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2.4.21

देश में स्थापित विपक्ष में दम नहीं, नया जमीनी नेतृत्व ही दे सकता है टिकाऊ विकल्प

CHARAN SINGH RAJPUT-
    
देश में एक से बढक़र एक आपदा आई पर जिस तरह से विवश लोग आज की तारीख में आ रहे हैं शायद ही कभी कभी रहे होंगे। यह अपने आप में विडंबना है कि लोगों की आय कम हो रही है और खर्चे बढ़ रहे हैं। देश में प्रभावशाली तंत्रों को जनता को लूटने की पूरी छूट दे दी गई हैं पर यदि किसान आंदोलन को छोड़ दें तो कोई प्रभावशाली आंदोलन देश में नहीं हो पा रहा है। जो भी प्रयास हो रहे हैं वह व्यक्तिगत हो रहे हैं। राजनीतिक दल तो जैसे बिल्ली की भाग से छींका टूटने का इंतजार कर रहे हैं। मोदी सरकार अपने निर्णयों से देश का कबाड़ा करती जा ही है पर लोग हिन्दू-मुस्लिम, स्वर्ण, दलित और पिछड़ों में उलझे हुए हैं।

आजादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने वाले समाजवादी और वामपंथी निजी स्वार्थ के चलते लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं और आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ देने वाले संघी देश पर हावी होते जा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर यह माहौल बना ही कैसे ? जब भाजपा सरकारों में देश में अराजकता का माहौल बना हुआ है तो देश में बड़ा जनांदोलन क्यों  नहीं खड़ा हो पा रहा है ? क्यों नहीं लोग अपने मान-सम्मान और अधिकार के लिए खड़े हो रहे हैं ? दरअसल कांग्रेस की गलत नीतियों के खिलाफ खड़े होने वाले समाजवादी और वामपंथी वह छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं जिसके लिए वह जाने जाते रहे हैं। आज के समाजवादी और वामपंथी देश को नया और साफ सुथरा नेतृत्व देने में नाकाम नजर आ रहे हैं।

समाजवाद के नाम पर देश के राजनीतिक पटल पर स्थापित युवा नेताओं में से अधिकतर वंशवाद के चलते आये हैं। चाहे सपा प्रमुख अखिलेश यादव हों, राजद से तेजस्वी यादव हों, कांग्रेस से राहुल गांधी हों, रालोद से जयंत चौधरी हो, जेजेपी से दुष्यंत चौटाला हो ये सब वंशवाद के नेता हैं। महाराष्ट्र  में उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे का यही हाल है। मतलब इन नेताओं में संघर्ष का अभाव होना स्वभाविक है। वामपंथी आंदोलनों में तो नजर आते हैं पर चुनाव में ये पिछड़ जाते हैं।
आंदोलन में लाखों की भीड़ जुटाने वाले वामपंथी इस भीड़ को वोटबैंक बनाने में लगातार नाकामयाब रहे हैं। इसका बड़ा कारण यह है कि वामपंथियों में शीर्ष नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं को झंडा ढोने और नारे लगाने तक ही लगा रखा है। भारत में वामपंथियों के पिछडऩे का बड़ा कारण चीन की हर नीति को समर्थन करना और उसकी हर आलोचना को गलत ढंग से लेना रहा है। यदि ऐसा नहीं है तो शी जिनपिंग के ताउम्र प्रधानमंत्री घोषित करने पर वामपंथियों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया ?

दरअसल डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक  नारायण जयप्रकाश, कर्पूरी ठाकुर, चौधरी चरण सिंह, किशन पटनायक, जार्ज फर्नांडीस, चंद्रशेखर सिंह जैसे समाजवादियों के बाद देश में युवाओं को नेतृत्व प्रदान करने वाले समाजवादियों का घोर अभाव पैदा हो गया। मुलायम सिंह, यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद पवार, अजित सिंह, रामविलास पासवान ने विशेष रूप से देश को युवा नेतृत्व देने के बजाव वंशवाद और परिवारवाद को बढ़ावा दिया। ऐसा नहीं है कि भाजपा में वंशवाद नहीं है। भाजपा ने एक बात का विशेष ध्यान रखा है कि शीर्ष नेतृत्व में वंशवाद होने से परहेज रखा है। आज की तारीख में तमाम जनविरोधी नीतियों के बावजूद मोदी सरकार के खिलाफ बड़ा माहौल इसलिए नहीं बन पा रहा है  क्योंकि विपक्ष पर लोग विश्वास नहीं कर पा रहे हैं।

यह भी कहा जा सकता है कि विपक्ष में अधिकतर नेता आजमाए हुए हैं। व्यक्तिगत स्तर पर कुछ सोशल एक्टिविस्ट सरकार के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोले हुए हैं। किसान, मजदूर संगठनों के अलावा कई युवा  संगठन भी मोदी सरकार के गलत नीतियों से टकरा रहे हैं पर विपक्ष में स्थापित राजनीतिक दल न तो खुद मोदी सरकार के खिलाफ माहोैल बना पा रहे हैं न ही मोदी सरकार के खिलाफ तनकर खड़े हुए लोगों को सहयोग कर रहे हैं।

मेरा मानना है कि जब तक देश में जमीनी और जुझारू नेतृत्व खड़ा नहीं होगा तब तक देश का कोई भला नहीं होने वाला है। भले ही मोदी सरकार की नाराजगी से देश में बदलाव हो जाए पर देश का कोई भला नहीं होने वाला है। इसकी वजह यह है कि जा विपक्ष अब कुछ नहीं कर पा रहा है वह सत्ता में आकर क्या कर पाएगा। वैसे भी विपक्ष में लगभग सभी नेता आजमाए हुए हैं। ऐसे में देश में एक नया जमीनी नेतृत्व उभारना जरूरी है।

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