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5.12.21

मीडिया का यह सच अगर कॉलेजों में बता दिया जाए तो पत्रकारों की भड़ास न निकले

 Aman Rathaur
journalist.aman.rathaur@gmail.com

मीडिया में काम कर रहे लोगों के व्यवसायिक जीवन की अनुभूति और असलियत में जमीन-आसमान का अंतर है। हाईलेवल पर्सनालिटी के लोगों के साथ उठना-बैठना, पत्रकारिता से राजनेताओं और बयूरोक्रेट्स को अपनी मुट्ठी में रखना। अलग-अलग कई शाखाओं और पदों पर काम करने का अनुभव; रोज नई चुनोतियों का सामना करके कुछ सीखना; अच्छा खासा पैसा और हाथ मे पावर, अक्सर पत्रकारों की ऐसी ही छवि लोग बनाते है। पर जिस प्रकार अभिनेता पर्दे पर कुछ तथा असलियत में अलग होते हैं। वैसे ही पत्रकार कैमरे के आगे और पीछे काफी अलग होता है।


कैसी होती है नौसिखिया पत्रकारों की जिंदगी, समस्याएं उठा देतीं हैं शिक्षा पर सवाल

पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी कर के आने वाले बच्चों को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। नामी कॉलेज से पढ़ने के बाद, प्रक्टिअल्स में अच्छे अंक पाने के बाद भी बच्चों को काफ़ी संघर्ष झेलना होता है। पहले तो पत्रकारिता में बैकडोर एंट्री की समस्या; बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के बाद भी आप मीडिया में नौकरी नही पा पाते आपका आत्मविश्वास डगमगा उठता है। और किसी प्रकार एंट्री मिल भी जाए तो कुछ समझ नहीं आता, कॉलेज में पढ़ाए जाने वाले प्रक्टिअल्स और वास्तविकता दोनो में काफी अंतर होता है; कॉलेज में आपको न्यूज़ लिखना सिखाया जाता है पर वहां आपको न्यूज़ बेचने को कहा जाता है। मीडिया की उत्पत्ति बदलाओ के लिए हुए थी आप भी खुद को क्रांतिकारी की भांति पूरी निष्ठा से फील्ड में उतारते हैं। ऐसे में जब असलियत से सामना होता है तो मीडिया में फैली गंदगी आपकी जान भी ले सकती है, यहां पर आपको खबरे  उजागर नही करना होता। आपको खबरे बनाने को बोला जाता है; वोभी एजेंडा को ध्यान में रखते हुए। पीआर और पत्रकारिता मीडिया की दो अलग-अलग शाखाओं के रूप में पढ़ाए जातें है परंतु दोनों में परस्पर मेल देख कर आपको मीडिया का वर्तमान रूप समझ आएगा।

नौकरी मिल गई कुछ समय में सब सीख लिया फिर भी दिक्कतें कम नहीं होती

जीवन का अर्थ रोटी, कपड़ा, मकान है इसी उपलक्ष में सब भूल कर आप एक भावी पत्रकार के सामाजिक दायित्व, मीडिया के एथिक्स और अपनी खुद की वैल्यूज को दर किनार कर के, मीडिया के वास्तविक समीकरण में खुद को ढाल लेते हैं। बड़ा संस्थान हो या छोटा, मीडिया में उपयुक्त समय पर भत्ता मिलना; किसी फिक्शनल किताब की परिकल्पना के जैसा है। ऐसे में तारीख पे तारीख ऐसी प्रतीत होतीं हैं जैसे हम अपराधी हो और बार बार पेशी की डेट मिल रही है। 24×7 काम करना, थोड़े से पैसों में कुछ भी बचा न पाना, साथ ही नौकरी बचाए रखने के लिए रोज कुछ न कुछ सीखते रखना, कैमरे पर चीखना पर वास्तव में अपने शब्दों को पैसे के पीछे बांध लेना, मीडिया का यह वास्तविक रूप अगर कॉलेजों में बता दिया जाए तो पत्रकारों की मीडिया पर भड़ास न निकले।

लेखक : अमन राठौर, 8470843083

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