हमारे समय की आवारा पूंजी ऐसे समाज की रचना कर रही है जिसमें भावना और विचार के लिए कोई स्थान नहीं हैं। मनुष्य को पशु श्रेणी से अलग करने वाला तत्व साहित्य ही है जो गुण-दोष के विचार का विवेक देता है, यही कारण है कि इस आवारा पूंजी का साहित्य से बैर है। सुविख्यात हिन्दी आलोचक प्रो. रविभूषण ने ‘सम्भावना’ द्वारा आयोजित ‘साहित्य और समाज के नये सम्बन्ध’ विषयक परिसंवाद में उक्त विचार व्यक्त किये। स्वैच्छिक संस्थान प्रयास के सहयोग से आयोजित परिसंवाद में प्रो. रविभूषण ने कहा कि एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य का जुड़ाव न हो इसके लिए भूमण्डलीकरण की तमाम ताकतें सक्रिय हैं। परिवार जैसी मजबूत संस्था हमारे दौर में छिन्न-भिन्न होती नजर आ रही है। उन्होंने कहा कि साहित्य जोड़ने का काम करता है तथा धनवान होने और बेहतर मनुष्य होने का भेद समझाता है। प्रो. रविभूषण ने बढ़ रही व्यावसायिकता को मनुष्यता के लिए खतरनाक बताते हुए कहा कि जीवन व्यापार नहीं है। उन्होंने कहा कि समाज को ऐसी खास दिशा में ले जाने वाली शक्तियों के सामने साहित्य जबरदस्त प्रतिरोध करता है और मनुष्य को व्यापक बनाता है।
परिसंवाद में कवि-समालोचक डा. सत्यनारायण व्यास ने कहा कि जो साहित्य समाज के लिए उपयोगी न हो उसे साहित्य मानना भूल होगी। प्रेमचन्द की अमर कहानी ‘कफन’ को याद करते हुए उन्होंने कहा कि ‘कफन’ जैसी रचनाएँ साहित्य की शक्ति का असली परिचय देती हैं जिसे पढ़ने के बाद दलितों-वंचितों के प्रति हमारी दृष्टि ही बदल जाती है। डा. व्यास ने कहा कि साहित्य की प्रकृति कलात्मक होती है लेकिन उसकी परिणति सामाजिक ही हो सकती है। भागीदारी कर रहे डा. राजेन्द्र सिंघवी, गोविन्दराम शर्मा और माणिक सोनी के सवालों पर प्रो. रविभूषण ने विस्तृत चर्चा की। प्रयास के सचिव डा. नरेन्द्र गुप्ता ने कहा कि आवारा पूंजी हमारे आस-पास समृद्धि का छलावा जरूर पैदा कर रही है लेकिन विश्व बैंक की रिपोर्ट का सच है कि विश्व की अस्सी प्रतिशत पूंजी पर केवल पांच प्रतिशत लोगों ने कब्जा जमा रखा है। उन्होंने इस छलावे को तोड़ने में साहित्य की भूमिका को रेखांकित किया। ‘बनास’ के सम्पादक डा. पल्लव ने शिक्षित समुदाय को सांस्कृतिक जागरूकता के लिए अपने दायित्व को तय करने की आवश्यकता बताई। परिसंवाद में सामाजिक कार्यकर्ता प्रीति ओझा, प्राध्यापक गुणमाला जैन, कन्हैयालाल सांवरिया और रामेश्वरलाल शर्मा ने भी भाग लिया। इस अवसर पर चन्द्रकांता व्यास द्वारा सम्पादित राजस्थानी लोकगीतों के सद्य प्रकाशित संकलन ‘माँ के गीत’ का विमोचन प्रो. रविभूषण ने किया। श्रीमती व्यास ने पुस्तक के सम्पादन के अपने अनुभव बताते हुए कहा कि सांस्कृतिक प्रदूषण के दिनों में लोक की यह विरासत हमारे लिए प्रेरक सिद्ध होगी। आभार प्रदर्शित करते हुए ‘सम्भावना’ के अध्यक्ष डा. के.सी. शर्मा ने कहा कि साहित्य की भूमिका अब स्वान्तः सुखाय से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है।
रिपोर्ट- माणिक सोनी, सम्भावना, म-16, हाउसिंग बोर्ड, कुम्भानगर, चित्तौड़गढ़-312001
13.6.09
आवारा पूंजी का साहित्य से बैर है: चित्तौड़गढ़ में परिसंवाद
Labels: परिसंवाद
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1 comment:
thanks for the news post fecilty
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