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9.10.16

मजीठिया : आखिर क्या चाहते हैं मालिकान

पहले तो न्यायपालिका आभार उसने लोकतंत्र के दरकते चौथे खंभे के अस्तित्व को बचाये रखने में लगातार उसका साथ दिया। मजीठिया वेजबोर्ड के अधिसूचित होने के बाद जबसे मामला अदालत की शरण में आया है तबसे लेकर अवमानना की लंबी लड़ाई तक कमोबेश हर सुनवाई में अदालती कार्यवाही अखबार कर्मियों के पक्ष में ही रही है। मालिकानों ने थोक में देश के नामी - गिरामी वकीलों को "ढाल" बनाया, तरकश के सारे तीर इस्तेमाल कर डाले लेकिन वे माननीय न्यायाधीशों कवच को नहीं भेद पाये।


एक नजर कोर्ट के आज 04-10-2016 के फैसलों पर। कोर्ट ने तमाम राज्यों से आये श्रमायुक्तों को साफ कह दिया कि वे क्लेम के अगेस्ट आरसी ( रिकवरी आदेश) जारी करें। अब यह तो हो नहीं सकता कि मालिकानों की तरफ से खड़े हुए दिग्गज वकीलों ने कोई तैयारी न कर रखी होगी। राज्यों की तरफ से लेबर कमिश्नर द्वारा लाये गये वकील भी (क्या तर्क लेकर आये थे एक माह बाद सूचना का अधिकार की मियादी अवधि) तमाम दलील के साथ आये होंगे लेकिन जज ने अखबारकर्मियों के हितों की ही रक्षा की।

अब सवाल यह उठता है कि अखबारों के मालिकान अपने कर्मचारियों को उनका वाजिब हक क्यों नहीं देना चाहते। आखिर वे चाहते क्या हैं ?वे चाहते हैं कि उनका कर्मचारी फटेहाल रहे, छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए सरकार का मुंह ताके, एक अदद सरकारी मकान के लिए सारे घोड़े खोल दे, सरकारी मान्यता के लिए रिरियाये, अच्छे स्कूल में बच्चे के ऐडमीशन के लिए मंत्रियों की चरणवंदना करे तो फीसमाफी के लिए स्कूल प्रबंधन की। ऐसा वह तभी करेगा जब वह "फटेहाल " रहेगा  । फटेहाल तब रहता है जब उसे काम का सही दाम नहीं मिलता। अपवाद को छोड़कर किसी को भी सम्मानजनक तनख्वाह मिले तो वह गलत काम क्यों करेगा।

अब एक नजर अखबार कर्मियों की माली हालत पर। कहने को यह दुनिया का सर्वाधिक बिक्री वाला अखबार है दैनिक जागरण। वास्तव में यह सर्वाधिक शोषण वाला अखबार है। मजीठिया की संस्तुतियों के अनुसार वेतन और अन्य सुविधाओं की बात जाने दें मिनिमम वेज भी नहीं मिलता यहां के कर्मचारियों को। आज से 20-25 साल पहले तक सरकारी नौकरी के टक्कर का माना जिने वाला शीर्ष उद्योगपति स्व.घनश्याम दास बिड़ला के अखबार हिंदुस्तान में आज एक भी भी कर्मचारी नही है सारे के सारे संविदा पर हैं और इनकी सप्लाई बाहर की एजेंसी करती है। शुरू में लुभाने के लिए पहले तीन साल का कांट्रैक्ट होता था, अब एक साल का होने लगा। यहां के शुरुआती दौर के ठेकाकर्मी गर्व से कहते थे कि, दो साल चौड़े होकर नौकरी करो, ठेके के अंतिम वर्ष संपादक की तेलाही फिर तीन साल का रिनिवल। अब एक-एक साल साल का ठेका होने लगा। हो सकता है कि निकट भविष्य में एक-एक माह/सप्ताह का ठेका होने लगे।

प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारतीय की कहानी थी " ठेले पर हिमालय"। ठेला से ठेका याद आ गया। भारत के अखबारों में ठेका प्रथा की शुरुआत अमर उजाला ने की या हिंदुस्तान ने यह तो नहीं मालुम। लेकिन आज के 21वीं सदी के दौर में अधिकतर अखबार "ठेका-ठेका" खेल रहे हैं। अपने को विश्व का सबसे बड़ा परिवार (भावनात्मक)कहलाने वाले  सहारा इंडिया के अखबार राष्ट्रीय सहारा की हालत तो और भी दयनीय है। यहां के कर्मचारी भी फटेहाल हैं। सूत्रों के अनुसार प्रबंधन ने श्रम विभाग/श्रमायुक्त के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में कहा कि हम अपने कर्मचारी को मजीठिया वेजबोर्ड से अधिक वेतन दे रहे हैं। सहारा में 24 साल पहले जूनियर सब एडिटर का वेतन एक प्रमोशन के बाद 26 हजार रुपये है। मजीठिया के अनुसार पांचवी श्रेणी के सब एडिटर की का वेतन 52 हजार के आसपास है। दैनिक जागरण देहरादून में कार्यरत उप संपादक गीता मिश्रा का वेतन 15 साल बाद 21 हजार हुआ मजीठिया के अनुसार 64-65 हजार होना चाहिए।

बात अन्य परिलाभ व श्रम कानून के पालन की। एलटीसी/एलटीए की चिड़िया का नाम होता है राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से छपने वाले कुछ अखबारों को छोड़कर शायद ही किसी अखबार का कर्मचारी जानता हो। सहारा का दावा है कि वह नियमों का पालन करता है। यहां भी एच आर और एकाउंट्स के लोगों को छोड़कर कोई अन्य एलटीसी का लाभ नहीं उठा पाता। राष्ट्रीय सहारा देहरादून ने अपने आठ-नौ साल के इतिहास में एकमत्र अनूप गैरोला को इस सुविधा का लाभ पहुचाया है। हो सकता है कि प्रबंधन यह कहे कि जब किसी और ने एप्लाई नहीं किया तो लाभ कैसे दें। जब एक-छुट्टी के लिए नाको चने चबाने पड़े तो एलटीसी तो स्वप्न हुई न। एक निगाह काम के घंटे पर। श्रम कानून के तहत काम के घंटे छह होने चाहिए। किसी भी अखबार में काम के घंटे छह है नहीं। संस्थान पद के अनुसार काम लेता है नही। यानि कि कोई भी समाचार पत्र-प्रतिष्ठान श्रम कानूनों का पालन क्यों नहीं करता। इसलिए कि हम करवा नहीं पाते जिन्हे (श्रम विभाग) को करवाना चाहिए वे कराते नहीं। कोई भी अकेले आपनी लड़ाई नहीं लड़ सकता हम भी नहीं लड़ सकते। मजीठिया वेजबोर्ड इसकी शुरुआत है। अभी नहीं तो कभी नहीं।

किसी ने कहा है....
खुदा के घर से कुछ गधे फरार हो गये।
कुछ पकड़े गये बाकी पत्रकार हो गये।।
हमे इसे गलत साबित करना है।।

अरुण श्रीवास्तव
देहरादून
arun.srivastava06@gmail.com

1 comment:

charansinghrajput said...

bahut achha likha hai arun ji aapne