बच्चों के साथ तारे जमीन पर देखने पहुंचा। आयुष भाई थोड़े छोटे हैं इसलिए उनका टिकट नहीं लिया। डेढ़ डेढ़ सौ के दो टिकिट, अपने और सिम्मी दीदी के लिए। आयुष को गोद में बिठाया। बिलकुल आगे की रो में सीट मिली। सिलेमा देखने गए थे तो हर कीमत पर देखना था इसलिए आगे ही बैठ लिए, ऊंट की तरह गर्दन उठाकर।
आयुष और सिम्मी को तारे जमीन की पूरी स्टोरी पता थी क्योंकि उन्होंने स्कूल में अपने साथियों से स्टोरी सुन रखी थी। वे हर सीन के बाद बताते कि अब ये होने वाला है। पड़ोस की सीट पर बैठे युवक इन्हें देखकर मुस्कराते। मैंने दोनों को चुप कराया, भई, मुझे स्टोरी पहले से जान लेने के बाद फिल्म देखने में मजा नहीं आता, इसलिए प्लीज....। दोनों मान गए क्योंकि वे चाहते थे कि पापा को मजा आए। दरअसल मैं पहले ही बोल आया था कि बच्चों की फिलिम मैं नहीं देखता, सो, उनकी जिद पर देखने गया था।
कमाल की फिल्म बनाई है आमिर खान ने। उन्हें ढेरों बधाई। कारपोरेट स्लेव के लिए अच्छी नसीहत है। अपने आफिस, अपनी ड्यूटी, अपनी तरक्की और अपने काम में इतने लीन कि उनके पास अपने परिजनों को सिवाय डांटने-फटकारने के, किसी अन्य चीज के लिए वक्त नहीं होता। जैसे आफिस में बासगिरी वैसे घर में।
वो सीन सबसे जानदार लगा जिसमें आखिर खान रूपी टीचर ने बताया कि दुनिया के ढेर सारे महान लोग बचपन में एक नंबर के गदहे थे। उसमें अभिषेक बच्चन भी हैं। उनकी भी पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं हुआ करती थी। इसी तरह आइंस्टीन को लिखने पढ़ने से ज्यादा सोचने और प्रयोग करने में मजा आता था।
यह फिल्म दरअसल भड़ास की अवधारणा से भी काफी मेल खाती है। मतलब, खुल के जियो। सहज रहो और रहने दो। जो मन आये करो। सपने देखना न छोड़ो। कुंठित होने से बचो। जो कुछ दिल दिमाग में है उसे सामने आने दो। सौ फूलों को खिलने दो। प्रयोग करते रहो। आंख पर पट्टी बांधकर कोल्हू के बैल की तरह गोल गोल घूमना बंद करो। दुनिया बहुत बड़ी है और इसमें आपके लिए अपार संभवानाएं हैं। बस, देखना तो सीखो।
हकीकत में क्या है? पैसे के लिए एक से बढ़कर एक विद्वान मुंह दबाये, आत्मा सुलाये, आंख छुपाये.....नौकरी कर रहे हैं। जी खा रहे हैं। उन्हें कौन समझाए कि भइया जितने पैसों के लिए अपने अच्छे खासे प्रतिभाशाली और हुनरमंद जीवन को लाला के यहां सड़ा रहे हो उतना तो तुम अपने हुनर के जरिए कहीं भी कमा सकते हो। खासकर इस मार्केट इकानामी के दौर में। लेकिन उन्हें समझाए कौन। गुलाम मानसिकता और दास मानसिकता वालों को आजाद मानसिकता और मालिक मानसिकता में बदलना बड़ा कठिन होता है।
पूरी फिल्म देखकर जब हम लोग बाहर निकले तो हर बार की तरह इस बार भी पूछ बैठा-- बच्चों, इस फिलिम से क्या शिक्षा मिलती है?
आयुष बोल पड़े- पापा, इस फिलिम से शिक्षा मिलती है कि पढ़ाई बंद, पेंटिंग शुरू।
उसके इतना कहते ही सिम्मी दीदी हंस पड़ीं। मैं हक्का बक्का।
मैंने तुरत पलटवार किया- तो तैयार रहो बोर्डिंग में जाने के लिए।
आयुष और सिम्मी बोले- नहीं, पेंटिंग भी होगी और पढ़ाई भी।
मैंने कहा- हां, अब लाइन पे आये।
फिल्म देखकर दो बार मैं खुद रोया। तीन बार सिम्मी दीदी रोयीं। आयुष से आखिर में पूछा कि तुम कितनी बार रोये, तो उसने कहा-- आंसू मेरे दिल में रहते हैं, आंख में नहीं आते। और वह मुझसे पूछ बैठा- पापा, तुम तो कहते हो आदमी लोग नहीं रोते, औरतें रोती हैं, तो तुम क्यों रोये? मैंने झूठमूठ बोल दिया, खुद को कमजोर न दिखाने के लिए-- दरअसल सिलेमा में जो परेशान हो रहा था वो लड़का था, उस लड़के लिए रोना पड़ा। आयुष ने सहमति में सिर हिला दिया।
कुल कुक्कुर कसिये चल जइहन तो गंउवा के हंड़िया के चाटी...
भोजपुरी में एक कहावत है, कुल कुक्कुर कसिये चल जइहन तो गंउवा के हंड़िया के चाटी...। मतलब सभी कुत्ते काशी ही चले जाएंगे तो गांव की किचेन के बर्तनों को कौन टटोलेगा। इसका एक अर्थ यह भी है कि कुछ को तो ओरीजनल रहने दो। सभी को धो पोंछकर चमका दोगे और पंडा बना दोगे तो असल आदमी तो कहीं दिखेगा नहीं। देश का हर आदमी अगर कारपोरेट गुलाम हो जाए, बेहद सफल हो जाए तो ससुरा आम आदमी बचेगा कौन। किससे होड़ होगी कि हम सफल हो गए। फिर तो सफल सफल के बीच होड़ होगी कि ढेर सारा सफल कौन है।
यही बात है, हर लड़का सिर्फ पढ़ेगा ही पढ़ेगा, सिर्फ डाक्टर, इंजीनियर, एक्जीक्यूटीव, सीईओ, आईएएस, पीसीएस...आदि ही बनेगा....उसे और कुछ करने के लिए प्रेरित नहीं किया जाएगा, और कुछ करने के लिए वक्त नहीं दिया जाएगा तो इस देश व दुनिया साहित्यकार, कलाकार, चित्रकार, गीतकार, खिलाड़ी, वैज्ञानिक...आदि कहां से आएंगे। यहां तो सिर्फ पैसे कमाने वाले फ्रस्ट्रेट लोग ही बचे रहेंगे। और इन पैसे कमाने वालों का कोई इमान धरम तो होता नहीं। चाहें जैसे और जहां से माल आए, बस आए।
तो, महानगर के जीवन में गांव की तरह से जी रहे एक बच्चे की कहानी है। वह बच्चा आराम से हर काम करता है। कोई जल्दबाजी नहीं है। खूब सपने देखता है, खूब सोचता है, खूब अंड बंड काम करता है। नाक से निकटी निकालते हुए घंटों शून्य को निहारता है। लेकिन महानगर के मां-बाप और टीचर उसे सब के सब चूतिया समझने लगते हैं। सपने देखने वाला बेहद संवेदनशील बच्चा लिखने पढ़ने में किसी तरह मन नहीं लगा पाता। उसके इमोशन के साथ उसके बाप खेलते हैं। बाकी टीचर उसे गधा से लेकर जाने क्या क्या बताते हैं। पर एक संवेदनशील टीचर उसे बताता है कि उसमें जो कुछ है वो बहुत बड़ा और बहुत यूनीक है। उस बच्चे को वो टीचर उसकी ताकत व उसकी स्ट्रेंथ का एहसास दिलाता है।
खैर, मैं कहां का तार कहां फिट कर रहा हूं लेकिन इतनी शानदार फिल्म के लिए आमिर इसलिए बधाई के पात्र हैं कि अब जब कि सिनेमा के पूरी तरह बिजनेस हो जाने के दौर में कोई भी सोशल मैसेज वाली फिल्म बनाने की सोच ही नहीं सकता। लेकिन ब्लैक और तारे जमीन पर जैसी फिल्मों की सफलता बताती है कि इस बदले हुए समय में संवेदनशील लोगों की संख्या खूब बढ़ी है और वे सार्थक सिनेमा को खूब पसंद करेंगे बशर्ते वह सिनेमा बैलगाड़ी की तरह धीमी न हो। पारंपरिक न हो। नए कथानक और बिंबों को आधुनिक समय के हिसाब से लिए हुए हों।
खैर, फिल्म की बेहद निजी किस्म की समीक्षा कर दी। बुरा लगे तो मुवाफ करना, अच्छा लगे तो एक बार फिल्म खुद देख आना, पत्नी बच्चों के साथ। और अगर शादी न हुई हो तो प्रेमिका को कतई न ले जाना। बोर हो जाओगे। पहले बच्चे पैदा करो, फिर उनके पालने-पोसने का ढंग सीखो...:):)
जय भड़ास
यशवंत
3.1.08
बम बम बोले-- पापा, अब पढ़ाई बंद, पेंटिंग शुरू !!
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4 comments:
इसके पोस्ट के साथ आप आयुष की तस्वीर भी चिपका देते, तो पढ़ने वालों का मन कितना सुखी होता।
इस पोस्ट के साथ आप आयुष की तस्वीर भी चिपका देते, तो पढ़ने वालों का मन कितना सुखी होता।
यशवंत जी मुझे तो आपकी समीक्षा बहुत मस्त लगी। सही कह रहा हूं यदि अखबारों में इस तरह की समीक्षा आने लगे तो मजा आ जाएगा, खैर भड़ास की प्रगति के लिए और बच्चों के साथ फिल्म देखने के लिए बधाई।
आशीष
बॉस अपन ने भी फिल्म देखकर यही कहा था कि आमिर ने आज के दौर में ऐसी संवेदनशील फिल्म बनाई है।
वैसे सही मायने में यह ब्लैक से भी आगे है।
http://shuruwat.blogspot.com/2007/12/blog-post_21.html
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