मित्रों,मान लीजिए मेरे दरवाजे पर एक मरखंड (बदमाश) बैल बंधा हुआ है.अगर आपको उसके आसपास से गुजरने की मजबूरी है तो जाहिर है कि आप उससे एक सुरक्षित दूरी बनाकर चलिएगा.नहीं चलते हैं या फिर उसे उसकी मारक-क्षमता में होते हुए जान-बूझकर छेड़ते हैं तो जाहिर है कि आप अपनी किस्मत को अपने ही हाथों बिगाड़ना चाहते हैं.बैल तो बैल है वह तो मारेगा ही.
मित्रों,ऐसा ही कुछ हाल हमारी भारत सरकार और हमारे कथित धर्मनिरपेक्ष दलों का है.वह पहले तो असहिष्णु बांग्लादेशियों को अपने देश (घर) में घुस जाने देते हैं.फिर तात्कालिक लाभ यानि चुनाव में वोट के लिए उनके लिए राशन कार्ड,मतदाता पहचान-पत्र आदि की व्यवस्था करते हैं और जब वे बांग्लादेशी सामूहिक रूप से भारतीयों का कत्लेआम करने लगते हैं तब भी एक थेथर की तरह वे यही कहते फिरते हैं कि यह एक जातीय हिंसा है सांप्रदायिक नहीं है.मैं उन धर्मनिरपेक्षतावादियों से पूछता हूँ कि क्या असं में दंगे हिन्दू या मुस्लिम संप्रदाय की विभिन्न अन्रूनी जातियों के बीच हो रहे हैं?अगर नहीं तो फिर यह हिंसा कैसे सांप्रदायिक नहीं है?कांग्रेस के बडबोले नेता दिग्विजय सिंह इन दंगों को गुजरात के दंगों से अलग बता रहे हैं.पता नहीं उनके दावे का आधार क्या है?गुजरात दंगा जहाँ ट्रेन पर हमले से शुरू हुआ था वहीं असम के दंगों में दंगा पहले शुरू हुआ ट्रेनों पर हमले बाद में हुए.गुजरात में जहाँ हिन्दू हमलावर की भूमिका में थे और पुलिस मूकदर्शक थी वहीं असम में मुसलमान हमलावर हैं और यहाँ भी पुलिस मूकदर्शक है.
मित्रों,बांग्लादेशी घुसपैठी न सिर्फ भारत बल्कि पडोसी म्यांमार की कानून-व्यवस्था और शांति के लिए भी समस्या बन गए हैं.हाल ही में म्यांमार के मूल निवासियों की जिन रोहिंग्या मुसलमानों से हिंसक झडपें हुई थीं और फलस्वरूप कई लोग मारे गए थे वे रोहिंग्या मुसलमान कोई और नहीं बल्कि यही बांग्लादेशी घुसपैठी हैं.कई साल पहले १९९४-९५ में मैं कटिहार जिले में रहता था.तब मैं अक्सर कोढ़ा से कटिहार सड़क मार्ग से आता-जाता था और देखता था कि सड़कों के किनारे धीरे-धीरे बधिया मुसलमानों (बांग्लादेशी घुसपैठियों का स्थानीय नाम) की बस्तियां उगती जा रही थीं.मेरा फुलवडिया स्थित खेत मो. इस्राईल जोतता था जो खुद भी स्वीकार करता था कि वह एक बांग्लादेशी घुसपैठी है.बाद में १९९६ में मेरे वहां रहने के दौरान ही फुलवडिया के एक गरीब धानुक की गाय रात में चोरी हो गयी.वह धानुक जाता-चक्की कूटना जानता था.कई दिनों तक भटकने के बाद उसने अपनी गाय को उन्हीं बधिया मुसलमानों में से एक के दरवाजे पर बंधी मिली.बेचारा दौड़ा-दौड़ा थाना गया परन्तु थानेदार ने मदद नहीं की.उसकी कथित मजबूरी यह थी कि तत्कालीन राज्य सरकार ने कथित रूप से उसे इन प्यारे अंतर्राष्ट्रीय मेहमानों पर हाथ डालने से मना कर रखा था.
मित्रों,पहले तो ये बांग्लादेशी भारत में भारत-पाक युद्ध के दौरान मानवीय आपदा के मारे अतिथि बनकर आए थे फिर उन्होंने यहीं पर स्थायी रूप से डेरा-डंडा ही जमा लिया.बाद में भी वे अपने भाई-भतीजों,बेटी-दामादों आदि को सीमापार से लाने लगे.इस तरह उनकी आबादी में बुलेट की रफ़्तार से बढ़ोतरी होती गयी.वैसे तो इनका धर्म भी भारतीय मुसलमानों की तरह इस्लाम ही है लेकिन ये भारतीय मुसलमानों की तरह सर्वधर्मसमभाव और सहिष्णुता में विश्वास नहीं करते.इनका मुख्य धंधा गायवंशीय पशुओं की चोरी करना और उनकी सीमापार तस्करी करना है जिसके चलते हाजीपुर तक में भी दूध की कमी पैदा हो रही है;पशुधन की क्षति तो हो ही रही है.जबतक इनकी आबादी स्थानीय आबादी से कम होती है तब तक तो ये गाय जैसे सीधे बने रहते हैं लेकिन जैसे ही जनांकिकी का आंकड़ा बदलता है ये वही सब करना शुरू कर देते हैं जो आज वे असम में कर रहे हैं.यह भले ही इस तरह की पहली घटना है परन्तु अंतिम नहीं है.आज जो असम में हो रहा है कल वही प. बंगाल में होगा और परसों वही बिहार में.
मित्रों,दिग्विजय सिंह जैसे साईनबोर्डवाले धर्मनिरपेक्षतावादी यह तो मानते हैं कि भारत में बांग्लादेशी घुसपैठी हैं लेकिन यह भी कुतर्क देते हैं कि उनमें हिन्दू भी शामिल हैं.परन्तु वे यह नहीं बताते कि उनमें हिन्दुओं की संख्या कितनी है?क्या वे सब्जी में नमक के बराबर नहीं हैं?फिर उनकी सरकार को उन हिन्दुओं को वापस भेजने से किसने रोक रखा है?भेजना है तो सभी बांग्लादेशियों को वापस भेजो फिर चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान.अब अगर एक लाख मुसलमान घुसपैठियों पर एक हिन्दू घुसपैठी है तो क्या यह बहाना बनाने या देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए उन्हें वापस भेजने से बचने का आधार हो सकता है?
मित्रों,२००१ की जनगणना के अनुसार देश में ४ करोड़ बांग्लादेशी मौजूद थे. आईबी की ख़ुफ़िया रिपोर्ट के मुताबिक़ अभी भी भारत में करीब डेढ़ करोड़ से अधिक बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं जिसमें से ८० लाख पश्चिम बंगाल में और ५० लाख के लगभग असम में मौजूद हैं.वहीं बिहार के किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया जिलों में और झारखण्ड के साहेबगंज जिले में भी लगभग ४.५ लाख बांग्लादेशी रह रहे हैं.राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में १३ लाख बांग्लादेशी शरण लिए हुए हैं वहीं ३.७५ लाख बांग्लादेशी त्रिपुरा में डेरा डाले हैं.नागालैंड और मिजोरम भी बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए शरणस्थली बने हुए हैं.१९९१ में नागालैंड में अवैध घुसपैठियों की संख्या जहाँ २० हज़ार थी वहीं अब यह बढ़कर ८० हज़ार से अधिक हो गई है.असम के २७ जिलों में से ८ में बांग्लादेशी मुसलमान बहुसंख्यक बन चुके हैं.१९०१ से २००१ के बीच असम में मुसलामानों का अनुपात १५.०३ प्रतिशत से बढ़कर ३०.९२ प्रतिशत हो गया है.जाहिर है इन अवैध मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियों की वजह से असम सहित अन्य राज्यों का राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक ढांचा प्रभावित हो रहा है.हालात यहाँ तक बेकाबू हो चुके हैं कि ये अवैध मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठिये भारत का राशन कार्ड इस्तेमाल कर रहे हैं, चुनावों में वोट देने के अधिकार का उपयोग कर रहे हैं व सरकारी सुविधाओं का जी भर कर उपभोग कर रहे हैं और देश की राजनीतिक व्यवस्था में आई नैतिक गिरावट का जमकर फायदा उठा रहे हैं.दुनिया में भारत ही एकलौता देश है जहां अवैध नागरिकों को आसानी से वे समस्त अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाते हैं जिनके लिए देशवासियों को कार्यालयों के चक्कर लगाना पड़ते हैं.यह स्वार्थी राजनीति का नमूना नहीं तो और क्या है?
मित्रों,प्रत्येक स्थान और देश की अलग-अलग संस्कृति होती है.एक स्थान या देश से अगर दूसरे स्थान या देश में सामूहिक अप्रवासन होता है तो उससे सिर्फ खाने-पीने या पर्यावरण की या आर्थिक संसाधनों पर जोर पड़ने की समस्या ही नहीं उत्पन्न होती है बल्कि उससे सांस्कृतिक संघर्ष का भी खतरा पैदा हो जाता है.मान लीजिए और कल्पना कीजिए कि अगर भारत की आधी या चौथाई जनसंख्या ही रातोंरात अमेरिका में जा बसती है तो फिर अमेरिका का क्या हाल होगा?क्या तब अमेरिका अमेरिका रह जाएगा और भारत नहीं हो जाएगा?ठीक इसी तरह भारत के जिन जिलों में बांग्लादेशी घुसपैठी बहुमत में आ गए हैं वे भौगोलिक रूप से भले ही भारतीय हैं सांस्कृतिक रूप से भारतीय नहीं रह गए हैं.
मित्रों,आज ही खबर आई है कि तालिबान ने बांग्लादेशी अप्रवासी मुसलमानों के साथ हुई हिंसा पर नाराजगी व्यक्त करते हुए म्यांमार को आतंकी हमले की धमकी दी हैं.मतलब कि बांग्लादेशी घुसपैठ एक स्थानीय या एकदेशीय सामान्य नहीं है बल्कि "पैन इस्लामिकवाद" में विश्वास रखनेवाले उन सभी लोगों द्वारा रचा गया सुनियोजित षड्यंत्र है जो दुनिया के कई देशों में निवास कर रहे हैं.अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम असम के दंगों से शिक्षा लेते हैं या नहीं.आनेवाले खतरे को भाँपते हुए बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस भेजने के पिछले कई दशकों में दी गए सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न आदेशों पर अमल करते हैं (म्यांमार ने हाल के दंगों से सबक लेते हुए बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस बांग्लादेश भेजना शुरू कर भी दिया है.) या फिर शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सिर छिपाकर यह सोंचने में लग जाते हैं कि खतरा खुद ही टल जाएगा.वैसे यह खतरा खुद-ब-खुद टलनेवाला नहीं है बल्कि दिन-ब-दिन भयावह स्वरुप अख्तियार करते जानेवाला है.
No comments:
Post a Comment