वेलेंटाइन डे की बढ़ती लोकप्रियता पर डॉ. विशेष गुप्ता की टिप्पणी (लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)
वेलेंटाइन डे यानि प्रेम की एक दिवसीय संस्कृति का बहुरंगी बाजार अपने शबाब पर है। आर्चीज के कार्ड्स, गुलाब के फूलों का संसार, होटल, रेस्तरां, पब यहां तक कि सार्वजनिक स्थान भी अब प्रेम के बाजार की कहानी स्वत: ही बयां कर रहे हैं। इस दिवस के जश्न में मीडिया भी पीछे क्यों रहे? बहरहाल, इस वेलेंटाइन डे पर युवा वर्ग मादक बसंती हवाओं में मदमस्त है। वह रूमानी स्वप्नलोक में खोया है। आप चाहें इसे पसंद करें या न करें, यह दिवस सभी वगरें के युवाओं के लिए एक विशाल उत्सव बन चुका है। इस उत्सव का कड़वा सच यह है कि अब यह दिवस केवल उपहारों के आदान-प्रदान तथा प्रेम के मासूम पलों की साझेदारी का ही बहाना नहीं है, बल्कि यौन आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने का दिवस बन रहा है। हर वर्ष 14 फरवरी आते ही वेलेंटाइन डे के पक्ष में वैश्विक युवा संस्कृति का खुमार एवं विपक्ष में समाज की भौंहें चढ़नी शुरू हो जाती हैं। परंतु हम कभी उस विचारधारा को समझने का प्रयास नहीं करते जो इस प्रकार के दिवसों का प्रेरणाश्चोत है। यह वह विचारधारा है जो लोगों में घटते प्रेम व वात्सल्य के एहसास को उदारीकृत बाजार से प्राण वायु लेकर विस्तार देने का प्रयास करती है। 14 फरवरी के साथ सीधे तौर पर एक मान्यता यह जुड़ी है कि वेलेंटाइन नामक पादरी को उस समय के यूनानी शासक क्लाउडियस ने ईसा के मत के प्रचार के अपराध में जेल में डाल दिया और इस दिन उसे मृत्युदंड देते हुए उसका सिर धड़ से अलग कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि जिस दिन उसे मौत के घाट उतरा गया उसी रात उसकी मृत्यु से पहले उसने जेलर की बेटी को अलविदा कहते हुए पत्र लिखा था, जिसके अंत में उसने लिखा था तुम्हारा वेलेंटाइन। तभी से दंडित किए गए सेंट वेलेंटाइन के मार्मिक और अपूर्ण प्रेम की स्मृति में यह दिवस मनाया जाता है। इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वेलेंटाइन डे जैसे उत्सव हमारी स्वदेशी संस्कृति से मेल नहीं खाते। परंतु इस बेमेल संस्कृति को भारत में लाने के लिए उन्हीं नीति निर्धारकों का महत्वपूर्ण हाथ रहा है जो आज इससे बचने का प्रयास कर रहे हैं। अर्थात इसके लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। आज के बच्चे यदि अब संस्कृति को अपनाने, रेव पार्टियां आयोजित करने अथवा वेलेंटाइन डे के प्रति समर्पण करने में जो भूमिका निभा रहे हैं, उसमें परिवारों की घटती भूमिका प्रमुख रूप से उत्तरदायी है। हालांकि इसमें सेवा क्षेत्र का विस्तार भी उतना ही भागीदार है। कड़वा सत्य यह है कि बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में परिजनों की घटती भूमिकाएं, बच्चों के मध्य पारिवारिक साझेदारी एवं उनसे प्रेम करने की भावना बच्चों में प्रेममय सुख एवं सुरक्षा की भावना का संचार करती है। घर का प्रेम व वात्सल्य बच्चों में एक प्रकार की सुरक्षा का आवरण प्रदान करता है। परंतु अफसोस की बात यह है कि परिवार की भावमयी एवं वात्सल्य से ओत-प्रोत संकल्पना के पीछे छूट जाने से किशोर मन की संवेदनाएं मर रही हैं। व्यावसाियक सिनेमा व टीवी धारावाहिकों में पात्रों के चरित्र का तीन-चौथाई भाग भी प्रेम प्रसंगों से ही भरा रहता है। यही कारण है कि उन पात्रों के प्रेम प्रसंग किशोरों के जीवन को सीधे रूप में प्रभावित कर रहे हैं। इससे किशोर मन की वर्जनाएं टूट रही हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता बढ़ रही है, विवेक लुप्त हो रहा है और प्रेम के प्रसंग उनको तात्कालिक सुख की अनुभूति करा रहे हैं। यह मीडिया क्रांति का भी प्रभाव है कि इससे यौनगत आजादी का प्रसार तेजी से हुआ है तथा विवाह पूर्व यौन संबंधों की अवधारणा निरंतर विस्तार ले रही है। निश्चित ही वेलेंटाइन डे की भावना में कोई दोष नहीं है। दोष तो केवल एक दिवसीय मदनोत्सव की संस्कृति में है, जो सारी वर्जनाओं को ध्वस्त करके बाजार की संस्कृति का हिस्सा बनकर आक्रामक स्वरूप अपना रही है।
साभार :- दैनिक जागरण
1 comment:
सार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.
मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें.
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