Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

11.1.08

चेतना का स्वर्ण, जलती वेदना में गल चुका है!

(इलाहाबाद विवि में बीए की पढ़ाई करते वक्त हिंदी का छात्र होने के नाते जब महादेवी को पढ़ता या मुझे पढ़ाया जाता तो महादेवी वर्मा की गहन संवेदना के बारे में सोचने लगता। कैसे कितना और किस तरह सोचती होंगी वो। साहित्य से खास लेना देना नहीं रहा लेकिन पढ़ते वक्त हमेशा कवि या लेखक की संवेदना तक पहुंचने की कोशिश करता हूं। आज जब महादेवी को सर्च किया तो कुछ कविताएं कुछ ब्लागों पर दिखीं। वहीं से उठा रहा हूं। या कहिये चोरी कर रहा हूं। ब्लाग का नाम है फ्रैंटिकवर्ड्स, पढ़िए और गुनिए....)



कौन तुम मेरे हृदय में ?

कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलक्षित?
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ घिर झरता अपरिचित?

स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा
नींद के सूने निलय में!
कौन तुम मेरे हृदय में?

अनुसरण निश्वास मेरे
कर रहे किसका निरन्तर?
चूमने पदचिन्ह किसके
लौटते यह श्वास फिर फिर

कौन बन्दी कर मुझे अब
बँध गया अपनी विजय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

एक करूण अभाव में चिर-
तृप्ति का संसार संचित
एक लघु क्षण दे रहा
निर्वाण के वरदान शत शत,

पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर क्रय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

गूँजता उर में न जाने
दूर के संगीत सा क्या ?
आज खो निज को मुझे
खोया मिला, विपरीत सा क्या

क्या नहा आई विरह-निशि
मिलन-मधु-दिन के उदय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

तिमिर-पारावार में
आलोक-प्रतिमा है अकम्पित
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरभित?

सुन रहीं हूँ एक ही
झंकार जीवन में, प्रलय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

मूक सुख दुख कर रहे
मेरा नया श्रृंगार सा क्या?
झूम गर्वित स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार सा क्या?

आज पुलकित सृष्टि क्या
करने चली अभिसार लय में
कौन तुम मेरे हृदय में ?

-महादेवी वर्मा


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पंथ होने दो अपरिचित
प्राण रहने दो अकेला!

और होंगे चरण हारे,
अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे;
दुखव्रती निर्माण-उन्मद
यह अमरता नापते पद;
बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला!

दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी;
आज जिस पर प्यार विस्मित,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ, चिनगारियों का एक मेला!

हास का मधु-दूत भेजो,
रोष की भ्रूभंगिमा पतझार को चाहे सहेजो;
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल स्वप्न-शतदल,
जान लो, वह मिलन-एकाकी विरह में है दुकेला!

- महादेवी वर्मा


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मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है।
विरह के रंगीन क्षण ले,
अश्रु के कुछ शेष कण ले,
वरुनियों में उलझ बिखरे स्वप्न के सूखे सुमन ले,
खोजने फिर शिथिल पग,
निश्वास-दूत निकल चुका है!
चल पलक है निर्निमेषी,
कल्प पल सब तिविरवेषी,
आज स्पंदन भी हुई उर के लिये अज्ञातदेशी
चेतना का स्वर्ण, जलती
वेदना में गल चुका है!
झर चुके तारक-कुसुम जब,
रश्मियों के रजत-पल्लव,
सन्धि में आलोक-तम की क्या नहीं नभ जानता तब,
पार से, अज्ञात वासन्ती,
दिवस-रथ चल चुका है।
खोल कर जो दीप के दृग,
कह गया 'तम में बढा पग'
देख श्रम-धूमिल उसे करते निशा की सांस जगमग,
न आ कहता वही,
'सो, याम अंतिम ढल चुका है'!
अन्तहीन विभावरी है,
पास अंगारक-तरी है,
तिमिर की तटिनी क्षितिज की कूलरेख डुबा भरी है!

शिथिल कर के सुभग सुधि-
पतवार आज बिछल चुका है!
अब कहो सन्देश है क्या?
और ज्वाल विशेष है क्या?
अग्नि-पथ के पार चन्दन-चांदनी का देश है क्या?

एक इंगित के लिये
शत बार प्राण मचल चुका है!

- महादेवी वर्मा

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