देश के इतिहास में कदाचित पहली बार राष्ट्रपति जैसे गरिमापूर्ण पद के चुनाव में इतनी छीछालेदर हुई है। हालांकि चुनाव की सीधी टक्कर में पी ए संगमा को स्वाभाविक रूप से चुनाव प्रचार के दौरान बयानबाजी करने का अधिकार था, मगर उन्होंने जिस तरह स्तर से नीचे जा कर प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी पर हमले किए, उससे दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र शर्मसार हुआ है। अफसोसनाक बात है कि लोकतंत्र के तहत मिले अधिकारों का उपयोग करते हुए वे अब भी इस चुनाव को लेकर सियापा जारी रखे हुए हैं। वे जानते हैं कि होना जाना कुछ नहीं है, मगर कम से कम मीडिया की हैड लाइंस में तो बने ही रहेंगे।
असल में वे जानते थे कि नंबर गेम में वे कहीं नहीं ठहरते, बावजूद इसके मैदान में उतरे और वास्तविकता के धरातल को नजरअंदाज कर किसी चमत्कार से जीतने का दावा करते रहे। न वह चमत्कार होना था और न हुआ, मगर राष्ट्रपति पद जैसे अहम चुनाव को जिस तरह से नौटंकी करते हुए उन्होंने लड़ा, उससे न केवल इस पद की गरिमा पर आंच आई, संगमा का घटियापन भी उभर आया। कभी घटिया बयानबाजी तो कभी ढ़ोल बजाते हुए चुनाव प्रचार के लिए निकल कर उन्होंने इस चुनाव को पार्षद के चुनाव सरीखा कर दिया। माना कि भारत की राजनीति में जातिवाद का बोलबाला है और जाति समूह को संतुष्ट करने की कोशिशें की जाती रहीं हैं, मगर संगमा ने इसे एक आदिवासी को राष्ट्रपति पद पर पहुंचाने की मुहिम बना कर नए पैमाने बनाने की कुत्सित कोशिश की। और यही वजह रही कि विपक्षी गठबंधन एनडीए के कई घटकों तक ने उन्हें समर्थन देना मुनासिब नहीं समझा।
असल में संगमा इससे पहले भी अपनी स्वार्थपरक और घटिया सोच का प्रदर्शन कर चुके हैं। स्वार्थ की खातिर राजनीति में लोग किस कदर गिर जाते हैं, इसका नमूना वे पहले भी पेश कर चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा बना कर लंबी-चौड़ी बहस करने वाले और फिर सिर्फ इसी मुद्दे पर कांग्रेस से अलग हो कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले संगमा ने सोनिया से बाद में जिस तरह से माफी मांगी, कदाचित उन्हीं जैसों के लिए थूक कर चाटने वाली कहावत बनी है। उन्होंने न केवल माफी मांगी, अपितु साथ में निर्लज्जता से यह और कह दिया कि विदेशी मूल का अब कोई मुद्दा ही नहीं है। संगमा के बदले हुए रवैये को सब समझ रहे थे कि यकायक उनका हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था। उन्हें अचानक माफी मांगने की क्या सूझी थी? जाहिर है वे अपनी बेटी अगाथा संगमा को केन्द्र सरकार में मंत्री बनाए जाने से बेहद अभिभूत थे। यानि जैसे ही आपका स्वार्थ पूरा हुआ और आपके सारे सिद्धांत हवा हो गए।
संगमा के बयान से सवाल उठता है कि क्या कभी इस तरह मुद्दे समाप्त होते हैं। मुद्दा समाप्त कैसे हो गया, वह तो मौजूद है ही न। चलो एक बार सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनीं, कल कोई और विदेशी मूल का व्यक्ति बन सकता है। तब भी तो आपकी विचारधारा वाले सवाल उठाएंगे। यानि कि मुद्दा समाप्त नहीं होगा। मुद्दा तो जारी ही है, तभी तो केवल सोनिया का विरोध करके कांग्रेस से अलग होने के बाद अब भी कांग्रेस से अलग ही बने हुए हैं। लौटे नहीं हैं। इस यूं भी समझा जा सकता है कि सोनिया के प्रधानमंत्री नहीं बनने के साथ यदि मुद्दा समाप्त हो गया है तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में अब कोई फर्क नहीं रह गया है। केवल सोनिया को प्रधानमंत्री न बनाने की मांग को लेकर ही तो आप अलग हुए थे। जब आपकी मंशा पूरी हो गई तो आपको कांग्रेस के चले जाना चाहिए। और यह मंशा तो तभी पूरी हो गई थी। क्या बेटी के मंत्री बनने पर अक्ल आई?
वैसे अकेले संगमा ने ही नहीं, टीम अन्ना के सेनापति अरविंद केजरीवाल ने भी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ कर बयानबाजी जारी रखी है। भले ही टीम अन्ना से जुड़े लोग तर्क के आधार पर जायज ठहराएं, मगर इससे राष्ट्रपति के गरिमापूर्ण पद पर तो आंच आई ही है। केजरीवाल आज राजनीति की गंदगी की वजह से लोकतंत्र के स्वरूप को घटिया करार दे रहे हैं, मगर ये उसी लोकतंत्र की विशालता ही है कि आप सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को गाली बक कर रहे हैं और आपका कुछ नहीं बिगड़ रहा। उलटे इतने बड़े पद हमला करके अपने आप को महान समझ रहे होंगे। और कोई तंत्र होता तो आपको गोली से उड़ा दिया जाता। अफसोस, लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का अधिकार हमें न जाने और क्या दिखाएगा?
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
असल में वे जानते थे कि नंबर गेम में वे कहीं नहीं ठहरते, बावजूद इसके मैदान में उतरे और वास्तविकता के धरातल को नजरअंदाज कर किसी चमत्कार से जीतने का दावा करते रहे। न वह चमत्कार होना था और न हुआ, मगर राष्ट्रपति पद जैसे अहम चुनाव को जिस तरह से नौटंकी करते हुए उन्होंने लड़ा, उससे न केवल इस पद की गरिमा पर आंच आई, संगमा का घटियापन भी उभर आया। कभी घटिया बयानबाजी तो कभी ढ़ोल बजाते हुए चुनाव प्रचार के लिए निकल कर उन्होंने इस चुनाव को पार्षद के चुनाव सरीखा कर दिया। माना कि भारत की राजनीति में जातिवाद का बोलबाला है और जाति समूह को संतुष्ट करने की कोशिशें की जाती रहीं हैं, मगर संगमा ने इसे एक आदिवासी को राष्ट्रपति पद पर पहुंचाने की मुहिम बना कर नए पैमाने बनाने की कुत्सित कोशिश की। और यही वजह रही कि विपक्षी गठबंधन एनडीए के कई घटकों तक ने उन्हें समर्थन देना मुनासिब नहीं समझा।
असल में संगमा इससे पहले भी अपनी स्वार्थपरक और घटिया सोच का प्रदर्शन कर चुके हैं। स्वार्थ की खातिर राजनीति में लोग किस कदर गिर जाते हैं, इसका नमूना वे पहले भी पेश कर चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा बना कर लंबी-चौड़ी बहस करने वाले और फिर सिर्फ इसी मुद्दे पर कांग्रेस से अलग हो कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले संगमा ने सोनिया से बाद में जिस तरह से माफी मांगी, कदाचित उन्हीं जैसों के लिए थूक कर चाटने वाली कहावत बनी है। उन्होंने न केवल माफी मांगी, अपितु साथ में निर्लज्जता से यह और कह दिया कि विदेशी मूल का अब कोई मुद्दा ही नहीं है। संगमा के बदले हुए रवैये को सब समझ रहे थे कि यकायक उनका हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था। उन्हें अचानक माफी मांगने की क्या सूझी थी? जाहिर है वे अपनी बेटी अगाथा संगमा को केन्द्र सरकार में मंत्री बनाए जाने से बेहद अभिभूत थे। यानि जैसे ही आपका स्वार्थ पूरा हुआ और आपके सारे सिद्धांत हवा हो गए।
संगमा के बयान से सवाल उठता है कि क्या कभी इस तरह मुद्दे समाप्त होते हैं। मुद्दा समाप्त कैसे हो गया, वह तो मौजूद है ही न। चलो एक बार सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनीं, कल कोई और विदेशी मूल का व्यक्ति बन सकता है। तब भी तो आपकी विचारधारा वाले सवाल उठाएंगे। यानि कि मुद्दा समाप्त नहीं होगा। मुद्दा तो जारी ही है, तभी तो केवल सोनिया का विरोध करके कांग्रेस से अलग होने के बाद अब भी कांग्रेस से अलग ही बने हुए हैं। लौटे नहीं हैं। इस यूं भी समझा जा सकता है कि सोनिया के प्रधानमंत्री नहीं बनने के साथ यदि मुद्दा समाप्त हो गया है तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में अब कोई फर्क नहीं रह गया है। केवल सोनिया को प्रधानमंत्री न बनाने की मांग को लेकर ही तो आप अलग हुए थे। जब आपकी मंशा पूरी हो गई तो आपको कांग्रेस के चले जाना चाहिए। और यह मंशा तो तभी पूरी हो गई थी। क्या बेटी के मंत्री बनने पर अक्ल आई?
वैसे अकेले संगमा ने ही नहीं, टीम अन्ना के सेनापति अरविंद केजरीवाल ने भी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ कर बयानबाजी जारी रखी है। भले ही टीम अन्ना से जुड़े लोग तर्क के आधार पर जायज ठहराएं, मगर इससे राष्ट्रपति के गरिमापूर्ण पद पर तो आंच आई ही है। केजरीवाल आज राजनीति की गंदगी की वजह से लोकतंत्र के स्वरूप को घटिया करार दे रहे हैं, मगर ये उसी लोकतंत्र की विशालता ही है कि आप सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को गाली बक कर रहे हैं और आपका कुछ नहीं बिगड़ रहा। उलटे इतने बड़े पद हमला करके अपने आप को महान समझ रहे होंगे। और कोई तंत्र होता तो आपको गोली से उड़ा दिया जाता। अफसोस, लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का अधिकार हमें न जाने और क्या दिखाएगा?
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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