कल शाम मैं बडे उत्साह से टी.टी.नगर में लगे पुस्तक मेले में गया। हाथ में एक सूची ले रखी थी कि फलां फलां पुस्तकें खरीदनी हैं। लेकिन पहला झटका मेले के गेट पर ही लगा जब 'प्रथम ग्रास मछिका पात , की तर्ज पर देखा कि ३ रुपये वाली टिकट की कीमत सुधार कर ५ रुपये कर दी गयी है.खैर जनाब मेले में प्रवेश किया.अब बारी थी और अधिक निराश होने की। मेले में इक्का-दुक्का ही अच्छे प्रकाशकों के स्टाल थे वरना तो आधा मेला 'मैनेजमेन्ट गुरु' बनाने वाले प्रकाशकों ने हाइजैक कर रखा था। जिन स्टालों का भ्रमण किया वहाँ पाया कि साड़ी कूड़ा किताबें मेज पर सजी हैं और क्लासिक्स मेज के नीचे शर्मिंदा से छिपे बैठे हैं। बेचारों को पुचकार के बाहर निकालने की कोशिश की तो स्टाल मालिक ने आपत्ति कर दी कि 'साहब आप तो देख के चले जायेंगे फिर इन्हें टेबल के नीचे घुस के जमाएगा कौन?'
सारा मेला भोपाल के प्रतिष्ठित एन.जी.ओ.धारकों से घिरा हुआ था.ये फर्जी बुद्धिजीवी चेहरे पर गंभीरता का लबादा ओढे इस फिराक में घूम रहे थे कि कोई उन्हें यहाँ देख ले तो आना सफल हो जाये.खैर..घूमते घूमते एक स्टाल सेकेंड हैण्ड किताबों का दिखा, जहाँ पचास प्रतिशत की छूट थी.वहाँ गया तो ढेरों रूसी लिटरेचर फेंका हुआ सा रखा था , १६ किताबें छाँट कर जब काउंटर पहुंच के बिल बनवाना शुरू किया तो पाया कि सभी किताबों की मूल कीमत ५,१० रुपये को सुधार कर ४०-६० कर दिया गया था। बहस karane पर taka सा जवाब मिला कि लेना है तो लो नही तो....सच उस दिन लगा कि soviat sangh का vikhandan naa होता तो ही ठीक था .
26.11.07
राष्ट्रीय पुस्तक मेला, भोपाल
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