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27.2.12


एक थी कलावती



एक थी कलावती . थी इसलिए क्योंकि उसका वर्तमान में होना भी थी 


के ही बराबर है . नाम पर जाया जाय तो वह कलावती थी . कलाओं 


वाली थी . कला की धनी थी . लेकिन नाम से वो कलावती थी काम से 


किसान . यह कृषि प्रधान देश है इसलिए किसान होना सम्मान का 


प्रतीक हो सकता है . वह भी कृषक ही थी . लेकिन उसका अथक 


परिश्रम भी उसके नाम को सार्थक नहीं कर सका था . गरीबी उसके 


भाग्य की परछाही थी जो हमेशा उसे साथ ही रहा करती थी . सर पर 


बमुश्किल एक छत घासफूस की . तन पर कपडे के नाम पर कुछ 


चीथड़े और रसोई में खाने के नाम पर मोटा अनाज और बमुश्किल दो 


समय का खाना . रात को गुदड़ियों में सो जाती और सुबह गुदड़ियों से 


ही उठ जाती . वैसे तो हमारे देश में कई गुदड़ी के लाल हैं जिनका 


गुदड़ी से कोई सम्बन्ध नहीं है. वे दीखते गुदड़ी के लाल हैं लेकिन 


उनका जीवन गुदड़ी वाला  नहीं. वे जब किसी राज्यके मुखिया  रहे 


तब जरूर बाकी प्रदेशवासियों को उन्होंने गुदड़ी वाला बना दिया था 


लेकिन वे खुद गुदड़ी वाले नहीं हैं . बल्कि हर ऐशो आराम से ओत प्रोत 


हैं . वे कहने को गुदड़ी के लाल हैं और हकीक़त में मैनेजमेंट गुरु भी रह 


चुके हैं .


लेकिन हम बात कर रहे थे कलावती की . वह गुदड़ी पर आश्रित थी . 


उसने कोई सपना कदाचित ही कभी देखा हो . या देख भी होगा तो 


टूटते सपनों के बाद कदाचित ही कभी दोबारा सपने देखने की कोशिश 


की होगी. उसने कभी नहीं सोचा होगा की भी कोई राजा या युवराज 


उसके घर या जीवन में आएगा और उसके दिन बहुरने की उम्मीदों पर 


पानी डाले जाने की चर्चा होगी.




लेकिन एक दिन अचानक . एक युवराज . एक लम्बी गाडी में . अपनी 


गाडी से उतरा . वह युवराज था . उसे चेहरे पर युवराजों की मुस्कान 


थी . ऐसा उसके मातहत कहते थे या कह सकते हैं कि उसके आसपास 


घूमने वालों को उसमे उनका युवराज नज़र आता था . वह कलावती 


की झोपडी में आया . बैठा . उसके हालचाल पूछे उसके चूल्हे की बनी 


रोटी खाई  . उससे पूछा कि वह कैसे अपना जीवन यापन करती है ? 


युवराज को बड़ी चिंता हुई कि देश में ऐसे भी लोग हैं  जो दो  समय का 


भोजन भी नहीं पा पाते . लेकिन मुझे इस बात की ख़ुशी है कि उस 


युवराज ने फ्रांस की कभी उस एक राजकुमारी की तरह यह नहीं कहा 


कि यदि कलावती के पास रोटी नहीं है तो वह केक पिज्जा बर्गर आदि 


से काम क्यों नहीं चला लेती ? युवराज परेशान था कलावती की हालत 


पर और वह कलावती को उम्मीदों का पिटारा थमाकर चला गया.




कलावती हक्का बक्का थी . कोई आया था उसके दिन फेरने . उसके 


पीछे लाव लश्कर था . कैमरे थे . फ्लैश थी . वह घबरा गई थी . इतनी 


उम्मीद तो उसने कभी नहीं की थी . वह बेसुध सी थी . ऐसा भी होता 


है क्या ? ऐसा तो सपनों में हुआ करता है . वह भी उन तरुण युवतियों 


के सपनों में जो अपने अपने राजकुमारों की प्रतीक्षा में दिन काटती हैं 


कि कोई आएगा उनके दिन फेरने . यहाँ पर स्थिति थोड़ी भिन्न थी . 


युवराज आया था . एक पुत्र की तरह अपनी माँ के दिन फेरने . उसे तो 


ऐसा ही लगा होगा . उसे आँखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था . दिन 


फिरने की ऐसी उम्मीद तो उसने कभी नहीं लगाईं थी . वह थोडा सा 


होश में तब आई जब युवराज चला गया . कैमरे चले गए . लाव लश्कर 


चला गया . और रह गया वही टूटा फूटा सा झोपडी नुमा घर . झोपड़ 


पट्टी . शरीर पर कतरे . वही सूखी रोटी और पुनर्जीवित होने की 


उम्मीद में उम्मीदें जिनके पूरा होने की हैरत भरी उम्मीद अब 


कलावती को भी थी . 
अगले दिन अखबारों में खबर छपी . युवराज कलावती के घर गया था .
 उसके हाल चाल पूछे . कलावती को तो 


पढना भी नहीं आता था . कैसे जान पाती . कदाचित ही किसी ने  उसे 


बताया हो . लेकिन पृष्ठ में वह अब इतनी अभागी नहीं थी जितने देश 


के अन्य करोड़ों लोग जो सूरज की तपिश झेलते सूख सूखकर जल 


जाते हैं. युवराज देश की सर्वोच्च संस्था में गया था . वहां बोला वह - 


कलावती .....कलावती.........कलावती.................कलावती वहाँ 


रहती हैं . चीथड़ों में रहती है . ये खाती है . उसने भी वही खाया . 


उसकी हालत खराब है. उसके पास पैसे नहीं हैं. वह उसके बारे में 


चिंतित है. देश में ऐसी कितनी ही कलावतियाँ हैं. उनके लिए हमें 


कुछ करना है. .................




ख़बरों से पता चला , कलावती सबकी जुबान पर है. वह अब इतनी 


अभागी नहीं है.वह देश के सुप्रीमो की जुबान पर है. अब उसका कुछ 


होगा . उसका जीवन बदल जाएगा.


समय बीतता गया और सब कुछ चूकता गया. वर्षों बीतते  गए . कई 


बरसातें चली गयीं . ठण्ड , गर्मी , वर्षा . दिन माह वर्ष . शिशिर वसंत 


ग्रीष्म वर्षा शरद हेमंत सब ऋतुएं अपनें अपने कालचक्र के साथ 


पुनरावृत्त होती गयीं . अगर कुछ नहीं बदल रहा था तो वह था 


कलावती का अपना घर और हालात . नयी घटनाओं व घटनाक्रमों के 


झंझावातों के बीच कलावती नाम का पत्ता कहीं उड़ या खो सा गया था 


. फिर मैंने कभी सुना नहीं . 




अचानक एक दिन अखबार में पढ़ा -




कलावती के किसान दामाद ने कर्ज में दबे होने , कर्ज न चूका पाने 


के कारण भुखमरी से तंग आकर आत्महत्या कर ली है.


यह दूसरी बार था जब कलावती का नाम अखबार में आया था . मुझे 


हैरत नहीं हुई . हैरत मुझे तब भी नहीं हुई थी जब पहली बार कलावती 


का नाम सुर्ख़ियों में आया था . हैरत न होने की मुझे आदत पड़ चुकी है 


. जो होना है या जो कुछ हमारे नीति निर्धारकों ने तय कर रखा है उसे 


कोई टाल सकता है क्या ?




कुछ दिन और बीते और एक दिन अचानक फिर से कलावती का नाम 


अखबार के एक छोटे से कालम पर . नजर पड़ी . देखा . पढ़ा . 


उत्सुकता से . खबर थी -




कलावती की कुछ दिन पूर्व विधवा हो गयी बेटी ने कर्ज से तंग आकर 


आत्महत्या कर ली .




यह कलावती की वही बेटी थी जिसके पति ने कुछ दिन पूर्व ही इसी 


कर्ज की समस्या के चलते अपनी पत्नी को वैधव्य प्रदान कर दिया था . 




यह तीसरी बार था जब मैं कलावती का नाम अखबार में पढ़ रहा था . 


मुझे पता नहीं , कलावती का कोई बेटा था या नही , हाँ , उसका नाम 


जरूर इतिहास के पन्नों में कुछ दिनों के लिए और समाचार पत्र में 


हमेशा के लिए अंकित हो गया था.




अब , एक बार फिर , वही युवराज , निकल पड़ा है देश की 


कलावातियों की दुर्दशा पर रोने और उस दशा को सुधारने के लिए . 


वह अपने वातानुकूलित रथ पर अपने दल बल के साथ उत्तराखंड और 


पंजाब के बाद अब उत्तर प्रदेश की सड़कों पर चल पड़ा है कलावतियों के 


उद्धार के लिए और बाकि भिखारियों के दिन बहुराने को . हाँ , उसे 


लगता है कि इस उत्तर प्रदेश के बहुत से लोग भिखारियों की तरह दर 


दर ठोकर खाते और जगहों पर भूखे प्यासे पेट काम के मारे घुमते हैं 


और जगह जगह मार खाते हैं . वह भूल जाता है कि जहां इस प्रदेश के 


ये लोग मार खाते हैं वहाँ पर उसके भी लोग और सरकार है जो उनकी 


रक्षा भी नहीं कर पाती है. वो कहता है कि इनकी हालत सुधारनी है . 


वह कृषि प्रधान से कुर्षी प्रधान हो चुके इस देश के इस सबसे बड़े राज्य 


के गली मुहल्लों में सपने दिखाने के लिए अवतार की मानिंद चल पडा 


है की अगर उसके दल व मन पसंद को जनता ने स्वीकार कर लिया 


तो वह उन सबकी रातों को दिन में बदल देगा . वह बाहर घूमकर 


आया है . वह सेवाराम और बाबुरामों की तकदीर बदल देगा . बस कोई 


उसे लगाम थमा दे . देश की सबसे बड़ी कुर्सी तो उसके लिए आरक्षित 


है  लेकिन उसे सारी कुर्सियां चाहियें ताकि वह सबकी दशा सुधार सके 


. २२ सालों से इस प्रदेश को और लोग निगल गए हैं . वह सुधारेगा . 


वह भ्रष्टाचार   की शिकायत करता है पर वह टूजी पर मौन है . वह 


कहता है कि फलाना पैसा खाता है पर वह विदेशों में लाखों करोड़ 


डिपोजिट पर मौन है क्योंकि उसकी प्रिय आरक्षित कुर्सी पर बैठा 


उसकी प्रतीक्षा कर रहा उसका अपना भी मन से मौन है . वह अब 


कलावती पर भी मौन है क्योंकि अब उसके सामने एक नहीं लाखों 


कलावातियाँ हैं . उसे सबके दिन बहुराने हैं . मुझे पता नहीं 


कलावतियों के दिन बहुरेंगे या नहीं पर शायद उसके अपने दिन बहुर 


जाएँ .

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