यशवन्त जी दुनिया विकास के धोखे में विनाश की ओर बढ रही है गाँव कस्बों में , कस्बे नगर में और नगर महानगर में तब्दील होते जा रहे है ये शहर की भागमभाग ,ये आपाधापी ,शहर का ये रूखापन अब नही सहा जाता है मैं पलायनवादी नही हूँ लेकिन न जाने क्यो रहरह कर गाँव की याद कचोटती है आज पीछे मूड़ कर जब हम देखते है तो दिल उदास हो जाता है सर्दियों मे गाँव के यार दोस्तों, बडे बूढों का वो आकर अलाव के पास बैठना , गाय भैसों को चराते हुए दोस्तो के साथ कबड्डी के दाँव अजमाना , रात को जुम्मन के खेतो से चने उखाड़ कर नदी के किनारे होरहा लगाना जब ये चीजें याद आती हैं तो मन करता है कि सब छोड़ कर वापस गाँव भाग जाउँ वापस गाँव की उसी अमराई में , शहरों के माँल्स को छोड़कर वापस अपने उसी छोटे से बाजार में उस शहर को छोड़ कर जहाँ गौरैया पेड़ों की जगह केबल के तारों पर कूदती है अपने प्यारे गॉव को याद कर हाय दिल में एक टीस सी उठती है शायद मेरे उस गाँव की नदी के किनारे पपीहा गाता हूआ मुझे आज भी बूलाता हो..............
16.1.08
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment