दोस्तों, गुलज़ार साहब की ये कविता पढ़ी तो दिल को छू गई। ऐसा लगा कि अहसासों को लफ़्जों में बयां करना कोई उनसे सीखे। ये तो तय है कि इस कविता को पढ़कर आप भी कुछ देर के लिए ही सही, सोच में गुम ज़रूर हो जाएंगे।
चिपचिपे दूध से नहलाते हैं, आंगन में खड़ा कर के तुम्हें ।
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुंढाते हैं गिलसियां भर के औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पांव पर पांव लगाये खड़े रहते हो
इक पथरायी सी मुस्कान लिये
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।
जब धुआं देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम,
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।
- अमित
16.1.08
इक जरा छींक ही दो तुम.............
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1 comment:
अच्छी है!!
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