भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों को लेकर दोनों देशों के सुप्रीम कोर्ट के रुख का विश्लेषण कर रहे हैं कुलदीप नैयर
भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के पास रास्ते की पहचान के लिए दो अलग-अलग प्रकाशपुंज हैं। एक देश के सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री को बचा लिया है, जबकि दूसरे देश के सुप्रीम कोर्ट ने वहां के प्रधानमंत्री को अवमानना के मामले में कोर्ट में हाजिर होने को कहा है। हालांकि इन दोनों मामले में कोई समानता नहीं है, फिर भी कोर्ट का संदेश एक जैसा है। संदेश है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है। वह किसी दबाव में नहीं आती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से चूक हुई है। चूक यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा के अभियोजन की अनुमति 16 महीने तक नहीं दी। राजा मनमाने एवं गैरकानूनी तरीके से मोबाइल कंपनियों को 2 जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस देने के आरोपी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में मनमोहन सिंह को दोषमुक्त करार दिया है। कोर्ट का कहना है कि प्रधानमंत्री खुद हर मामले को विस्तार से नहीं देख सकते। प्रधानमंत्री उपयुक्त कार्रवाई तभी कर सकते थे जब उनके सलाहकार मंत्री के खिलाफ लगे आरोपों की गंभीरता से उन्हें अवगत कराते, लेकिन इस मामले में यह विश्वास करना कठिन है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने मनमोहन सिंह को राजा के खिलाफ मामला दर्ज करने की मंजूरी के बारे में सूचना नहीं दी होगी और वह भी तब जब यह 16 महीने से लंबित था। हकीकत तो यह है कि लगातार याद दिलाए जाने पर भी प्रधानमंत्री कार्यालय का जवाब यही होता था कि मामला सीबीआइ के पास भेजा हुआ है, जबकि मंजूरी के लिए किसी जांच की जरूरत नहीं थी। जाहिर है, कुछ दूसरे कारणों से विलंब हुआ। नि:संदेह इस प्रकरण में प्रधानमंत्री की किरकिरी हुई है, क्योंकि मामला उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी से जुड़ा हुआ है। सफाई देने मात्र से मामला धुल नहीं गया है। यह सही है कि प्रधानमंत्री साझा सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं और उन्हें अपने सहयोगी द्रमुक की संवेदनशीलता के प्रति सजग रहना चाहिए था। राजा और प्रधानमंत्री के बीच हुए पत्राचार से यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को यह जानकारी थी कि राजा किस तरह सभी नियमों को दरकिनार कर कुछ खास कंपनियों की मदद कर रहे थे। इसके बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय ने कुछ नहीं किया। मतलब साफ है, या तो कोई कार्रवाई नहीं करने का निर्देश था या फिर प्रधानमंत्री कार्यालय खुद उलझन में था। प्रधानमंत्री कार्यालय का लचर रवैया हो या फिर राजनीतिक मजबूरियां, इससे न तो प्रधानमंत्री और न ही द्रमुक के साथ गठबंधन की अध्यक्षता करने वाली सोनिया गांधी की नैतिक जिम्मेदारी कम होती है। मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री कार्यालय का इतना अधिक विस्तार कर दिया गया है कि इससे दायित्वों को लेकर उलझन और एक ही काम कई जगह होने की स्थिति बन गई है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सिर्फ एक सचिव थे-त्रिलोक सिंह। वह ही शरणार्थियों के पुनर्वास का काम भी देखा करते थे। जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एलके झा को अपना सचिव बनाया। उस वक्त तक प्रधानमंत्री कार्यालय छोटा था। प्रधानमंत्री कार्यालय का वास्तविक विस्तार इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुआ। उन्होंने इसे समानांतर सरकार में तब्दील कर दिया। सभी मंत्रालयों का एक-एक अधिकारी प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनात कर दिया गया। इस तरह यह एक तरह से मिनी सरकार बन गया। मनमोहन सिंह ने इसे यथावत बनाए रखा। नतीजा है कि आज प्रधानमंत्री कार्यालय का सीधा दखल सभी मंत्रालयों में है। प्रधानमंत्री कार्यालय पर एक और आघात सुप्रीम कोर्ट द्वारा 122 लाइसेंसों को रद किए जाने से लगा है। ये सारे लाइसेंस राजा ने जारी किए थे। कोर्ट ने अब इनकी नीलामी का निर्देश दिया है। कोर्ट के संकेत के अनुसार 2001 के भाजपा शासनकाल के समय से लेकर अब तक जारी किए गए लाइसेंसों की जांच होनी चाहिए। जिस वक्त प्रमोद महाजन संचार मंत्री थे उस समय मैं राज्यसभा का सदस्य था। तब महाजन के बारे में भी तरह-तरह की चर्चाएं होती थीं। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बड़े कद वाले प्रधानमंत्री भी उन पर लगाम कसने में असमर्थ थे। पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को फिर से खोलने के लिए स्विस सरकार को लिखने का निर्देश दिया था। जनरल परवेज मुशर्रफ ने जरदारी और उनकी पत्नी बेनजीर भुट्टो के खिलाफ इन मामलों को नेशनल रिकंसिलिएशन ऑर्डिनेंस के जरिए बंद कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को संविधान की भावनाओं के विपरीत करार दिया है। इसके बचाव में गिलानी का कहना है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति को संविधान के तहत छूट हासिल है यानी उनके खिलाफ मुकदमा नहीं चल सकता। इस तरह दोनों देशों-भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के सामने नैतिक सवाल खड़ा है। अवमानना के लिए गिलानी की खिंचाई हो सकती है और उन्हें अपना पद गंवाना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री कार्यालय की चूक की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर मनमोहन सिंह इस्तीफे की पेशकश कर सकते हैं। लोकतंत्र में ये सब सामान्य बातें हैं। फिर भी, भारत में इस संबंध में अंतिम निर्णय तो संसद के निर्वाचित सदस्य ही करेंगे। पाकिस्तान में निर्वाचित नेशनल असेंबली का एक लोकतांत्रिक कोना तो है, लेकिन वास्तविक शक्ति सेना के हाथों में है। हालांकि, पाकिस्तान में एक तीसरी शक्ति के रूप में सुप्रीम कोर्ट का उदय हुआ है। यह संयोग है कि सेना इस सुप्रीम कोर्ट का साथ दे रही है। सेना ने ही गिलानी के मामले को आगे बढ़ाया है। गिलानी ने मेमोगेट से सेना को नाराज कर दिया था। दरअसल, जरदारी सरकार ने सेना की बगावत के खतरे को लेकर अमेरिका से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था। इस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो आयोग बनाया है वह राष्ट्रपति जरदारी या प्रधानमंत्री गिलानी की पसंद नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी ने बहुत हद तक पाकिस्तान की न्यायपालिका की स्वतंत्रता को फिर से बहाल किया है। लेकिन आज भी सैन्य कोर्ट और यहां तक कि अभियोजन के दौरान असैनिक अधिकारियों के खिलाफ याचिका स्वीकार करने का अधिकार हाइकोर्ट को नहीं है। भारत में इस तरह की समस्या नहीं है, लेकिन भ्रष्टाचार ने तमाम संस्थाओं को अशक्त बना दिया है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आस बंधती है-भारत में भी और पाकिस्तान में भी।
(लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण
No comments:
Post a Comment