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2.2.12

धार्मिक होने के मतलब किसी धर्म से पक्षपात कतई नहीं : स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती

वर्तमान समय में देश कई समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं का समाधान तभी संभव है, जब धर्म को ध्यान अथवा जेहन में रख कर राज यानी राजनीति की जाए। यह कथन है द्वारका पीठ के जगद्गुरू स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती महाराज का। स्वामीजी ने अपने कोलकाता प्रवास के दौरान शंकर जालान से लंबी बातचीत करते हुए कहा कि धार्मिक होने का मतलब किसी धर्म से पक्षपात करना कतई नहीं है। सही अर्थों में धर्म निरपेक्षता ही धर्म है। पेश ही महाराजश्री से हुई बातचीत के चुनिंदा अंश



-- महाराज जी, आप धर्म गुरू है, इसीलिए पहला प्रश्न धर्म से संबंधित कर रहा हूं, धर्म की सटीक परिभाषा क्या है?
00 धर्म की सटीक परिभाषा है वह कर्म जिससे किसी को नुकसान न हो, कोई आहात न हो। सही मायने में धर्म उसे ही कहा जा सकता है, जो खुद को शांति और दूसरे को सुख प्रदान करे।

-- संत और संन्यासी में क्या फर्क है?
00 मूल रूप से तो कोई फर्क नहीं है। दोनों को त्यागी और परोपकारी होना चाहिए। यहां यह कह सकते हैं कि संन्यासी बनने के लिए संन्यास आश्रम का आश्रय लेना जरूरी है, जबकि व्यक्ति गृहस्थ होते हुए भी संत हो सकता है।

--संत, महात्मा और संन्यासियों का मुख्य कार्य क्या होना चाहिए?
00 इन सभी का काम और पहला कर्तव्य है मानव मात्र की रक्षा। इसके अलावा लोगों को अपनी धर्म-संस्कृति से अवगत कराना, देश प्रेम की भावना जागृति करना जैसे कामों को दूसरे और तीसरे क्रम में रखा जा सकता है।

-- क्या साधु समाज के लोग अपनी जिम्मेवारी ठीक तरह से निभा रहे हैं या दूसरे शब्दों में कहे तो समाज को उचित अथवा धर्म की राह दिखा रहे हैं?
00 यह बहुत जटिल सवाल कर लिया आपने। आपको बता दें कि साधुओं का कोई समाज नहीं है। जो व्यक्ति घर-द्वार, माता-पिता, भाई-बहन और रिश्ते-नाते को छोड़कर साधु बनता है वह फिर से समाज के घेरे में क्यों बंधना चाहेगा। साधु का व्यवहार ही लोगों को धर्म की राह दिखा देता है, इसके लिए उन्हें अलग से विशेष कुछ करने की जरूरत नहीं होती। जो साधु आडंबर की आड़ में धर्म को बढ़ावा देने की वकालत करते हैं, वे लोगों को धोखा देने के साथ-साथ कहीं न कहीं अपनी जिम्मेवारी से भटक गए हैं।

-- धर्म में दिखावा बढ़ गया है इसका कारण क्या है और इसे कैसे रोका जा सकता है?
00 धर्म में दिखावा नहीं होना चाहिए और ऐसा मंजर तभी देखने को मिलता है जब व्यक्ति धर्मिक आयोजन को स्वार्थसिद्धि के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है। इसे तभी रोका जा सकता है, जब जनता आडंबर वाले धार्मिक आयोजनों में जाने से परहेज करे।

-- सुना जाता है कि संन्यासी होना सहज है, लेकिन वैरागी होना बेहद कठिन ऐसा क्यों?
00 बिल्कुल सही सुना है आपने। संन्यास आश्रम में रहने वाले को संन्यासी कहा जा सकता है। वैरागी होना सहज नहीं है। मोह-माया, मान-सम्मान, स्वाद-बेस्वाद, लाभ-हानि पर विचलित न होना ही वैरागी होने के लक्षण हैं।

-- धर्म और राजनीति का क्या संबंध है?
00 बहुत गहरा संबंध है। व्यक्ति धर्म के मुताबिक जीवन-यापन करे और इसे ही ध्यान में रखकर राजनीति। राजनीति का अर्थ है राज की नीति। यदि राजा धर्म से नियंत्रित होगा तो राजनीति स्वत: धर्म से नियंत्रित हो जाएगी। कुछ लोग धर्म को राजनीति से अलग करने का स्वार्थपूर्ण अभियान चला रहे हैं, ताकि धर्म उनकी राह में बाधक न बने।
-- क्या धार्मिक रहते हुए धर्म निरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता?
00 बिल्कुल हुआ जा सता है। धार्मिक होने का अर्थ किसी धर्म से पक्षपात करना नहीं है। धर्म निरपेक्षता ही धर्म है। जहां तक हिंदू धर्म की बात है वह अत्यंत वैज्ञानिक है, इसमें किसी से विरोध नहीं है।

-- स्वामीजी पाप क्या है और पुण्य क्या है?
00 जब मनुष्य कोई कर्म करता है तो उसका फल कुछ समय बाद प्राप्त होता है। यदि फल के रूप में संस्कार मिले तो वह पुण्य है और दुराचार मिले तो वह पाप है।

-- सनातन धर्म में धर्म गुरूओं की भरमार है, बावजूद इसके समाज में असंतोष बढ़ता जा रहा है इसका क्या कारण है?
00 इसका मूल कारण है कुछ धर्म गुरू अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति से जुड़े हैं। वे जो कहते हैं उसे प्रवचन नहीं, भाषण कहा जाना चाहिए। जब तक प्रवचन की जगह भाषण पिलाया जाएगा, समाज में असंतोष बढ़ता है रहेगा।

--ईसाई धर्म के सर्वोच्च गुरू पोप की बात विश्व का समस्त ईसाई समुदाय और हमारे हिंदू धर्मावलंबी भी न केवल ध्यान से सुनते है, बल्कि अमल भी करते देखे गए हैं। पर हमारे धर्मगुरूओं की बात पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, इसका क्या कारण है ?
00 पोप की बात पर भी अमल नहीं होता। समय-समय पर उन्होंने युद्ध विरोधी बयान दिए हैं, क्या युद्ध रुका। जो हमें दिखता है वह पश्चिमी प्रचार तंत्र पर हमारी निर्भरता है और उनके प्रचार का सही तरीका।

-- पश्चिमी देशों में और अपने देश के पश्चिमपंथियों में आजकल दक्षिणपंथी कट््टरवाद की बहस छिड़ी हुई है। यह प्रकारांतर से हिंदू धर्म पर हमला है। आप क्या कहेंगे?
00 पहली बात तो यह है कि दक्षिणपंथी का जो कट््टरवाद है वह हिंदुत्व से परे है। जो हिंदू धर्म को इससे जोड़ते हैं वे इसे खत्म करना चाहते हैं। कहने का अर्थ है कि हिंदू कभी कट््टरपंथी नहीं हो सकता।

-- एक दिवसीय धार्मिक आयोजनों में लाखों रुपए खर्च करना क्या तर्कसंगत है?
00 मोटे तौर पर तो इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी लोग भाव से ऐसा करते हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन दिखावा या प्रभाव जमाने के लिए ऐसा करना बिल्कुल गलत है।

-- बाबा रामदेव प्रकरण पर आपकी क्या राय है?
00 बाबा रामदेव का तरीका बिल्कुल गलत है। मुझे कहीं न कहीं इसमें भाजपा और आरएसएस के हाथ होने की बू आ रही है। रामलीला मैदान में जो हुआ वह साधुओं के लिए शर्म की बात है। इसके लिए सीधे तौर पर रामदेव दोषी हैं। लोगों को यह समझ में आ गया है कि राष्ट्र के लिए नहीं निजी महत्वकांक्षा के लिए रामदेव यह सब कर रहे हैं। देखिए, रामदेव विदेशों में जमा काला धन स्वदेश लाने की बात कर रहे हैं और उसे सरकारी संपत्ति घोषित करने की मांग भी। साथ ही वे यह आरोप भी की सरकार भ्रष्ट है। वे देश की समृद्धि की वकालत कर रहे हैं तो उन्हें पता होना चाहिए कि धन वापस लाने से देश समृद्धि नहीं होगा। देश तभी समृद्धि होगा जब लोग कठोर परिश्रमी, अनुशासनशील और ईमानदार होगें।

-- क्या आप अण्णा हजारे की मांग से सहमत हैं?
00 जहां तक अन्ना की बात है उनका तरीका और उनकी मांग रामदेव से कुछ भिन्न है। उनकी मांग पर भले ही असहमति जताई जा सकती है, लेकिन तरीके को गलत नहीं कहा जा सकता। रही बात भ्रष्टाचार की तो अन्ना की टीम में कई लोग हैं जो घेरे में हैं। अन्ना को देश को ठीक करने से पहले अपने घर यानी टीम में सुधार करना चाहिए।

-- कहते हैं जब-जब अधर्म बढ़ता है परमात्मा अवतार लेते हैं, भारत में भ्रष्टाचार रूपी अधर्म बढ़ रहा है क्या निकट भविष्य पर किसी चमत्कार की उम्मीद है?
00 धर्म विरोधी लोग हर युग में रहे हैं और अधर्म भी करते रहे हैं। बावजूद इसके धर्म सदियों से जीतता आया है। रावण (अधर्म) को राम (धर्म) ने मारा। इसी तरह कंश (अधर्म) का वध कृष्ण (धर्म) ने किया। निश्चित तौर पर रावण और कंश जैसे अधर्मी लोगों की तादाद बढ़ेगी, तो कोई ना कोई राम या कृष्ण के रूप में अवश्य इस धरती पर आएगा।

-- करीब छह साल बाद भाजपा में लौटी उमा भारती ने गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने का अभियान छेड़ रखा है, क्या उन्हें सफलता मिलेगी?
00 कुछ पाने की तमन्ना से किए जा रहे काम को जनहितकारी नहीं कहा जा सकता। उमा भारती ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जो अभियान छेड़ा है। वह राजनीति लाभ के लिए है। आपको बता दूं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की मांग सर्वप्रथम मैंने की थी। मैं तहे दिल से चाहता हूं कि गंगा प्रदूषण मुक्त हो। उमा भारती मेरे मुद्दे को राजनीति लाभ के लिए इस्तेमाल कर रही है।

-- सुना है मिशन पूरा न होने तक उन्होंने (उमा) मालपुआ न खाने का प्रण लिया है, क्या यह ठीक है?
00 कौन देखने जाता है। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता।

-- यह सच्चाई है कि पढ़ी अधिक रामायण जाती है, लेकिन समाज में अधिक प्रभाव महाभाारत का दिख रहा है, ऐसा क्यों?
00 क्योंकि लोग रामायण केवल पढ़ते हैं, उसका मनन नहीं करते।

1 comment:

Anonymous said...

धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है । धर्म के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । धर्म पालन में धैर्य, विवेक, क्षमा जैसे गुण आवश्यक है ।
ईश्वर के अवतार एवं स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । लोकतंत्र में न्यायपालिका भी धर्म के लिए कर्म करती है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
अधर्म- असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म है । अधर्म के लिए कर्म करना भी अधर्म है ।
कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म (किसी में सत्य प्रबल एवं किसी में न्याय प्रबल) -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मंत्रीधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक एवं परमात्मा शिव की इच्छा तक रहेगा ।
धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर के किसी रूप की उपासना, दान, तप, भक्ति, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।