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22.4.11

जग बौराना : लोकतंत्र का तमाशा ।

लेखक: श्री नरेश मिश्र ।

न्याय के महाप्रतिष्ठान में देववाणी गूंज उठी । न्याय मंदिर में मौजूद भक्तगण देववाणी सुन कर निहाल हो गये । देवता ने धीर, गम्भीर वचन सुनाया - भक्तजनों जिस तरह महात्मा गांधी की आत्माकथा अपने घर रखने वाला गांधीवादी नहीं हो जाता, उसी तरह नक्सली साहित्य रखने वाला नक्सलवादी नहीं हो सकता है ।
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देव वचन सुनकर श्रद्धा से गदगदायेमान भक्तों ने एक स्वर से कहा - ‘सत्य वचन प्रभू, धन्य हो, आप की महिमा अपार है ।’
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न्याय के मंदिर में देवताओं की आकाशवाणी का यह पहला अवसर नहीं था । इससे पहले भी न्यायमंदिर में ‘लिवइन रिलेशन’ के बारे में निर्णय सुनाते हुए एक देवता ने कहा था - द्वापरयुग में राधाकृष्ण की जुगल जोड़ी भी साथ रहती थी । उसने लिव इन रिलेशन का मार्ग अपने भक्तों को दिखाया था ।
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न्याय मंदिर की इस देववाणी पर भी सेकुलर तबके ने ‘धन्य हो, धन्य हो’ का स्वर मुखरित किया था । राधाकृष्ण के करोड़ों भक्त मर्माहत हो कर सन्न रह गये थे, लेकिन इस मुल्क में उनकी सुनता कौन है । वे तो मुर्दे हैं । मुर्दे की छाती पर जैसे दस मन मिट्टी, वैसे सौ मन मिट्टी । मुर्दे की सेहत पर कोयी असर तो पड़ता नहीं ।
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मारना जिलाना, बंधन में जकड़ना या बंधन मुक्त करना न्याय मंदिर के देवताओं की मर्जी है । अर्जी लगाने वाले लाख दलीलें दें लेकिन मर्जी तो देवताओं की ही चलती है ।
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हमें विनायक सेन की जमानत पर कोयी ऐतराज नहीं है । देश विदेश का सारा मीडिया एकजुट हो कर विनायक सेन की हमदर्दी में लामबंद था । तमाम जाने माने तथाकथित स्वंयसेवी भी एकजुट थे । नीम पर तितलौकी तब चढ़ गयी जब बीस प्रख्यात नोबेल पुरस्कार प्राप्त महापुरूषों ने बयान जारी किया की विनायक सेन बेकसूर हैं । वे बेवजह हिंदू साम्प्रदायिकता और भगवाकरण की चक्की में पिस रहे हैं । जाहिर है कि उन नोबेल विज्ञानियों की कोयी संतान या रिश्तेदार दंतेवाड़ा में नहीं मारा गया था ।
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हम खत का मजमूं लिफाफा देख कर भांप लेते हैं । आसमान पर लिखी इबारत आसानी से पढ़ लेते हैं । हमें इल्हाम हो गया था कि विनायक सेन जमानत पर छूटेंगे । न्याय के देवता अपने भक्तों की सिंह गर्जना को आसानी से टाल नहीं सकते ।
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हम देवताओं पर उंगली उठाकर बुढ़ापे में बवाल मोल लेना नहीं चाहते । लेकिन एक सवाल हमारे दिमाग में कुलबुला रहा है । सवाल यह है कि विनायक सेन के सिलसिले में फैसला देते वक्त अहिंसा के अवतार महात्मा गांधी और दरिंदगी की जीती जागती मिसाल माओवादियों की विचारधारा को एक ही तराजू पर तौलने की क्या जरूरत आ पड़ी थी । गांधी जी के विचार पढ़कर हम गांधीवादी नहीं हो सकते लेकिन अच्छे इंसान तो बन ही सकते हैं । नक्सलियों का साहित्य पढ़ कर अच्छा भला इंसान हैवान बन सकता है ।
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गांधीवाद और नक्सलवाद के बीच छत्तीस का आंकड़ा है, ध्रूवी फासला है, तो दोनो को एक ही तराजू में तौलने की जरूरत क्यों पड़ गयी । क्या जजमेंट लिखते वक्त मिसालों का अकाल पड़ गया था ।
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फिर हमने अपने साम्प्रदायिक घुन से जर्जर दिमाग पर जोर दिया तो समझ में आया कि देश में गांधी का दमदमा आज भी गूंज रहा है । महात्मा गांधी से सोनिया गांधी तक यही नाम कांग्रेस के लिये तारणहार बन गया है । गांधी जी दो अक्टूबर को अपनी जयन्ती के दिन राजघाट पर कांग्रेस को हुकूमत करने का लाईसेंस रिन्यू करते हैं । उनकी प्रासंगिकता खत्म नहीं हो सकती ।
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हम इस मसले पर सोच ही रहे थे कि कांग्रेस के केबिनेट मंत्री सलमान खुर्शीद ने विनायक सेन की जमानत पर खुशी का इजहार कर दिया । तब हमें याद आया कि इस कांग्रेस का महात्मा गाँधी से कोयी रिश्ता नहीं है । यह सोनिया गांधी की कांग्रेस है ।
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हमें उम्मीद थी की कोयी गांधीवादी या गांधीटोपी वाला कांग्रेसी महात्मा गांधी के साहित्य और नक्सली साहित्य की तुलना पर एतराज जतायेगा, लेकिन हमारी उम्मीदें सुपुर्देखाक हो गयीं ।
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मीडिया से पता चला कि विनायक सेन बहुत बड़े समाजसेवी हैं , वे बालरोग विशेषज्ञ हैं, मुल्क के जाने माने डाक्टर हैं । हमें याद आया कि डाक्टरी पढ़ने के बाद इस पेशे से जुड़ने वाले एक शपथ लेते हैं । शपथ के दौरान वे कहते हैं कि अपने ज्ञान का सारा कौशल रोगियों की जान बचाने में समर्पित कर देंगे । हम ऐसे डॉक्टर की कल्पना भी नहीं कर सकते जो बेगुनाहों की जान लेने में आतंकवादियों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग करता हो ।
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लेकिन लोकतंत्र के अखड़े में सब कुछ जायज है । इसलिये हम विनायक सेन की जमानत का समर्थन करते हैं । लोकतंत्र का यह नाटक इसी तरह चलता रहा तो आने वले लगभग दस बरस में दिल्ली पर माओवादी हुकूमत कायम हो जायेगी । राहत की बात यह है कि हम तब तक दरिंदों की हुकूमत देखने के लिये जिंदा नहीं रहेंगे । जिन्दा रह गये तो भी कोई हर्ज नहीं है । हमें हजारों वर्ष की गुलामी सहने का अभ्यास हो गया है । पहले इस्लामी शहंशाह थे, फिर अंग्रेज बहादुर आये । अंग्रेज बहादुरों की जगह कांग्रेस बहादुरों ने दखल ले ली । अब माओवादी आयेंगे तो हमारा क्या बिगड़ जायेगा । कोऊ नृप होय, हमें का हानि । हम तो शायर का यह कलाम गुनगना कर खुश रहते हैं - महिफल उनकी, साकी उनका । आँखें अपनी, बाकी उनका ।
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हमें गांव की कहानी याद आयी । एक जाट और तेली में गहरी दोस्ती थी । तेली ने हंसी में कहा - जाट रे जाट, तेरे सिर पर खाट । जाट ने छूटते ही कहा - तेली रे तेली तेरे सिर पर कोल्हू । तेली ने आंखे नचा कर कहा - तेरे कहावत में तुक नहीं बैठी । जाट हंस पड़ा, कहा - तुक छोड़ वजन को देख । मैंने तेरे सिर पर ज्यादा वजन रख दिया ।
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सो, सहृदय पाठकों, सियासी बयान हो या अदालत का फैसला अहमियत वजन की होती है । तुक बैठने, न बैठने से कोयी फर्क नहीं पड़ता ।

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