भोपाल। पिछले कुछ समय में एक खास विचारधारा के लोगों ने सुनियोजित ढंग से राष्ट्र और राष्ट्रीयता पर प्रश्न खड़े करने का प्रयास किया है। उन्होंने राष्ट्रीय विचार को उपेक्षित ही नहीं किया, बल्कि उसका उपहास तक उड़ाया है। जबकि इस खेत में खड़े किसान, कारखाने में काम कर रहे मजदूर, साहित्य सृजन में रत विचारक, कलाकार और यहाँ तक कि सामान्य नागरिकों के नित्य जीवन में राष्ट्रीय भाव प्रकट होता है। आजादी के 70 वर्षों में इस देश को मानसिक औपनिवेशिकता ने जकड़कर रखा गया है। अब समय आ गया है कि वह टूटना चाहिए। लोकमंथन इस मानसिक गुलामी को हटाने का माध्यम बनेगा। यह विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने व्यक्त किए। विश्व संवाद केन्द्र, भोपाल की ओर से 'लोक मंथन : वैचारिक अवधारणा और कार्ययोजना' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में श्री होसबोले मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित थे। लोक मंथन एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है, जिसका आयोजन 12, 13 और 14 नवम्बर को भोपाल में होना है। इस कार्यक्रम में देशभर के विचारक और कर्मशील आएंगे।
श्री होसबोले ने कहा कि पश्चिम की अवधारणा के अनुरूप राष्ट्र को देखने पर दिक्कत है। राष्ट्र के संबंध में भारत की अवधारणा भौगोलिक नहीं है। भारत सदैव से सांस्कृतिक राष्ट्र रहा है। शताब्दियों से भारतीय संस्कृति ही हम करोड़ों भारतीयों को एक सूत्र और एक राष्ट्र में बाँधे हुए है। संस्कृति हमेशा जोडऩे का काम करती है, भारतीय संस्कृति में तो यह गुण अपार और अथाह है। भारत में राष्ट्र मनुष्य को कर्म की प्रेरणा देने वाली इकाई है। यह जनसमुदाय को एकात्म करने वाली इकाई है। उन्होंने कहा कि अब तक जानबूझ कर राष्ट्र और राष्ट्रीयता पर होने वाली बहसों को अकादमियों तक सीमित करने रखा गया था। लेकिन, यह पहली बार है जब राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्र सबसे पहले पर चर्चा भारत के लोक के बीच होगी। उन्होंने बताया कि आज देश में पहचान और अस्मिता के अनेक प्रश्र खड़े हो रहे हैं। यह प्रश्न जानबूझकर खड़े किए जा रहे हैं। यह प्रश्न भाषा, जाति, समुदाय और क्षेत्र से संबंधित हैं। इन प्रश्नों को राष्ट्र की अवधारणा के विरुद्ध प्रस्तुत किया जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। यह मात्र अपनी पहचान और अस्मिता से जुड़े प्रश्न हैं। 'राष्ट्र सर्वोपरि' का विचार सामने रखकर हमें इन प्रश्नों को देखना चाहिए।
भारत को मिलेगी नई दृष्टि : इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे. नंदकुमार ने कहा कि लोकमंथन, 'राष्ट्र सर्वोपरि' की सघन भावना से ओतप्रोत विचारकों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए संवाद का मंच है, जिसमें देश के वर्तमान मुद्दों पर विचार-विमर्श और मनन-चिन्तन किया जाएगा। लोक मंथन के दो हिस्से रहेंगे- मंच और रंगमंच। मंच से विभिन्न विषयों पर विचारक विमर्श करेंगे। उसी दौरान रंगमंच के जरिए कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर राष्ट्रीय भावना को प्रकट करेंगे। लोकमंथन के माध्यम से यह विश्वास सहज ही बनता है कि इसमें शामिल हो रहे बुद्धिजीवियों, चिन्तकों, मनीषियों, अध्येताओं के परस्पर विचार-विमर्श से भारत के साथ विश्व को नई दृष्टि मिलेगी। यह तीन दिवसीय विमर्श गहरी वैचारिकता की वजह से हमारे राष्ट्र के उन्नयन में सहायक सिद्ध होगा।
आधुनिकता नहीं है पश्चिमीकरण : कार्यक्रम के अध्यक्ष कपिल तिवारी ने कहा कि हमारी प्रबुद्धता अब तक बड़ी चालाकी से भारत के राष्ट्रबोध पर विमर्श करने से बचती रही है। पिछले 70 वर्षों में कभी इस पर विचार नहीं किया गया कि लोक क्या है? दरअसल, अपने को विश्व मानव साबित करने के प्रयास में हमारी बौद्धिकता ने भारत के लोक पर जानबूझकर विचार नहीं किया। इस बौद्धिकता ने पश्चिमीकरण को ही आधुनिकता कहकर भारत पर थोप दिया। यदि हमने अपने लोक पर विमर्श किया होता तब भारत के लिए आधुनिकता का जन्म उसकी परंपरा के गर्भ से ही हो जाता। उन्होंने कहा कि इससे अधिक क्या दुर्भाग्य होगा कि बुद्धिजीवियों ने अंग्रेजी के 'फोक' को ही 'लोक' बता दिया। उन्होंने भारत के आरण्यक और नागर समाज पर प्रकाश डाला। इसके साथ ही श्री तिवारी ने बताया कि ७० वर्षों में हमने भारत को बार-बार भारत को राज्य केन्द्रित बनाया है। राज्य केन्द्रित समाज परतंत्र होता है। सामुदायिकता से विहीन समाज झुंड तो हो सकता है लेकिन समाज नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि 11वीं शताब्दी से धार्मिक उपनिवेशवाद शुरू हुआ। इस रिलीजियस मिलिटेंस ने कहा कि या तो हमारा धर्म स्वीकार करो, वरना हम तुम्हें मिटा देंगे। जबकि भारत की संस्कृति ने कभी किसी पर आक्रमण नहीं किया।
सामूहिकता की भावना को बढ़ाएगा लोकमंथन : विशिष्ट अतिथि एवं संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश के प्रमुख सचिव मनोज श्रीवास्तव ने बताया कि प्रज्ञा प्रवाह, भारत भवन और संस्कृति विभाग लोक मंथन का आयोजन कर रहा है। यह पहली बार होगा जब भारत भवन वास्तव में लोक मंथन के माध्यम से भारत की भावना की बात करेगा। इस तीन दिन के आयोजन में राष्ट्रीयता, औपनिवेशिक मानसिकता और कला एवं संस्कृति पर विमर्श किया जाएगा। श्री श्रीवास्तव ने बताया कि अब तक इस तरह के कार्यक्रम अलग-अलग खेमेबाजी में बँटे रहें हैं। इस प्रकार के बौद्धिक आयोजनों ने 'अदरनेस' की भावना को बढ़ाया है। लेकिन, लोक मंथन 'अदरनेस' की भावना को 'टूगेदरनेस' में बदलने का प्रयास है। इस आयोजन के मूल में सामुहिकता है। सब एक साथ आकर राष्ट्र के संबंध में विचार करेंगे। कार्यक्रम के अंत में आभार प्रदर्शन प्रज्ञा प्रवाह के मध्यभारत प्रांत के सह संयोजक दीपक शर्मा ने किया।
8.10.16
मानसिक गुलामी को हटाएगा लोकमंथन : दत्तात्रेय होसबोले
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