तनिक भी तो नहीं बदली उसकी ज़िंदगी। उसके लिए रोजी-रोटी कमाने अपने गांव को छोड़कर किसी दूसरे शहर में जाने की घटना को आज भी उसकी घरवाली पराना या परइला या भाग जाना कहती है। जिस शहर जाता है वो शहर इस देस का शहर नहीं बल्कि परदेस की तरह होता है जो बहुत दूर होता है। देखिए इन लाइनों को...
छोड़ि के परइला ए संवरू, अपने विदेसवा गइला हो राम
जिस रेलगाड़ी से वह जाता है वो आज भी उस घरवाली को बैरन और सौतन की तरह दिखती है जो अपने मोहपाश में फांसकर जबरन लिए जा रही है...
रेलिया बैरन पिया को लिये जाय रे, रेलिया बैरन...
और जब वह चला गया तो जाने कब लौटेगा। साल या छह माह बाद। अगले फागुन में या दिवाली में। इस बीच में कैसे लौट कर आ सकता है। जितना कमायेगा उतने में कितने से खायेगा, कितना बचायेगा और कितने से टिकस खरीदेगा और फिर कई दिन और रात ट्रेन में गुजारते हुए अपने देस माने अपने गांव पहुंचेगा। वो तो गया और इधर बच गई गांव में उसकी घरवाली। बिरह में जलती हुई बिरहिन।
इतना पइसा कहां है जो मोबाइल खरीदे या रोज फोन करे। चिट्ठी भेजता है लेकिन अभी तक चिट्ठी भी नहीं आई। बड़ी बेचैनी है। जबसे गया है कोई हाल खबर नहीं भेजा। बस इतना तो मालूम चल जाय कि वो कुसल मंगल से है। जिंदा है। सलामत है।
जहिया से गइला पठवला ना पतिया
रहि रहि याद आवे तोहरी सूरतिया
बिरहिन बनवला हे संवरू, अपने विदेसवा गइला हे राम....
मेहरारू के पास गांव में कोई कम काम थोड़े है। भंइस, गोरू और बचवा...सबको तो देखना ही है। चारा पानी खिलाना ही है। घर में चूल्हा जलाना ही है। खेत में मजूरी करना ही है वरना अन्न कहां से आएगा पकाने खाने को। फुर्सत नहीं है। टेम नहीं मिलता। किससे कहे, किसके आगे रोये। सब के सब परेशान जीने खाने में। अइसे ही दो जून की रोटी कमाते खाते गांव में सांझ और सुबह आते जाते रहते हैं। मन ही मन सोचती रहती है। कुफुतती रहती है। दो चार मिनट का खलिहर वक्त मिलता भी है तो वो दरवाजे पर बइठ कर अगोरती रहती है। कहती किसी से नहीं है। सोचती रहती है।
और जब वो नहीं हो तो फिर कइसा साज और कइसा सिंगार। बस, ज़िंदगी की गाड़ी चलती रहती है। उमर ढलती रहती है। बचवा लोग बड़े होते रहते हैं। वो भी मजूरी में हाथ बटाने लगते हैं। एक दिन होली के सुबह सुबह वो लौट आता है। एकदम से चला आता है।
बस, उसको तो सब मिल गया ना। वो खूब मजे में खाना बनाई और इस दौरान खूब ओरहन सुनाती रही। चिट्ठी न भेजने के लिए, पइसा न पठाने के लिए, बचवा का हालचाल न पूछने के लिए...और ओरहन सुनाते सुनाते घर का हालचाल बताने लगती है। पहले खुशखबरी..बचवा केतना मजूरी लाने लगे हैं। पुराने छप्पर से बरसात का पानी चपकने से नया छप्पर डलवाने वाली बात। फिर दुख भरी बातें आ जाती हैं। वो जो बकरी थी, कइसे मरी पड़ी दिखी, एक सुबह।
वो सुनता रहता है। पर अपना किससे सुनाये। कितना दुखी रहा शहर में। पंद्रह घंटे की नोकरी। और बाकी बचे टाइम में कइस उतना दूर झोपड़पट्टी जाये जहां गांव के कइ लोग रहते हैं। और वहां भी तो रह के देख लिया। चौकी के उपर चौकी लगाकर सोते हैं और सुबह झाड़ा फिरने में कितनी लंबी लाइन लगाते हैं। बस, उसने फैक्ट्री में ही गार्डी का टाइम बिताने के बाद वहीं कहीं सो लेता था। सामने ठेलेवाले के यहां खाने के लिए बंधवा लिया था। इकट्ठे पैसे चुका देता था, पगार मिलने के बाद। कितनी बार गाली सुनी, कितनी बार डांट सही। गलती क्यों होती, भगवान जाने लेकिन वह सुन लेता क्योंकि बड़ी मुश्किल से मिली थी दरबानी। बंदूक जो रखते उनकी पगार ज्यादा थी। वहां लाठी वाले दरबान की पगार बहुते कम होती। कइसे कइसे दिन बीतता रहा और ठेला वाला खाना खा खा के शरीर गलाता रहा। अब मने मन सोच के आया है कि उधर गांवे में कुछ करेंगे। लेकिन इहां दिक्कत है कि काम कम, बेगार ज्यादा मिलत है। फिर होली बाद पंद्रह रोज, माह भर बाद जाना होगा, टरेन पकड़कर, टिकस लेकर...और फिर वो सरापेगी टिकस...
जउनसे टिकसवा से पिया मोर जइहन,
लग जाए आग टिकस जल जाये रे, रेलिया बैरन...
पर वो रुक भी सकता है। वो रोक भी रही है। यहीं रहो। भेड़ बकरी चरा लो। थोड़े कम में पेट पाल लो। लेकिन साथे रहो। इहां दिन नहीं कटता है। अउर सरीर भी तो गला लिये हो वहां जाकर। जब जी जांगर सलामत रहेगा तो समझो इहें कमा खा लेंगे। ओ पइसा का का फायदा जो सरीर गला दे। ....
तो साथियों, चलिए....आम आदमी के नाम कुछ पल दिया जाये, जिसकी चर्चा अब न कोई अखबार करता है और न कोई टीवी। आनलाइन तो आने क लाइन ह, इहां कहां चर्चा होई।
संभवतः इसी आम आदमी को केंद्र में रखकर लोकतंत्र बना है और सारे नेता इसी आम आदमी का नाम ले लेकर मुंह से फेचकुर निकालते हुए जीते खाते जीतते आगे बढ़ते जाते हैं।
इसी आम आदमी के नाम पर टीवी और अखबार छपते रहते हैं और बिकते रहते हैं। इसी आम आदमी के नाम पर रेलें चलती हैं लेकिन हर साल आम आदमी के डिब्बे बढ़ने के बजाय एसी के डिब्बे बढ़ते हैं और जनरल बोगी में आम आदमी अब भेड़ बकरी की माफिक नहीं बल्कि कीड़े मकोड़े की भांति दौड़ते चढ़ते गिरते पड़ते पहुंचते रहते हैं।
इसी आम आदमी को आगे बढ़ाने के नाम पर सारा बाजार खोला गया और सारे लाभ इन्हीं आम आदमी तक पहुंचाने की बात की जाती है।
...पर आम आदमी तो बेचारा जान ही नहीं पाता कि सके लिए इतने सारे लोग चिंतित और परेशान हैं। वो तो नीके के सीध में तब भी चलता था, अब भी चलता है। तब भी मुश्किल से जीता था, अब भी मुश्किल से जीता है।
चलो, इस आम आदमी के नाम पर फिर कुछ गला बजा लें, कुछ दिमाग लड़ा लें, कुछ गीत गा लें, कुछ बिंब गढ़ लें.....। पर वो आम आदमी तो आज भी देस और परदेस के बीच ज़िंदगी की जंग लड़ता जीता मरता रहता है।
जय भड़ास
यशवंत
3 comments:
सच लिखा भाइ जख्म हरे हो गे आपबीती सुन कर यहा परदेस मे कितनी भी अच्छी जिन्दगी जी ले लेकिन अपने देश की मिट्टी की सुगन्ध दिल से नही निकलती
यशवंत जी आपके शब्दों में अजीब स दर्द दिखा वाकई जिसका पिया जिस रेलगाड़ी से जाता है वो उसकी घरवाली को बैरन और सौतन की तरह दिखती होगी शायद आम आदनी आज बना ही है कुत्ते की तरह जीने को।आजादी आज है सिर्फ उनके पास जिनके पास पैसा है गरीब की हर जगह मौत है,आपके शब्दों में टीस है पीडा है जब ऐसी बात सामनें आती है तो लगता है हम शब्दों के सौदागर क्यों हैं ऐसे हरामखोर नेताऔं के लिए मौत के सौदागर क्यों नहीं बन सकते और में विश्वास दिलाता हूँ आपका ये भडासी कुछ ऐसा जरूर करेगा जो इस सडी गली व्यवस्था को हिलाकर रख देगा । वाकई मेरा देश महान है और साला संविधान महानता की मिसाल ,कितनी बेफिक्री है मेरे देश में जहाँ इच्छा हो मूत दो जहाँ इच्छा हो थूक दो,रिश्वत देते पकडे जाओ,रिश्वत देकर छूट जाओ।
कल भडास में आम आदमी और महान संविधान को समर्पित होगी मेरी नई गज़ल।
कल मैं अपनें चैनस के लिए बशीर बद्र साहब का साक्षातकार लेने जा रहा हूँ उनसे भडास और आम आदमी के लिए कुछ लेके आऊगा ।
मेरा पहला शेर पेशे नज़र है
लाश बन चुका गरीब,कंधे पर है उसके सलीब,
वोट फिर भी दे रहा,वाह क्या संविधान है ।
बाकी गज़ल कल लिखूँगा ।
अब बिना दुष्यंत कैसै खत्म करू
कल नुमाईश में मिला वो चीथडे पहने हुऐ,
मैनें पूछा नाम तो बोला में हिंदोस्तान हूँ ।
वास्तविक, मार्मिक, पठनीय।
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