गीत-संगीत किसको अच्छे नहीं लगते। मुझे भी लगते हैं। खासकर इरफान भाई अपने ब्लाग टूटी हुई बिखरी हुई पर जो सुनाते हैं, उनको खूब सुनता हूं। जाने कहां से छांट छांट के लाते हैं। इसी तरह छन्नूलाल जी को सुनने के लिए मोहल्ला पर अक्सर भागकर जाता हूं। मेरे जैसे ढेरों नेट यूजर व ब्लागर हैं जो गद्य वाली ज़िंदगी जीने के बाद पद्य की ओर भागते हैं और पद्य की पूर्ति जो करता हैं, उसके यहां ग्राहक बनकर पहुंच जाते हैं। यह एक सामान्य चीज है।
आज एक पोस्ट में बताया गया कि नए साल के पहले दिन इरफान भाई ने गा बजा कर वो हिट पा लिया जो भड़ास और अन्य ने कुछ कथित सनसनीखेज शीर्षक लगाकर (संभवतः जबरन) पाए। ऐसा लिखते हुए इरफान भाई ने शांति और ठंडे दिल-दिमाग के लिए एक और गाना सुनवा दिया, मोहल्ले पर। येसुदास की आवाज में।
गाना सुनवाना तो ठीक लगा लेकिन उसके पहले का इंट्रो कुछ समझ में नहीं आया। अब गाने सुनवाने में भी राजनीति होगी भाई......!! किसी को गरियाकर या आलोचना कर या उसे दोयम बताकर अपने काम को अच्छा साबित करना कहां की बौद्धिकता है? पता नहीं, हर सीधी चीज को तोड़ने मरोड़ने की परंपरा कब खत्म होगी। येसुदास को वैसे ही सुनवा देते, उसमें इतना लपेटने और भूमिका बनाने की क्या जरूरत थी? आप बोलेंगे तो ठीक है, हम जवाब देंगे तो उद्दंड कह देंगे? लेकिन जवाब तो देंगे ही क्योंकि यही भड़ास का वसूल है।
भई, आपने तो येसुदास के साथ एक तीर छोड़ दिया। छोड़ दिया है तो बात की तीर किसी को चुभेगी भी। और हम ठहरे भड़ास वाले। भड़ासी। सीधे सरल और सहज लोग। साफ साफ कहने वाले, साफ साफ सुनने वाले। बात वाली तीर चुभी है तो आह भी निकलेगी। और ये आह भड़ास के रूप में निकाल दी, मन हलका करने के लिए।
जय भड़ास
यशवंत
2.1.08
इरफान भाई, अब गाना सुनवाने में भी राजनीति होगी?
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