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15.10.16

उप्र चुनाव : ओपीनियन पोल से भाजपा की खुशफहमी जरूर बढ़ी होगी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दशहरे के मौके पर लखनऊ के ऐशबाग रामलीला कमेटी मंच से जय-जय श्री राम का उद्घोष क्या किया, समाजवादी पार्टी में घट रहा असमाजवाद बजाए थमने के उफान लेने लगा। यह कयास भी लगाए जाने लगे कि कहीं भाजपा ने चुनावी एजेण्डा तो नहीं तय कर दिया? भाजपा उत्साहित है तो दूसरी पार्टियों में अब भी अनिश्चितता का माहौल दिख रहा है। अब तो सपा सुप्रीमों ने भी साफ-साफ कह दिया कि उप्र में मुख्यमंत्री सरकार बनने के बाद ही तय होगा। यानी अहम का पटाक्षेप होने के बजाए अभी केवल ‘तू बड़ा कि मैं’ का ट्रेलर ही सामने आया है। परिवार के विवाद में उलझी सपा और आयाराम-गयाराम के नफा-नुकसान को आंक रही बसपा के बीच, उम्मीदों का अंकुर पाल, नए सिरे से जोश के साथ आगे बढ़ रही कांग्रेस को एक झटके में ही, खबरिया चैनलों के ओपीनियन पोल ने सकते में डाल दिया।


यूं तो राजनीति के जानकार, उप्र के मतदाताओं की फितरत के मुताबिक, इस बार बहनजी की बढ़त देख रहे थे लेकिन दशहरे से, एकाएक बदले कई राजनीतिक घटनाक्रमों से भाजपा बेहद उत्साहित है। होना भी चाहिए परन्तु यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महज एक धार्मिक आयोजन में राम नाम उप्र में भाजपा की वैतरणी को पार लगाने के लिए काफी होगा?  चूंकि प्रधानमंत्री ने बहुत ही सधे हुए तरीके से, मंजे राजनीतिज्ञ जैसा तीर अपने तरकश से चलाया जो कि सटीक जा बैठा। परिणामतः बांकी विरोधी दलों की स्थिति ‘उगलत लीलत पीर घनेरी’ जैसी हो गई है। लेकिन इस बीच विश्व हिन्दू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया का ट्वीट ”नारा लगा दिया है तो संसद में कानून पारित कर तुरंत भव्य राम मंदिर भी अयोध्या में बना ही दें।” ने नई सरगर्मी जरूर पैदा कर दी है।

गौरतलब है कि 1990 के दशक में जय श्री राम का नारा इतना लोकप्रिय और प्रभावी हुआ कि आज भाजपा केन्द्र तक जा पहुंची। 27 बरस बाद, प्रधानमंत्री द्वारा फिर से दोहराना जरूर कोई दूरगामी संकेत है। किस हद तक भविष्य में इसका सहारा लिया जाएगा, फिलाहाल यह केवल कयासों का अंक गणित है। यकीनन भाजपा, प्रधानमंत्री के जय श्रीराम उद्घोष का फायदा उठाएगी। लेकिन अभी चुनाव बहुत दूर हैं तब तक गंगा में काफी पानी बह चुका होगा। एक बात और तय है कि फिलाहाल सत्तासीन, समाजवादी कुनबे में मचा असमाजवाद, पार्टी के लिए ही हितकर नहीं रहने वाला है। इसे सपा सुप्रीमों भी बखूबी समझ रहे हैं और उप्र की जनता भी। ऐसे में आगे के चुनावी समीकरण क्या गुल खिलाएंगे, इस पर साफ-साफ कहना जल्दबाजी होगी। हाँ ओपीनियन पोल को लेकर भाजपा की खुशफहमीं जरूर बढ़ी होगी, बढ़नी भी चाहिए। लेकिन पुराने कई सर्वेक्षणों का हश्र देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इन पर ही भरोसा करना ठीक नहीं।

बीजेपी मान रही है कि उसको पूर्वी उत्तर प्रदेश में जबरदस्त बढ़त दिख रही है क्योंकि यहां पर 167 सीटें हैं जिनमें उसको 33 फीसदी वोट मिलने की उम्मीद है। वहीं यह भी तो सोचना होगा कि मध्यक्षेत्र से 81 विधानसभा सीटों में सपा की स्थिति को कैसे कमतर आंका जा सकता है। यहां पर महज 1 प्रतिशत वोटों के अंतर से सपा और बसपा में घमासान माना जा रहा है। सपा को 29 और बसपा को 28 प्रतिशत वोट मिलने की संभावना दिख रही है। इसी तरह पश्चिमी उप्र में भी भाजपा की बढ़त निश्चित दिख रही है। इसके पीछे कई फैक्टर काम करते नजर आ रहे हैं एक तो कैराना से कथित रूप से हिन्दुओं का पलायन।

दूसरा, मुजफ्फरनगर की सांप्रदायिक हिंसा और और बुलंदशहर में बलात्कार की घटना ने वहां के जनमानस को अभी तक मर्माहत कर रखा है। लेकिन बुन्देलखण्ड के विकराल सूखे की त्रासदी भी चुनावी भूमिका में होगी। गौरतलब है कि केन्द्र ने यहां पर ट्रेन के जरिए टैंकरों से पानी भेजकर मरहम लगाकर, मर्म समझने का संदेश दिया। हाँ कांग्रेस जरूर अपना वजूद को तलाशती नजर आ रही है। यह सच है कि कांग्रेस के लिए उप्र अभी दूर की कौड़ी है। हो सकता है कि इस कारण कांग्रेस भी अपनी कोई नई चुनावी रणनीति मे लगी हो। लेकिन कांग्रेस के खेवनहार टीम प्रशान्त किशोर से ही कई कांग्रेसी नाराज दिख रहे हैं। ये बात सार्वजनिक तौर भी सामने आ चुकी है। राहुल का लखनऊ में कार्यकर्ता सम्मेलन तो सोनिया गांधी का वाराणसी का रोड शो और फिर राहुल की किसान यात्रा और खाट पर चर्चा की सफलता से उत्साहित कांग्रेसी मानते हैं कि इससे पार्टी में नई जान आई है, लेकिन फिर भी टीम प्रशान्त को पचा नहीं पा रहे हैं। ऐसे में यह तो तय है कि कांग्रेस के अन्दर भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं दिख रहा। जाहिर है इसका भी फायदा भाजपा जरूर लेगी।

कहीं भाजपा के बढ़ते प्रभाव से उप्र में चुनावों से पहले, धर्मनिरपेक्षता के नाम और दलित-अल्पसंख्यकों को लुभाने सत्ता तक पहुंचने नए गठबंधन की कोशिशें न शुरू हो जाएं? बहरहाल उप्र में चुनाव की सरगर्मी जरूर है पर चुनाव अभी दूर हैं। कहते हैं राजनीति में कुछ भी अछूत नहीं होता। क्या पता, नित नए बन रहे समीकरणों और उभर रही रणनीतियों के बीच कब कौन सी गोलबंदी हो जाए?

-ऋतुपर्ण दवे
rituparndave@gmail.com

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