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17.1.08

शीलेश की ज़िंदगी के लिए हम सब एकजुट हैं

लखनऊ के शीलेश के बारे में जो खबर भड़ास पर आई है, दरअसल वो नई नहीं है। जिन हालात में हम हिंदी पत्रकार जी रहे हैं, उनमें तनिक भी रिस्क लेने वाले की हालत यही होती है। डा. मांधाता सिंह ने शीलेश के बारे में जो खबर दी है, उसे पढ़कर पहले पहल तो सदमा लगा लेकिन बाद में एहसास हुआ कि क्या हम हिंदी मीडिया वाले इतने मर चुके हैं कि किसी हरामजादे, कुत्ते, सूअर टाइप के अफसर से निपटने में पूरी तरह अक्षम हो गए हैं। इन भ्रष्ट अफसरों के बारे में कौन नहीं जानता, पहले पहल तो ये चाहते हैं कि पत्रकार ही भ्रष्ट हो जाए, बाद में जब मालूम होता है कि पत्रकार भ्रष्ट नहीं होना चाहता तो उसे वह दरकिनार करना शुरू करते हैं, जब पत्रकार उसके खिलाफ कुछ तथ्यपरक लिखता है तो उसे वह भुगत लेने की धमकी देता है और कई बार कर भी दिखाता है। लगता है, इस मामले में भी ऐसा ही हुआ है, पर सच्चाई जानने की हम प्रतीक्षा करेंगे। पत्रकारिता के सिद्धांतों में एक यह भी है कि दोनों पक्षों की सुनी जाय। लखनऊ और कानपुर के मित्रों से अनुरोध है कि अगर वो शीलेश का मोबाइल नंबर मुझे उपलब्ध करा दें, तो महती कृपा होगी।

शीलेश के मामले में अगर डा. मांधाता सिंह की सूचना पर भरोसा करें तो शीलेश उड्डयन विभाग के किसी अफसर से त्रस्त होकर आत्महत्या करना चाहते हैं। पहले पहल तो हम शीलेश से अनुरोध करेंगे कि वो न्याय के लिए अकेले जंग लड़ने की बजाय अपने पत्रकार दोस्तों-साथियों को इकट्ठा करें। भड़ास उनके संग है। दिल्ली आएं और हम सब मिलकर कुछ कर गुजरा जाए। दोस्तों-साथियों-शुभचिंतकों को एकजुट किया जाये। कई तरीके हैं न्याय पाने के। अगर न्याय नहीं मिल रहा तो पहले खुद क्यों मरे, उसे निपटा दिया जाये, परेशान किया जाये, खबरदार किया जाये, जिससे दिक्कत है। बाद में जो होगा देखा जायेगा।

भड़ास में ही एक साथी ने डर नामक एक पोस्ट में इस लोकतंत्र की जो हालत बयां की है, उसे पढ़कर मैं सचमुच सिहर गया। मैंने वहां कमेट भी लिखा। कई बार ब्लागिंग करते हुए लगता है कि दरअसल अकेले-अकेले जीने से हम समझदार और ईमानदार और संवेदनशील लोग जो कुछ खो रहे हैं, शायद वे सब एक मंच पर आकर हासिल कर सकने की सोच सकते हैं।

मेरा हिंदी मीडिया के सभी पत्रकार मित्रों के अनुरोध है कि वे इस मामले पर संजीदगी दिखाएं। खासकर लखनऊ वाले पत्रकार साथियों से यह कहना चाहूंगा कि वे शीलेश को लेकर दिल्ली आ सकें तो हम यहां उनके साथ एक नई रणनीति बनाकर न्याय पाने की जंग छेड़ेंगे। भड़ास इस मुहिम में साथ है। बस, देर केवल इस बात की है कि जब तक इस लोकतंत्र के पायों को हिलाया न जाये, न्याय नहीं मिल सकता। भड़ास के लिए शीलेश की ज़िंदगी एक चुनौती है। हमें इस भाई और साथी को बचाना होगा।

लखनऊ कानपुर के अपने सभी साथियों दोस्तों से अनुरोध करूंगा कि वे इस मामले की अद्यतन रिपोर्ट भड़ास में प्रेषित करें। आगे की समुचित कार्रवाई जल्द की जायेगी।

जय भड़ास
जय शीलेश

यशवंत

1 comment:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,आपका गुस्सा ही पत्रकारिता की ऊर्जा है । ठीक ऐसी ही घटना देश की न्याय प्रणाली से जूझते हुए जस्टिस आनंद सिंह की है । आपके पत्रकारिता के तेवर आद्य पत्रकार स्व. पराड़कर जी की याद दिलाते हैं । मैं हर हाल में आपके संग हूं ,शीलेश का मोबाइल नंबर भड़ास पर दे दीजिएगा ताकि सब मिल कर इन हरामियों की औकात उन्हें याद दिला सकें ।