के द्वारा अनेक आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया और उनके अड्डों को भी ध्वस्त कर दिया तब इमरान खान ने भारत के इस पराक्रम को ही झुठला दिया। भारत की मोदी सरकार ने जब जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म करने का साहसिक फैसला किया तो इमरान खान ने सारी दुनिया में जाकर भारत के विरुद्ध जहर उगला, परंतु उन्हें हर जगह टका सा जवाब मिला कि यह भारत का आंतरिक मामला है। लाचार होकर इमरान खान ने जब खुद को देश के अंदर ही सीमित करने का फैसला किया तो देश की भयावह आर्थिक स्थिति के कारण देश की जनता का कोपभाजन बनने के अलावा उनके सामने कोई दूसरा रास्ता नहीं था। दुनिया भर में भीख का कटोरा लेकर घूमने के बावजूद इमरान खान कहीं से भी इतनी मदद नहीं जुटा पाई कि देश को आर्थिक बदहाली से उभार पाते। आज पाकिस्तान में महंगाई इस कदर भयावह हो चुकी है कि टमाटर 300 रुपए प्रति किलो बिक रहा है। रोजमर्रा की वस्तुओं के दाम भी आसमान छू रहे हैं। इमरान खान का देश के अंदर इतना विरोध हो रहा है कि वह निरापद होकर अपना कार्यकाल पूरा करने के प्रति निश्चिंत नहीं है। उन्हें जब- तब अपनी कुर्सी चले जाने का खतरा सताता रहता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बाजवा को छह माह का सेवा विस्तार देकर उन्हें कुछ राहत दी है। क्योंकि वे इस तथ्य से भी अच्छी तरह वाकिफ है कि पाकिस्तान में प्रधानमंत्री की कुर्सी तभी तक सुरक्षित है, जब तक कि सेना का वरद हस्त उस पर बना रहे।

यूं तो इमरान खान ने अपने देश की सेना के हुक्मरानों को खुश रखने के लिए इन सोलह महीने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, लेकिन उनके व सेनाध्यक्ष कमर बाजवा के बीच खटास की खबरे आती रही। लगभग दो महीने पहले ही सेनाध्यक्ष वाजवा की नाराजगी के संकेत पहली बार तब मिले ,जब सेनाध्यक्ष ने पाकिस्तान के बड़े कारोबारियों की एक बैठक बुलाई और इमरान खान को इसकी भनक तक नहीं लगी। इमरान खान के पास उस समय मन मसोसकर रह जाने के अलावा  कोई चारा भी नहीं था। बताया जाता है कि उसके बाद  प्रधानमंत्री के बीच की दूरियां निरंतर बढ़ती ही गई है। सेना के हुक्मरान अब महत्वपूर्ण फैसले में इमरान खान को शामिल करना जरूरी नहीं समझते। सेना की नजरों में इमरान खाना अब नाम मात्र के प्रधानमंत्री है।

ऐसा नहीं है कि इमरान खान ने केवल सेना का ही विश्वास खो दिया है।  देश के विरोधी दलों के द्वारा किए जा रहे उग्र आंदोलनों में भी इमरान सरकार की जड़ें हिला कर रख दी है। पिछले दिनों पाकिस्तान के एक विरोधी दल जमीयत उलेमा ए इस्लाम ने जो आजादी मार्च निकाला था, उसमें दो लाख लोगों की भागीदारी इस बात का सबूत है कि देश की जनता इमरान खान से खुश नहीं है। इस आजादी मार्च को देश के सभी विरोधी दलों का भी समर्थन प्राप्त था। रैली में शामिल विरोधी दलों के नेताओं ने इमरान खान को नकली और चयनित प्रधानमंत्री बताते हुए उनके इस्तीफे की मांग की थी। सभी नेताओं ने एक स्वर में कहा था कि इमरान खान की सरकार ने पाकिस्तान को बदहाली के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। वह सत्ता संभालने के काबिल नहीं है, इसलिए उन्हें तत्काल गद्दी छोड़ देना चाहिए। वैसे तो सेना इस आंदोलन के वक्त  इमरान खान सरकार के बचाव में आ गई थी ,परंतु उसकी मुख्य वजह यह थी कि इस आंदोलन के निशाने पर सेना भी थी। इसलिए सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल आसिफ गफूर ने आजादी मार्च का नेतृत्व करने वाले विरोधी दल जमीयत उलेमा ए इस्लाम के मुखिया मौलाना फजलुर रहमान को यह चेतावनी दी थी कि सेना निष्पक्ष है और वह लोकतांत्रिक प्रावधानों के अनुसार संवैधानिक तरीके से चुनी गई सरकार के साथ मिलकर काम करती है।आसिफ गफूर की बातों में कितनी सच्चाई थी, यह बताने की जरूरत नहीं है। इमरान खान को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी केवल इसलिए मिल पाई क्योंकि वह सेना की कठपुतली बनने को राजी हो गए थे। दरअसल इमरान खान की छवि पाकिस्तान में जनता के द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री की नहीं, बल्कि सेना के द्वारा चयनित प्रधानमंत्री की है। सेना ने उनको हमेशा संरक्षण भी प्रदान किया है, परंतु अब सेना को ऐसा लगने लगा है कि इमरान खान से सत्ता संभल नहीं रही है। इसलिए वह उन्हें यह परोक्ष संदेश देने में जुट गई है कि वह खुद कुर्सी छोड़ दे। यदि इमरान खान सेना की मंशा पूरी करने में दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं और कुर्सी से चिपके रहते हैं तो पाकिस्तान में एक बार फिर सेना के द्वारा तख्तापलट की आशंकाओं से इंकार नहीं किया जा सकता।

 पाकिस्तान में धर्मगुरु से एक राजनीतिक पार्टी के मुखिया बने फजलुर रहमान कई बार कह चुके हैं कि इमरान सरकार अब चंद दिनों की मेहमान है।  इमरान खान ने जब से जमीयत उलेमा इस्लाम के सरकार विरोधी प्रदर्शनों को सर्कस कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई है, तब ही से फजलुर रहमान सरकार पर और तीखे हमले बोल रहे हैं। इमरान खान भले ही ये कहीं की फजलुर रहमान की अगुवाई में चल रहे धरना प्रदर्शनों का यह सिलसिला एक महीने भी नहीं चल पाएगा, परंतु पाकिस्तान के आंतरिक हालातों को देखते हुए या आशंकाए व्यक्त की जा रही है कि इमरान सरकार खुद ही शायद एक माह का समय पूरा ना कर पाए।  इमरान खान आजादी मार्च की तुलना खुद उनके द्वारा 2014 में पाकिस्तान के तात्कालिक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सरकार के विरुद्ध निकाले गए आंदोलन से किए जाने को भले ही गलत ठहरा रहे हो, परंतु जिस तरह आजादी मार्च को देश के सभी दलों का समर्थन मिल रहा है, उसे देखते हुए पाकिस्तान की गली कूचों में इन चर्चाओं को बल मिल रहा है कि अगर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की कुर्सी से इमरान खान की विदाई तय हो जाती है तो  उसमें इस आजादी मार्च का बड़ा योगदान माना जाएगा।

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