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13.1.08

लोकतंत्र या परलोकतंत्र ?

संभव है कि आप लोग इसे मेरे जैसे अतिक्षुद्र प्राणी का विद्रोह मान लें पर भई जो आदमी धड़कन की लय पर भ्रष्टाचार को सहे जाता हो वो क्या खाक बग़ावत करेगा । जबसे पत्रकारिता पढ़ी है और उसकी जड़ों में जो लोग थे उनको जाना , मुझे लगने लगा है कि हमारा देश आज तक लोकतंत्र के अनुकूल नहीं हो पाया है और यह प्रणाली राष्ट्रीय न होकर ध्रतराष्ट्रीय और सूरदासीय है । आम भारतीय जन जो एक वोट है आज तक सामंती प्रथा को ही मानता है क्योंकि यही एक वोट एक्टर के बेटे को सेना में देखने की कल्पना तक नहीं करता और भ्रष्टतम राजनेता के बेटे को भी नेता ही स्वीकारता है । अभिषेक बच्चन ने अभिनय की शून्यता लिये भावहीन चेहरे से करी और दसियों फ़ुस्स फ़िल्में देकर भी डटे रहे क्योंकि पिताजी ने तो जगह बना ही दी है । सोनिया जी से लेकर माधवराव सिंधिया जी ( "जी" कहना डर के कारण है वरना ये लोग कोई पारले-जी की तरह बिस्किट तो नहीं हैं न ?) के पुत्र-पुत्री जी रक्षा मंत्रालय को पांच-पांच साल के टुकड़ों मे मरते दम तक संभालने को तत्पर रहते हैं पर देश का इतिहास गवाह है कि इनमें से कोई देश की रक्षा के लिये सेना में कप्तान-लप्तान नहीं बनने को आगे आया । वजह तो ये बचपन से जानते हैं कि सेना में रहने से ताबूत घोटाला आदि कर पाने से वंचित रहना पड़ेगा । लोग हैं कि जानवरों की तरह जिए जा रहे हैं और वोट देकर हर पांच साल में अपनी बजवाने के लिये अलग-अलग नेता के आगे अपनी "दुकान" परोस देते हैं ,एक हम जैसे लोग हैं जो इनके लिए भगत सिंह बनने पर अमादा रहते हैं । हमारा विद्रोह बस इतना है कि हम अयोग्य नेताओं से अपनी बजवाने को राजी नहीं हैं । क्या करूं ? मुल्क की खुशहाली के लिए व्रत-उपवास करना शुरू कर दूं या लोगों का आत्मसम्मान अपने आप ही जाग जाएगा ?

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