हिंदी सिनेमा का इतिहास-5
-राजेश त्रिपाठी

पुराने दिनों में देश में पारसी थिएटर और नायक-नौटंकी की धूम थी। यही वजह है कि वर्षों तक तब की फिल्मों में ऐसी नाटकीयता देखने को मिलती थी, जैसे कोई नाटक या नौटंकी देख रहे हों। संवादों और अभिनय में नाटकों की छाप स्पष्ट नजर आती। शायद उस जमाने में निर्माता-निर्देशक दर्शकों के दिल-दिमाग में बसी अभिनय शैली से हट कर कुछ ‘नया’ करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे या फिर वे फिल्मों में मौलिकता-स्वाभाविकता लाने की बात सोच भी नहीं पाते थे। संवाद ही नहीं , फिल्म के गाने भी ऐसे गाये जाते थे, जैसे नाटकों में गाये जाते थे। आर्केस्ट्रा के नाम पर तब तबला, हारमोनियम, सारंगी, मंजीरा और बांसुरी ही हुआ करते थे और संगीत को कम तथा गायक-गायिका के स्वर को अधिक उभारा जाता था।
तब कलाकार वेतनभोगी होते थे और दोपहर में शूटिंग पैक-अप होने के बाद मिल-जुल कर स्वयं स्टूडियो में ही खाना बनाते थे। उन्हें यह चिंता नहीं थी कि लोग यह सब सुनेंगे, तो क्या कहेंगे क्योंकि वे सब ग्लैमर की दुनिया और व्यक्तिगत प्रचार से दूर, अच्छी फिल्में बनाने के लिए पूर्णतः समर्पित थे।
उन दिनों अखबारों में फिल्म के समाचारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। चित्र छपने की भी गुंजाइश नहीं थी। फिर भी कलाकारों के रोमांस के चर्चे गाहे-बगाहे पढ़ने-सुनने को मिल ही जाते थे। इन्हें लोग चटखारे लेकर पढ़ते-सुनते और दूसरों को सुनाते। अशोक कुमार के साथ देविका रानी, लीला चिटणीस ओर नलिनी जयवंत के रोमांस के चर्चे उन दिनों आम थे। (क्रमशः)
1 comment:
क्या दिन होंगे वो......
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