Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

3.4.11

आलोक तोमर, तुमने कर दि‍खाया- अनिल शर्मा

आलोक तोमर मलाल मत रखना, सच, तुमने कर दिखाया है। तुमने अपने छोटे से जीवन काल में अकेले वह सबकुछ कर दिखाया है जो कई पीढिय़ा एक साथ मिलकर नहीं कर सकती है। नयी पीढ़ी के पत्रकारों को पत्रकारिता की एक नई दिशा दी है, एक नई लेखन शैली और सरोकार की पत्रकारि‍ता दी है, जिसके लिए हम सब तुम्हें याद रखेंगे। तुम्हारी दी हुयी लेखन शैली की झलक भड़ास 4 मीडिया पर व तुम्हारे देहावसान के बाद अन्य अखबारों में छपे उन आलेखों में साफ नजर आयी, जो तुम्हें श्रद्धाशब्द अर्पित करने के लिए लिखे गए थे। इसे यथार्थवादी पत्रकारिता कहें तो ज्यादा उचित होगा। यह तुम्हारी ही देन है। प्रभाष जी ने भले ही इसकी नींव रखी हो, इसे अमली जामा पहनाने का श्रेय तुम्हें ही जाता है। तुमने जो शैली पत्रकारिता को दी उसके दमदार वजूद का अहसास तभी हो गया था, जब राजस्थान टुडे में छापने के लिए तुम्हारे एक लेख को संपादक की औपचारिकता निभाते हुए पढ़ रहा था और सोच रहा था कि‍ इसका प्रस्तुतिकरण किस तरह किया जाए। वह लेख था ‘मौत की भी एक सीमा रेखा होती है।’ इस लेख में तुमने कैंसर से पीडि़त होने के बावजूद कैंसर के बारे में यह कहकर सबको चौंका दिया था कि कैंसर से बड़ी आफत कैंसर का इलाज करने वाले डॉक्टर है। उनका लालच है, तभी तो तुमने यह लिखा कि आप कैंसर का इलाज कर सकते हैं, लालच का नहीं। यह आलेख किसी सनसनी से कम नहीं था, छपने के बाद मेरे कई डॉक्टर मित्र तुम्हारी हर बात सहमत थे, और डॉक्टर होते हुए भी इस आलेख के अंत में लिखी गयी तुम्हारी इस धारणा से भी...‘मैं फिर कह रहा हूं कि कैंसर का शिकार होने के बावजूद लडऩे के लिए मैं तैयार हूं लेकिन जब सवाल अपनो के अंत का आता है तो लोग सारी लड़ाईयां भूल जाते हैं और परमात्मा से लेकर लोभी आत्माओं तक से समझौता कर लेते हैंं। यह मेडिकल आतंकवाद खत्म करना जरूरी है और इसके पहले इसके सारे आयामों को पहचानना जरूरी है।’ डॉक्टरों के लालच को मेडिकल आतंकवाद का नाम देने की हि‍म्‍मत केवल तुम जैसा पत्रकार ही कर सकता हो। आलोक तोमर को दो अप्रेल को दि‍ल्‍ली में एक सभा में श्रद्धाजंलि‍ अपित की गई। मेरा आलोक तोमर से परि‍चय तकरीबन दो दशक पहले हुआ था। आलोक तोमर नाम पहली बार मेरे जब मेरे जेहन में उतरा तो ऐसा कि आज दिन तक कायम है। बात उस समय की है जब में हिन्दी दैनिक राजस्थान पत्रिका में बतौर उप संपादक काम किया करता था। एक दिन जनसत्ता में रंगीन परिशिष्ट पर आलोक तोमर का एक आलेख छपा था...‘हाशिए पर एक गांव’, यह आलेख खजूराहो पर था। खजूराहो पर शिल्प कला से हटकर भी किसी ने लिखने का सोचा तो वह आलोक तोमर ही था। लेख अच्छा था। लेखन ने प्रभावित किया। सोचा मुलाकात जरूर करूंगा। इच्छा पूरी हुयी वर्ष 1996 में डेटलाइन इंडिया के दफ्तर में, तब से लेकर जो अंतरंगता बनी, खत्म नहीं हुयी। दिल्ली की हर यात्रा के दौरान मेरा एक काम आलोक तोमर से मिलना अवश्य रहता। कभी मिलते,कभी फोन पर ही बात हो जाती। मेरा तो अनुभव यही रहा कि आलोक जैसा बोलते थे वैसा ही वे लिखते भी रहे। अपनी गलतियां सहजता से हंसते हुए स्वीकारने का माद्दा उन्हीं में नजर आया। वे पत्रकारिता को एक नई दिशा देना चाहते थे। वे मलाल को जाहिर करने में कोई गुरेज नहीं रखते थे कि वे पत्रकारिता के लिए जैसा सोचा वैसा नहीं कर पाए। इसके उलट सच तो यह है कि वे चुपके से काफी कुछ कर गए, जिसका पता न उन्हें चला और न ही दूसरो को। आलोक ने अपनी कलम से जितना प्यार किया उससे भी कहीं ज्यादा अपनी प्रेयसी पत्नी सुप्रिया व बेटी मिष्ठी से किया। इन सबके बीच वे कभी अपनी मां को नहीं भूले। 27 दिसंबर सन 60 को चंबल घाटी के भिंड में पैदा हुए आलोक तोमर मुरैना जिले के गांव रछेड़ के रहने वाले थे। माताजी एमए और बीएड करने वाली इलाके की पहली महिला रही। पिता जी आठवीं पास थे। बाद में वे भी पढ़े और जिस स्कूल में माता जी जिस स्कूल में प्रिंसिपल थीं, वहां पिताजी टीचर बने। आलोक तोमर आज हमारे बीच में नहीं है। केवल उनकी यादें ही बाकी है। उनके जाने के मायने हिन्दी पत्रकारिता की एक ताकतवर कलम का जाना है। वे हिन्दी पत्रकारिता में यथार्थवादी विचाराधारा के बीज बोने वालों में से एक थे। उन्होंने ताउम्र इस विचारधारा को नए आयाम ही दिए, उन्हें खुद चाहे किसी भी तरह का कष्ट देखना पड़ा हो, यथार्थवाद पर डटे रहे, न कभी डिगे और न ही कभी हटे। उनकी कलम ने कभी किसी सच को लिखने से इनकार नहीं किया, चाहे वह सच कितना ही पैना, डरावना या मर्माहत कर देने वाला हो। इसका एक उदाहरण आलोक तोमर की स्वलिखित स्टोरी ‘आलोक तोमर की असलियत जानिए’ है। जो अभी भी डेटलाइन इंडि‍या व शब्‍दार्थ पर कहीं है। लिखने को काफी है मगर लिख नहीं पाऊंगा। लिखने के लिए यादों के मंजर में जाना पडेगा, जो काफी पीड़ादायक है। आलोक की स्मृतियां अपनी यादों में सहेज कर रखना चाहता हूं। आलोक तोमर को श्रद्धासुमन के साथ।

1 comment:

अजित गुप्ता का कोना said...

आलोक तोमर जी का जाना नि:संदेह पत्रकारिता में शून्‍य जैसा है। उन्‍हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।