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18.1.08

ए गणपत, चल दारू ला ....उर्फ नशे से मुक्ति

फिल्मवाले भाई भी कैसा कैसा गाना बनाते हैं। अब इसी को लीजिये। ए गणपत,चल दारू ला, कुछ सोडा वोडा दे न यार....। साला, गाना ऐसा की सुनकर ही पीने को मन कर जाय। और पी लें तो सुबह उठन को जी न करे। शाम को पी लेने से सुबह को मन में होने वाला ढेर सारा खांची भर पछतावा अलग से, क्यों पी लिया, क्यों डिग गया, क्यों निभा नहीं पा रहा, शरीर की बिलकुल चिंता नहीं, ज़िंदगी को डुबो दी है शराब में, घर परिवार की चिंता नहीं, करियर से खिलवाड़ कर रहे हो, कब सुधरोगे, रोज तो सोचते हो लेकिन शाम को अनिर्णय की स्थिति भी मयखाने पर पहुंचा कर निर्णय करा देती है...आदि आदि जैसे आंतरिक पछतावे।

सोचता हूं, ये जो मन में होने वाली ग्लानि और अंदर ही अंदर होने वाला पछतावा है, यही हमारी ताकत है। अगर ये नहीं है तो समझिए मर गए हैं। फिर तो हर चीज यांत्रिक तरीके से कर और जी रहे हैं। हर चीज पर ढेर सारी बातें सवाल व संवेदना पैदा होती है, सकारात्मक-नकारात्मक मंथन चलता रहता है, यही तो जान है। यही तो पहचान है। यही तो ताकत है।

खैर, ये सब लिखते हुए मैं सुकून महसूस कर रहा हूं क्योंकि दरअसल आज ए गणपत, चल दारू ला सुनकर भी मयखाने के पास जाकर नहीं रुका। सीधे घर आया। मटर और चूड़ा को भूनकर नाश्ता बनाया। फिर कई तरह की सब्जियां काटकर मिक्सवेज बनाया। बच्चों के साथ बातें की, होमवर्क कराया, फिर जब वो मोहल्ले में एक बच्चे के यहां बर्थडे में पार्टिशिपेट करने गये तो मैं लैपटपियाने लगा।

मजेदार तो यह कि हर नशे से बड़े नशा अब भड़ास का बन चुका है। इस नशे में जादू सा है। लगता है जैसे एक बड़ा सा अपना परिवार है जिसमें हर वक्त हलचल सी रहती है और इस हलचल को हर पल जानने की इच्छा रहती है। लेकिन भड़ास से उबरने की सायास कोशिश भी करने लगा हूं। कहीं ऐसा न हो कि दारू का नशा छूटा है तो एक नया नशा भड़ास का पकड़ लिया जाये। जीवन में हर नशे को जीना और उससे उबरकर आगे बढ़ना ही मजा है। वरना अगर किसी में डूब गये, किसी के लती बन गये तो फिर तो पक्के नशेड़ी बन गए और समझो छुट्टी हो गई। टाइप्ड नहीं होना चाहिए। जीवन में, करियर में, अनुभवों, संगत में, सोच में, संगीत में, प्रयोग में, खाने में, पीने में....किसी में भी।

चलिये, बाद में कुछ और भड़ास निकालेंगे, लेकिन आप भी तो कुछ बोलिए, लिखिए। या सिर्फ पाठक, दर्शक बने रहने का इरादा है। इस दौर में जब तकनालजी और नेट का हथियार आपके हाथ में, तो दर्शक की बजाय सर्जक बनिए और निकालिये भड़ास।

जय भड़ास
यशवंत

2 comments:

Dr Parveen Chopra said...

यशवंत जी, जय भड़ास.....आप की बलोग के शीर्षक के साथ साथ आप की ब्लाग पर आने वाले सैलानियों के अभिनंदन का अंदाज बेहद पसंद आया । मेरे दोनों बेटे तो बस भड़ास के फैन हैं......आप बिलकुल सही फरमा रहे हैं, यशवंत भाई, कि सिर्फ दर्शक ही नहीं, सर्जक भी बनिए.....आप की ब्लोग पर आकर अच्छा लगा। शीर्षक की जितनी तारीफ करूं कम हैं....indeed a very very creative endeavor. God bless you!!

विनीत उत्पल said...

sirjee, pichle sanday se akale dam par samachar patr ka front page, do aur teen number page yanee desh-videsh sahit karobar page bana raha hun. ak sathee ke pair me frakchar hai to dusre ghar khas kam se allahabad gaye hai.
sirf mere sahyogee men karykaree sampadak hai, aise men khabre lena, lagana sahit tamam kam ke bad kya aapko lagta hai, mere bhadas par likhne kee saktee rahee hotee haogee.
margdarshan kee parteeksha men.