विभिन्नता में एकता ही भारत की विशेषता हैं : जातिगत आधार पर जनगणना कराना घातक होगा : आशुतोष
अलग अलग धर्मों को मानने वाले,अलग अलग भाषाओं को बोलने वाले,विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न जातियों के लोग दुनिया के जिस देश में एक होकर रहते हैं उसे ही भारत कहते हैं। विभिन्नता में एकता ही देश की विशेषता हैं। देश को आजाद करते वक्त अंग्रेजों ने फूट के जो बीज बोकर गये थे हालांकि वो बहुत अधिक फले फूले तो नहीं लेकिन आज भी देश के अन्दर ऐसे प्रयास करने वालों की कमी नहीं हैं फर्क है तो सिर्फ इतना कि तरीके बदल गये हैं।
देश की राजनैतिक सत्ता पर शार्ट कट से काबिज होने के राजनीतिज्ञों के प्रयासों ने देश की इन विशेषताओं को समय समय पर खंड़ित करने की कोशिशें की हैं। कभी क्षेत्रीयता के आधार पर राजनैतिक दल बनाये गये तो कभी जातीय आधार पर राजनैतिक ध्रुवीकरण किया गया और फिर सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर उन्हें भी समेटने के प्रयास किये गये जिनके खिलाफ नफरत पैदा कर जाति को एकत्रित किया गया था। भाषा के आधार पर भी राजनैतिक दलों को चलाने की कोशिशें की गईं तो कभी प्रथृक राज्य बनाने की मांगें उठी।कभी मंड़ल के नाम पर राजनीति की गई तो कभी कमंड़ल के नाम पर। हिन्दू मुसलमान के नाम पर राजनीति करने के प्रयास तो आजादी मिलने के बाद से ही चालू हो गये थे। इन सब हथकंड़ों से एक सीमित वर्ग और क्षेत्र के मतदाता को आसानी से ज्यादा प्रभावित किया जा सकता हैं क्योंकि इसमें राष्ट्रीय स्तर की सोच की आवश्यक्ता ही नहीं रहती हैं। इसीलिये आजादी के बरद अभी तक देश के कई प्रदेशों में क्षेत्रीय दलो को सत्ता पाने में सफलता मिल गई हैंं भले ही उन दलों का पंजीयन राष्ट्रीय हो लेकिन प्रभाव क्षेत्र क्षेत्रीय ही रहा हैं। अंर्तप्रान्तीय विवादों और किसी राष्ट्रीय समस्या पर ऐसे संकुचित विचार के राजनैतिक दल और राजनेता राष्ट्रीयता को क्षेत्रीयता की तुलना में खड़ा करके उसे बौना साबित करने के प्रयास करते हैं।
हिन्दू और मुसलमान के बीच राजनीति करने वालों को जब हिन्दुओं में ही अगड़ो और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच राजनीति करना ज्यादा सुविधाजनक लगा तो वे इससे भी नहीं चूके। और बाद में तो स्थिति यहां तक बन गईं कि पिछड़े वर्ग में भी जिस प्रदेश में जिस जाति विशेष का बहुमत दिखा तो बाकी पिछड़ी जातियों को छोड़ पिछड़ों के मसीहा बनने वाले नेताओ ने उस जाति विशेष के नेता बनने में कोई संकोच नहीं किया।
अभी 2010 में देश में जनगणना का काम जारी हैं। जात पात और अगड़ों पिछड़ों की राजनीति करने वाले नेताओं का एक बड़ा वर्ग जातिगत आधार पर जनगणना कराने के लिये सरकार पर दबाव बना रहा हैं। केन्द्र सरकार भी इस मामले में दो फाड़ हैं। इसलिये इस समय यह एक ज्वलन्त राष्ट्रीय मुद्दा बन गया हैं कि जातिगत आधार पर जनगणना होनी चाहिये कि नहींर्षोर्षो वर्तमान में मतदाता सूची में काफी मेहनत करने के बाद सिर्फ मुस्लिम मतदाताओं की निश्चित संख्या निकाली जा सकती हैं वो भी नामों में उजागर दिखते अन्तर के कारण। इसी में हाय तौबा मची रहती हैं। जिन क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में होते हैं उन क्षेत्रों में यह गिनती का खेल टिकिट मिलने के पहले से शुरू हो जाता हैं। पार्टियों के मुस्लिम नेता इस संख्या को बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं ताकि टिकिट मिल जाये और ना मिले तो भी मुस्लिमों को लामबन्द करके सबक सिखाया जा सके। मुस्लिम वोटरों का बटवारा कर चुनाव जीतने की रणनीति बनाने वाले दल भी इस संक्ष्या के अनुसार इन मतों के विभाजन और अपने जीतने का ताना बाना बुनने लगते हैं। यदि जातिगत आधार पर जनगणना करायी जाती हैं तो हर जाति के नागरिकों की संख्या साफ साफ दिखने लगेगी और अभी जो काम राजनैतिक दल अनुमान से करके जातिगत सन्तुलन बिठालने का काम करते हैं उन्हें और अधिक सुविधा मिल जायेगी। ऐसा होने से जातिवाद का जहर ऐसा बुरी तरह से फैल जायेगा कि समाज को एक जुट रख पाना मुश्किल हो जावेगा। ऐसे में देश के प्रजातन्त्र को बहुजन हिताय बहुजन सुखाय से सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की ओर ले जाने के प्रयासों पर कुठाराघात हो जायेगा और हम एक बार फिर उस आदम युग की ओर अग्रसित हो जायेंगें जहां जात पात के हिसाब से ही सम्मान मिला करता था।
जात पात के असर को काम करने के लिये बाबू जयप्रकाश नारायण ने देश में अपील की थी कि लोग अपना सरनेम लिखना बन्द कर दें। देश के लाखों युवकों ने उस दौरान सरनेम लिखना बन्द भी कर दिया था। लेकिन यह कितनी अफसोसजनक बात हैं कि जयप्रकाश जी के आन्दोलन से नेता बने ऐसे तमाम राजनेता ही आज जातिगत आधार पर जनगणना कराने की मांग कर रहें हैं। मेरा अपना तो यह मानना हैं कि सरकार को यह मांग सिरे से नकार देना चाहिये और सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की ओर देश के प्रजातन्त्र को आगे बढ़ाने का काम जारी रखना चाहिये।
आशुतोष वर्मा
16 शास्त्ऱी वार्ड
सिवनी म.प्र.
मो. 09425174640
अलग अलग धर्मों को मानने वाले,अलग अलग भाषाओं को बोलने वाले,विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न जातियों के लोग दुनिया के जिस देश में एक होकर रहते हैं उसे ही भारत कहते हैं। विभिन्नता में एकता ही देश की विशेषता हैं। देश को आजाद करते वक्त अंग्रेजों ने फूट के जो बीज बोकर गये थे हालांकि वो बहुत अधिक फले फूले तो नहीं लेकिन आज भी देश के अन्दर ऐसे प्रयास करने वालों की कमी नहीं हैं फर्क है तो सिर्फ इतना कि तरीके बदल गये हैं।
देश की राजनैतिक सत्ता पर शार्ट कट से काबिज होने के राजनीतिज्ञों के प्रयासों ने देश की इन विशेषताओं को समय समय पर खंड़ित करने की कोशिशें की हैं। कभी क्षेत्रीयता के आधार पर राजनैतिक दल बनाये गये तो कभी जातीय आधार पर राजनैतिक ध्रुवीकरण किया गया और फिर सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर उन्हें भी समेटने के प्रयास किये गये जिनके खिलाफ नफरत पैदा कर जाति को एकत्रित किया गया था। भाषा के आधार पर भी राजनैतिक दलों को चलाने की कोशिशें की गईं तो कभी प्रथृक राज्य बनाने की मांगें उठी।कभी मंड़ल के नाम पर राजनीति की गई तो कभी कमंड़ल के नाम पर। हिन्दू मुसलमान के नाम पर राजनीति करने के प्रयास तो आजादी मिलने के बाद से ही चालू हो गये थे। इन सब हथकंड़ों से एक सीमित वर्ग और क्षेत्र के मतदाता को आसानी से ज्यादा प्रभावित किया जा सकता हैं क्योंकि इसमें राष्ट्रीय स्तर की सोच की आवश्यक्ता ही नहीं रहती हैं। इसीलिये आजादी के बरद अभी तक देश के कई प्रदेशों में क्षेत्रीय दलो को सत्ता पाने में सफलता मिल गई हैंं भले ही उन दलों का पंजीयन राष्ट्रीय हो लेकिन प्रभाव क्षेत्र क्षेत्रीय ही रहा हैं। अंर्तप्रान्तीय विवादों और किसी राष्ट्रीय समस्या पर ऐसे संकुचित विचार के राजनैतिक दल और राजनेता राष्ट्रीयता को क्षेत्रीयता की तुलना में खड़ा करके उसे बौना साबित करने के प्रयास करते हैं।
हिन्दू और मुसलमान के बीच राजनीति करने वालों को जब हिन्दुओं में ही अगड़ो और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच राजनीति करना ज्यादा सुविधाजनक लगा तो वे इससे भी नहीं चूके। और बाद में तो स्थिति यहां तक बन गईं कि पिछड़े वर्ग में भी जिस प्रदेश में जिस जाति विशेष का बहुमत दिखा तो बाकी पिछड़ी जातियों को छोड़ पिछड़ों के मसीहा बनने वाले नेताओ ने उस जाति विशेष के नेता बनने में कोई संकोच नहीं किया।
अभी 2010 में देश में जनगणना का काम जारी हैं। जात पात और अगड़ों पिछड़ों की राजनीति करने वाले नेताओं का एक बड़ा वर्ग जातिगत आधार पर जनगणना कराने के लिये सरकार पर दबाव बना रहा हैं। केन्द्र सरकार भी इस मामले में दो फाड़ हैं। इसलिये इस समय यह एक ज्वलन्त राष्ट्रीय मुद्दा बन गया हैं कि जातिगत आधार पर जनगणना होनी चाहिये कि नहींर्षोर्षो वर्तमान में मतदाता सूची में काफी मेहनत करने के बाद सिर्फ मुस्लिम मतदाताओं की निश्चित संख्या निकाली जा सकती हैं वो भी नामों में उजागर दिखते अन्तर के कारण। इसी में हाय तौबा मची रहती हैं। जिन क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में होते हैं उन क्षेत्रों में यह गिनती का खेल टिकिट मिलने के पहले से शुरू हो जाता हैं। पार्टियों के मुस्लिम नेता इस संख्या को बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं ताकि टिकिट मिल जाये और ना मिले तो भी मुस्लिमों को लामबन्द करके सबक सिखाया जा सके। मुस्लिम वोटरों का बटवारा कर चुनाव जीतने की रणनीति बनाने वाले दल भी इस संक्ष्या के अनुसार इन मतों के विभाजन और अपने जीतने का ताना बाना बुनने लगते हैं। यदि जातिगत आधार पर जनगणना करायी जाती हैं तो हर जाति के नागरिकों की संख्या साफ साफ दिखने लगेगी और अभी जो काम राजनैतिक दल अनुमान से करके जातिगत सन्तुलन बिठालने का काम करते हैं उन्हें और अधिक सुविधा मिल जायेगी। ऐसा होने से जातिवाद का जहर ऐसा बुरी तरह से फैल जायेगा कि समाज को एक जुट रख पाना मुश्किल हो जावेगा। ऐसे में देश के प्रजातन्त्र को बहुजन हिताय बहुजन सुखाय से सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की ओर ले जाने के प्रयासों पर कुठाराघात हो जायेगा और हम एक बार फिर उस आदम युग की ओर अग्रसित हो जायेंगें जहां जात पात के हिसाब से ही सम्मान मिला करता था।
जात पात के असर को काम करने के लिये बाबू जयप्रकाश नारायण ने देश में अपील की थी कि लोग अपना सरनेम लिखना बन्द कर दें। देश के लाखों युवकों ने उस दौरान सरनेम लिखना बन्द भी कर दिया था। लेकिन यह कितनी अफसोसजनक बात हैं कि जयप्रकाश जी के आन्दोलन से नेता बने ऐसे तमाम राजनेता ही आज जातिगत आधार पर जनगणना कराने की मांग कर रहें हैं। मेरा अपना तो यह मानना हैं कि सरकार को यह मांग सिरे से नकार देना चाहिये और सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की ओर देश के प्रजातन्त्र को आगे बढ़ाने का काम जारी रखना चाहिये।
आशुतोष वर्मा
16 शास्त्ऱी वार्ड
सिवनी म.प्र.
मो. 09425174640
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