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10.10.16

नवरात्रि साधना (स्वाध्याय) – Day 9

Discourse By Shraddhey Dr. Pranav Pandya Ji
(Chancellor of Dev Sanskriti Vishwavidyalay & Head of All World Gayatri Pariwar)
Date – 09/10/2016_

* नवरात्रि का अंतिम दिन श्लोक 4/42वां – ज्ञान की महिमा का शिखर । इस श्लोक में यह बताया गया है कि ज्ञान के शिखर में कैसा लगता है । जीवन की साड़ी दुविधाएं समाप्त हो जाती है । हमें अपने जीवन को किस प्रकार जीना चाहिए यह सिखाता है श्लोक ।
* गीत – लागी रे लगन हो मान एक तेरे नाम की... ।


नवरात्रि के 9 दिन तक हमने अध्याय 4 के  श्लोक 34वें से 42वाँ (9 श्लोक) के माध्यम से ज्ञान की महिमा का स्वाध्याय किया -
1. शिष्य कैसे बनते है ? गुरु का उपदेश सुनों । (4/34)
2. मोह नहीं करना चाहिए । (4/35)
3. ज्ञान की नौका में बैठकर पापसमुद्र से पार हो जाना यदि पापी से भी पापी हो तो भी तर जाओगे। (4/36)
4. कर्मों को समिधा की तरह भस्म कर दें । कर्मों का भस्मीकरण ज्ञान की अग्नि द्वारा । (4/37)
5. पवित्रता – ज्ञान की पवित्रता ही श्रेष्ठ है , उस ज्ञान को पाने की कोशिश करनी चाहिए । (4/38)
6. श्रद्धावान – श्रद्धावान को ही ज्ञान का लाभ मिलता है । (4/39)
7. विवेकहीन, श्रद्धाराहित और संशययुक्त विनाश को प्राप्त होते हैं उनके लिए न लोक है , न परलोक और न ही सुख । (4/40)
8. विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश जिसने कर लिया है, ऐसे वश में किये हुए अंतःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते। (4/41)
यह गीता का उपदेश योग्य को ही देना चाहिए भगवान् कृष्ण कहते हैं कि (18अ./67श्लोक) तुझे यह रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए , न भक्तिरहित से और न बिना सुनने की की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए ; तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है उससे तो कभी भी नहीं करना चाहिए ।
श्रीकृष्ण जी  (18अ./72वें श्लोक) में पूछते हैं कि क्या इस गीताशास्त्र को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया ? और हे धनञ्जय क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया ?
इस अंतिम श्लोक में मोह पूरी तरह से नष्ट होता है ।

--------- *आज का विषय - चतुर्थ अध्याय का 42वां श्लोक ।* ---------
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ (4/42)
भावार्थ : इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन ! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा । (4/42)

--------- *विषय वस्तु* ---------
* श्रीकृष्ण अर्जुन को योग के शिखर पर स्थित होने और युद्ध करने की प्रेरणा देते हैं  ।
*  वह कहते हैं कि हृदय में जो अज्ञानजनित संशय है उसे विवेकरूप तलवार द्वारा छेद कर कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।
* भगतसिंह ने अपने साथियों को Instruction दिए जनरल डायर, जिसने लाला लाजपतराय के ऊपर लाठी चलाई थी उस जनरल डायर को मारना है । उस जनरल को मारने के लिए अपने आदमी नियुक्त किये । भगत सिंह ने कहा कि जब तुमलोग जनरल डायर को पहचान लो कि यही आदमी है जिसे मारना है तो बस उसे देखकर तुम्हारे हाथ नहीं कांपने चाहिए । हाथ अगर काँप गए गुस्से के मारे तो तुम्हारा निशाना चूक जाएगा और यही हुआ जैसे ही जनरल आया और साथी ने पितौल निकाली चलाने के लिए बिलकुल आमने सामने जब आये तो हाथ काँप गया और निशाना चूक गया ये लोग भागे तेजी से पर दुसरे ने इस बीच निशाना बना लिया अंततः बदला ले लिया ।
* गुस्से में आने से हाथ कांपने लगती है । गुस्से में आने से सारा शरीर कांपने लगता है । गुस्से में आने से ज्वर आता है ।
* भगवान् कहते हैं विगतज्वर बिना किसी ज्वर के युद्ध करो, ज्वर याने संताप । बिना काँपे युद्ध करो ।
* जैसे लौ नहीं कांपती ऐसे ही हमारा चित्त भी होना चाहिए । चित्त चंचल नहीं होना चाहिए, कम्पायमान नहीं होना चाहिए ।
* भरतवंश में जन्म लेने की वजह से अर्जुन - भरतवंशी।
* हृदय में स्थित अज्ञान को पहचान और उसका खण्डन कर संशय को मिटाओ ।
* हमारे हृदय में भाँति – भाँति के संदेह हैं , संशय है कई तरह के शक चलते रहते है तो इन शकों को संशयों को विवेक रूपी तलवार से छेदन द्वारा निकालो ।
* दो शक्तियां है जिससे आदमी अनुभव करता है – विचार और भाव । अनुभूति के हमारे पास दो ही धाराएं है विचार और भाव । भाव अहसास करने की ताकत है । ज्ञान के द्वारा विचार के द्वारा सभी शक्तियों के तथ्यों का अनुभव प्राप्त होता है । बुद्धि से , तर्क से , विचार से, विश्लेषण से हम उसे अभिव्यक्त करते है , आभास होता है भाव द्वारा ।
* हमारे पास जीवन की चार अवस्थाएं है –
1. जागृत अवस्था – सर्दी-गर्मी का अहसाह होता है , जागृत अवस्था का अपना अहसास है । जागृत अवस्था में इन्द्रियाँ अनुभूति होती है ।
2. स्वप्न अवस्था – इसमें हम सो रहे होते हैं पर हमारा मन नहीं सोता है मन चंचल है नहीं सोता । इसमें मन द्वारा अहसाह होते हैं । मन चलायमान रहता है , शरीर सोता है पर मन जागता है ।
3. सुसुप्त अवस्था - शरीर व मन दोनों सोया होता है । इसमें भी एक अहसास होता है सोने में , गहरी नींद आती है । एक अहसाह है पर कुछ बताने की स्थिति नहीं कि कैसा अहसाह है?
4. तुरीय अवस्था – इस अवस्था में दो चीजें होती है – गहरे शयन का अहसास और आनंद के जागरण/गहरे जागरण का अहसाह । (जागरण जैसा होश और गहरी नींद)
*  चारों अवस्था की अनुभूतियाँ हम विचार और भाव द्वारा अभिव्यक्ति करते है अनुभूति करते है ।
* लेकिन इन अनुभूतियों में भ्रान्ति हो जाए , संशय हो जाए तो हमारी धारणाएं , हमारी अनुभूतियाँ जीवन का गणित गड़बड़ा देती हैं । एक व्यक्ति जिसके प्रति हमें विश्वास है अविश्वास आ जाये , व्यवहार भले ही सामान्य बना रहे पर एक पीड़ा का भाव मन में बना रहेगा, मन परेशान रहेगा । चित्त की अशुद्धियों की वजह से कुछ का कुछ दिखता है ।
* हृदय में स्थित जो अज्ञान है संशय है वह अनुभूतियों के द्वार को रोकी हुयी है, इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काटो ।
* कथा – एक कथा है आती है अटकाव और भटकाव की । ये कथा भगवान् ऋषभदेव से सम्बंधित है जिन्हें भारतीय संस्कृति में भी अवतार माना गया है और जैनियों के प्रथम तीर्थंकर भी माने गए हैं । बहुत बड़े राजा थे, शासक थे , महान ज्ञानी थे, तपस्वी थे , योगी थे, क्षत्रिय थे पर जैन धर्म का शुभारम्भ उन्होंने ही किया था । व्यक्तित्व उनका समग्र था । उनकी दो संतानें थी भरत और बाहुबली । भरत बड़े और बाहुबली छोटे । दो लडकियां थी सुंदरी (बड़ी बहन) और ब्राम्ही (छोटी बहन) । ये तीनों भरत से छोटे थे । ऋषभदेव ने दोनों राज्यों को अलग – अलग कर दिया भरत को एक राज्य दे दिया और बाहुबली को एक राज्य दे दिया और कहा कि तुम अपने-अपने शासन को बढ़िया ढंग से चलाओ । फिर पिता वन में चले गए तपस्या के लिए जब तक वो थे तब तक धर्मराज था बढियां चलाअभी भी कोई दिक्कत नहीं थी । दोनों बेटे बढ़िया ढंग से राज्य चला भी रहे थे, प्रजा का पालन कर रहे थे । दोनों शील संस्कार , सद्गुण व्यवहार सब अपने पिता से पाए थे । भरत अपने राज्य का, पूरे भारतवर्ष का और बाहुबली अपने छोटे हिस्से वाले राज्य का अच्छी तरह से पालन करने लगे । एकबार महाराज भरत ने संकल्प लिया चक्रवर्ती होने का अनुष्ठान करेंगे, अश्वमेध यज्ञ करेंगे । बड़ा यज्ञ करेंगे , अश्वमेध के अनुष्ठान से चक्रवर्ती होना था एक क्षत्रशासन सम्पूर्ण धरती पर दिग्विजय अभियान छेड़ा गया – देव संस्कृति दिग्विजय अभियान । बलशाली महाराज भरत ने एक से एक राजाओं से विजय प्राप्त कर लिया, कुछ ने समर्पण कर दिए तो कुछ युद्ध करके समर्पण किया। कई लोग जानते थे कि महाराजा भरत अच्छे शासक है उनके शासन में कोई दिक्कत नहीं होगी । ऋषभदेव की बड़ी प्रतिष्ठा थी कि ऋषभदेव के पुत्र है तो ज्ञानी हैं । महाराज भरत ने जब दिग्विजय पूर्ण कर ली तो उनका दिग्विजय चक्र नगर में प्रवेश करने वाला था और चक्र रुक गया, रथ भी रुक गया। राजा भरत ने सोचा हमने तो सारी विजय प्राप्त कर ली है ,कहाँ-क्या बाकी रह गया? क्या कमी रह गयी? हमारा दिग्विजय क्यों पूर्ण नहीं हो रहा? मंत्रियों ने कहा आपने सब जीत लिया पर बाहुबली का राज्य नहीं जीता । राजा बोले बाहुबली हमारा छोटा भाई है वह तो अपने आप राज्य देदेगा अपना सारा, उसमें विजय की क्या जरुरत है । मंत्रियों ने कहा नहीं  राज्य की कुछ धारणा है धर्म है । बिना बाहुबली को जीते आप चक्रवर्ती सम्राट नहीं कहलायेंगे । राजा - तो फिर क्या करें ? मंत्रियों ने कहा सन्देश पहुंचा दो कि अपने आप को समर्पित करदे या तो युद्ध लड़े । सन्देश भेजा गया कि बाहुबली तुम हमसे छोटे हो और छोटा भाई बड़े भाई को समर्पण कर दे तो कोई बुरी बात नहीं है । तुम्हारे वंश के लिए भी बहुत अच्छा है । तुम छोटे भाई हो और दोनों भाई मिलकर के पूरे विश्व में प्रशासन करेंगे । बाहुबली ने सन्देश पढ़ा महाराजा का और कहा कि हम आपका सम्मान करते हैं लेकिन एक राजा के रूप में हम समर्पण नहीं कर सकते । अगर आप बड़े भाई के रूप में आते हैं तो हम आपको सबकुछ दे देंगे , पूरा राज्य दे देंगे । पर चक्रवर्ती सम्राट के रूप में आते हैं तो हम लड़ेंगे हमें चुनौती स्वीकार होगी, आपसे हम युद्ध करेंगे और युद्ध किये बिना आप चक्रवर्ती नहीं बन सकते । एक विचित्र स्थिति आगई बड़े भाई और छोटे भाई में युद्ध की । महाराज भरत को तो किसी न किसी हालत में चक्रवर्ती बनना ही था । उन्होंने ने युद्ध की घोषणा कर दी और सेना सज गयी दोनों तरफ । उनकी बहनें सुंदरी और ब्राम्ही बहुत परेशान हो गयी उन्होंने दोनों भाइयों के बीच तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश की । बहनों ने भाइयों से बात की । बाहुबली बोले सम्राट के रूप में आते हैं तो हम भी युद्ध स्वीकार करेंगे । जबकि भाई के रूप में दोनों युद्ध नहीं चाहते थे । युद्ध होने लगा । तभी मंत्रियों ने कहा महाराज युद्ध तो दोनों भाईयों के बीच में है ,दो सेनाओं के बीच में नहीं व्यर्थ का रक्तपात क्यों करें? आप दोनों लड़ लीजिये, युद्ध करके फैसला कर लीजिये व्यर्थ सैनिकों की हत्या से क्या फायदा । दोनों बलवान थे , वीर थे , पराक्रमी थे । बाहुबली शारीरिक दृष्टि से भरत से ज्यादा बल शाली थे । युद्ध में सारी कलाओं का उपयोग दोनों ने किया । लास्ट में मल्ल युद्ध कुश्ती होने लगा इसी के द्वारा फैसला होना था कौन जीतेगा मल्ल युद्ध हुआ अंततः बाहुबली ने राजा भरत को उठा लिया बस अब क्या था उनको लगा कि उठा के पटक देते तो जीत जाते युद्ध समाप्त हो जाता जब उठाये तो अचानक उनके मन में एक विचार आया कि किस बात का युद्ध, किस बात का राज्य जिसके लिए दो भईयों में युद्ध हो गया । पटकने के बजाय उन्होंने भरत को उतारा, अखाड़े में खड़ा किया और समर्पण किया बोले आप ही चक्रवर्ती हो , हमें चक्रवर्ती नहीं बनना ऐसा कहकर भरत को प्रणाम किया , चरण स्पर्श किये बड़े भाई को  और बोले आप बड़े आनंद से राज्य का उपभोग कीजिये हम वन में तपस्या के लिए जारहे हैं । हम जा रहे हैं अपना राज्य समर्पित करके । त्याग के माध्यम से उन्होंने युद्ध को टाल दिया । जिस राज्य की वजह से हम दोनों ने अपने पिता की शिक्षा भुला दी हम उस राज्य का त्याग करते हैं । भरत ने बहुत समझाया कि नहीं ऐसा नहीं है हम तुम्हारा राज्य हड़पना नहीं चाहते थे हम तो केवल चक्रवर्ती शासन की मर्यादा स्थापित कर रहे थे । बाहुबली नहीं माने नहीं अब हम राज्य नहीं करेंगे आप ही राज्य करिए । बाहुबली ने कहा हमने आपको युद्ध की जितनी नैतिकता हैं उस सीमा तक ले जा करके हमने अपने आप को समर्पित कर दिया , हमने आपको मारा नहीं आपको प्रणाम कर माफ़ी मांग ली।  वन में चले गए बाहुबली और बहुत कठिन तप किया, व्रतों का पालन किया । राजा के रूप में भरत की ख्याति फ़ैल गयी राजा चक्रवर्ती हो गए । महाराज भरत के नाम पर ही इस देश को भारत कहा जाता है । वर्षों तक बाहुबली तप करते रहे और भरत शासन करते रहे । एक समय ऐसा आगया जब भरत सोचने लगे बहुत हो गया पिता जी के मर्यादा के अनुसार हमें भी संन्यास ले लेना चाहिए । भरत ने भी अपने वंशजों को बुलाया, उत्तराधिकारियों को बुलाया ,बेटों को बुलाया, नाति-पोतों को बुलाया और बोले हम इनको राज्य दे रहे हैं और तुमलोग इनकी मिलकर मदद करना । भरत ने राज्य दे दिया और संन्यास ले लिया और तपस्या करने चले गए । बाहुबली और भरत की तपस्या चलती रही । पर भरत की तपस्या की चर्चा नहीं थी भरत के शासन की चर्चा थी और बाहुबली के तपस्या की चर्चा थी । अपार ख्याति थी लेकिन इसके बाद भी कैवल्य ज्ञान नहीं हुआ बाहुबली को, मोक्ष का ज्ञान नहीं हुआ । बाहुबली को शुरू का ज्ञान हुआ निर्विकल्प ज्ञान नहीं हुआ , निर्विकल्प समाधि नहीं हुआ । अब बार –बार उनके मन में खेद होता था कि सब कुछ छोड़ दिया फिर भी परमात्मा का अनुभव नहीं । क्या हुआ ? कहाँ कमी रह गयी ये विचार उनके मन में आते रहे जबकि हम अपना राज्य भी छोड़ आये । राजा भरत के मन में पश्चाताप का भाव था, भरत राज्य करते रहे , प्रजा का पालन करते रहे लेकिन उनके मन में था कि कुछ अच्छा नहीं किया । छोटे भाई का राज्य ले लिया , चक्रवर्ती बने ,बड़ी प्रतिष्ठा हुयी , लोगों के बीच बड़ा सम्मान हुआ लेकिन कहीं कोई ग्लानि का भाव था उनके मन में । कहीं कोई पछतावा था राज्य छोड़ा तो अच्छा लगा । उन्हें लगा ये अच्छा किया राज्य छोड़ दिया तपस्या करने का मौका मिला । अब उस राज्य से मुक्ति मिल गयी हमारे संतानों से बड़े अच्छे  से सम्हाल लिया अब राज्य । भारत पिता के पास गए, दीक्षा लिया और योगाभ्यास में लीन हो गए । अब महाराज भरत को तपस्या के बाद, कल्मस-कषाय क्षीण होने के बाद धीरे-धीरे कैवल्य ज्ञान हुआ । भरत को कैवल्य ज्ञान हो गया । कितने सौभाग्यशाली रहे कि राज्य भी मिला , चक्रवर्ती भी बने और कैवल्य ज्ञान भी पहले मिल गया । और बाहुबली को कैवल्य ज्ञान भी नहीं मिल पाया , कारण हैं उसके पीछे । भरत समाधि के आनंद में डूब गए लेकिन बाहुबली को समाधी का सुख नहीं मिला । बाहुबली तपस्या तो करते रहे , शक्तियां तो थीं लेकिन उनको जब प्रसन्नता की खबर मिली की महाराज भरत को तो कैवल्य ज्ञान मिल गया , समाधि का अनुभव हो गया । बहन ने आके बताया उनको ।  अब भरत के पास पहुच गए तो भरत ने कहा कि जीवन में सबकुछ प्राप्त किया,चक्रवर्ती  सम्राट बन गए पर जीवन में एक पछतावा रहा कि हमने बाहुबली के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, भले ही उसने अपने मन से राज्य दिया पर  हमारे ही कारण हुआ जो हुआ । पिता जी के आशीर्वाद से  ज्ञान संभव हो पाया । बाहुबली के पास बात पहुचीं बाहुबली बोले बहन तपस्या तो बहुत की हमने भी, बहुत शक्तियां आयीं , सिद्धियाँ भी आयीं, पर सिद्धियों और विभूतियों के बीच में हमें कैवल्य ज्ञान नहीं मिला ।समाधी का सुख नहीं मिल पाया । तुम जाओ पिता जी से पूछो कि हमारा मन कहाँ अटक गया सही निदान वही करेंगे । उनसे कहना हमारे भी उद्धार का उपाय बताएं कि हम कहाँ अटक गए । बहनें पिता के पास गयी बोली पिता जी आप तो तीर्थंकर हैं आप तो जानते है दोनों भाइयों के बारे में , पिता ऋषभदेव जी हँसे, मुस्कुराए और बोले – आनंद आगया सुनकर बोले भरत चक्रवर्ती बना , सिंहासन पर बैठा और सिंहासन से उतर गया । बाहुबली अभी भी सिंहासन पर बैठा हुआ है । जिस दिन सिंहासन से नीचे उतर आएगा उस दिन वो निर्विकल्प समाधी को प्राप्त करेगा । सिंहासन कौन सा “अहंकार से साम्राज्य का सिंहासन” त्याग का अहंकार कि मैंने राज्य छोड़ दिया । त्याग का अहंकार भयंकर होता है ये आदमी को खा जाता है । जिस दिन इस अहंकार के सिंहासन से उतर जाएगा उस दिन उसको ज्ञान हो जाएगा । अभी तो उसके जीवन में अहंकार का राज्य है जब ये मिटेगा तब आत्मज्ञान प्राप्त होगा, आत्म्राज्य प्राप्त होगा । जब अहंकार के सिंहासन से उतरेगा तो उसका संशय क्षीण होगा । संशय इंसान को नष्ट कर देता है । अभी तो संशय में जी रहा है बाहुबली । अहंकार के सिंहासन पर बैठकर तपस्या कर रहा है । बहन बाहुबली के पास पहुंची बोली पिता जी ने कहा है बड़े भाई भरत तो सिंहासन से उतर गए आप तो अभी भी सिंहासन पर बैठे हुए हैं । पिता जी सही कहते हैं हम तो वास्तव में नहीं उतरे हैं हम तो बार – बार यही सोचते हैं कि चक्रवर्ती राज्य पर तो मेरा अधिकार था, महाराज तो मैं बनता । ये बात बार – बार मेरे मन में आती थी, मैं तो एक बार में भरत को पराजित कर देता पर मैंने राज्य त्याग दिया लेकिन त्यागने का अहंकार मन में बना रहा  । बाहुबली ने स्वीकार किया । स्वीकार करना भी बहुत कठिन है ।  बाहुबली के जीवन में गहन चिंतन के क्षण आये और तब जाकर ज्ञान के तलवार से फिर उस संशय को बाहुबली ने काटा और अज्ञान के भ्रम से निकलते ही कैवल्य में स्थित हो गए फिर तुरंत उनकी समाधी लग गयी ।
* केवल अहंकार भाव के जाने की जरुरत थी । यदि रोग मन में है तो निदान ही समाधान है । निदान हो तो आसानी से समाधान हो जाता है । पिता ने जो निदान बताया उसे बाहुबली ने किया और ज्ञान को प्राप्त हुए ।
* परमात्मा को तत्व से जान लेने पर हृदय की सारे गांठें खुल जाती है । परेशानी वह गाँठ है जो हृदय में है । सारे संशय कट जाते है समस्त शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते है ।
* गीता के 9वें अध्याय के 28वें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि – समस्त कर्म यदि मुझमें अर्पण होते हैं तो कर्मबंधन से मुक्ति मिल जायेगी और मुक्त होकर  तू मुझको ही प्राप्त होगा ।
* हम कहीं न कहीं अटके हुए हैं हम अनजाने में विचित्र सा बैर , विचित्र सी ग्रंथी हम पाले हुए हैं । जिसके बारे में हमें कुछ मालुम नहीं है ।
* नैतिकता कुछ ऐसी है कि आप जो दिखते हैं उसके आधार पर श्रेष्ठ या निकृष्ठ माना जाता है लेकिन आध्यात्मिकता ऐसी नहीं है । आध्यात्मिकता दिखने में नकली हो सकता है पर वास्तविक आचरण में उतरने पर देखी जा सकती है । आप जो दिखते हैं उसे समाज स्वीकार करता है लेकिन यथार्थ में आप अन्दर से जो होते हैं उसे आपकी आत्मा स्वीकार करती है ।
* जड़ चेतन के माध्यम से ग्रंथि पड़ जाती है । अपने हृदय में बैठो ध्यान करो और गांठों को दूर करो , गुरु संरक्षण करेंगे आपका ।
* आपके पास जो है उसी में संतुष्ट रहो । अपने आपको जानो । आसक्ति का कोई भी रूप गलत है ।
* भक्ति की आसक्ति भी त्यागो । भक्ति की भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए । आसक्ति को त्यागना पड़ेगा ।
* राम कृष्ण परम हंस जी महाकाली के परम भक्त थे । उनको खाना खिलाती थी उनके आगे पीछे घुमती थी । एक विचित्र सा अनुभव था पर कहीं न कहीं एक मोह भी था काली के प्रति कि काली हमारी हैं । जब वो ज्ञान की साधना कर रहे थे तो उनके गुरु तोतापुरी उन्होंने कहा ध्यान लगाओ निर्विचार अवस्था में पहुंचना है ।  शुद्ध, सात्विक, निर्मल मन परमहंस देव का ध्यान लग गया । अब काली की छवि सामने खड़े हो गयी बोले बार – बार काली सामने आजाती है । गुरु बोले काली को मत आने दो बीच में , उसके बीच से आर –पार हो जाओ । परमहंस बोले जगतमाता सामने मुस्कुराकर खड़ी हो जाती है गुरु बोले मन को और ऊपर उठाओ । 6 चक्र पार कर चुके हो 7वें को पार करो सहस्त्रार को पहुँचो और परम ज्ञान को महासमाधि को प्राप्त करो । गुरु बोले काली माता को प्रणाम करो अब आगे चलो परमहंस बोले नहीं आगे जाते नहीं बन रहा । तोतापुरी महाराज ने कांच का टुकड़ा उठाया और आज्ञाचक्र के स्थान पर चुभोया और बोले काली दिख रही है परमहंस बोले हाँ दिख रही है गुरु बोले बस छेद दो उनको  देखो मैं भी चुभो रहा हूँ चुभने के आभास में sensation में काली को उन्होंने छेद दिया अर्थात काली को पार कर लिया  और तुरंत बैठ गए, परमहंस की स्थिति में  उन्होंने कहा अब दर्शन हुए निर्विकार परमात्मा की उन्होंने कहा अपने हमारी भक्ति को नष्ट कर दिया गुरु बोले भक्ति को नष्ट नहीं किया, भक्ति काली के प्रति यथावत रहेगी । पर भक्ति जब आसक्ति बन जाय तो दिक्कत का कारण बनती है । भक्ति की आसक्ति को उन्होंने त्यागा और अखंड परमात्मा , काली का विराट रूप दिखने लगा उनको । भक्ति के द्वार को लांघ गए । ज्ञान की तलवार से सज्ञान का खंड कर दिया ।
* ज्ञान वह है जो अज्ञान को दूर कर दे , उसका निवारण कर दे । हमारे जीवन की जितनी भी बाधाएं है वो हम स्वयं हैं । बस अगर हम खुद बाधा को ख़तम कर दे तो अज्ञान समाप्त हो जाएगा ।
* अहंकार महाभ्रम है । विनम्रता से भगवान् मिलते हैं अहंकार से नहीं ।
* अज्ञान कभी – कभी आसक्ति का रूप ले लेता है तो कभी अहंकार का । राग और द्वेष दो ही संशय है ।
* संशयों को निकाल दो , वियोग से योग की और चलो , अहंकार के परदे को मिटा दो जीव व परमात्मा के बीच की । हृदय की गांठें खोल दो । अतिवाद मत करो सम्यक रहो ।
* आसक्ति और बैर इनकी वजह से पुनर्जन्म होता है । पञ्चक्लेशों में अंतिम शब्द है अभिनिवेश । अभिनिवेश का मतलब है पकड़ लेना , जकड़ लेना । कभी प्रेम के भ्रम ने तो कभी संशयों ने जकड लिया है ।
* ज्ञानी का न कोई अतीत होता है और न भविष्य । भगवन कहते हैं (14अ. /22 श्लोक गीता) – परिस्थिति कैसी भी हो चाहे सतोगुण का , रजोगुण का या तमोगुण का ज्ञानी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता है । सैम रहता है ।
* परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होना है जो कुछ मिला है उसी को श्रेष्ठ मानना है ।
* योग में आरूढ़ हो जाओ । ज्ञान अगर है तो इसी क्षण होगा अभी होगा यहीं होगा । अपने संशयों को समाप्त तो कर लो पहले । योग के शिखर पर बैठो । जब आत्मा से आत्मा में तुष्ट हो जाता है व्यक्ति तो सबकुछ हो जाता है ।

* हमारे प्रत्येक कर्म प्रभु की अर्चना बन जाय । कर्मों से अर्चना करिए, ज्ञान में स्थित हो जाइए और संशयों से मुक्त हो जाइए ।
* अज्ञान ही विषाद है , अवसाद है , पीड़ा है । अज्ञान ही पतन है । सारे दोष दुर्गुण अज्ञान है । ज्ञान में ही आनंद है और अज्ञान में ही अवसाद ।  ज्ञान ही परमानद है ।

--------- ॐ शांति ---------


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