विनोद शुक्ला। लखनऊ। दैनिक जागरण। हिंदी पत्रकारिता। जी हां, बात कर रहे हैं लखनऊ दैनिक जागरण के सर्वेसर्वा रहे विनोद भइया की। प्यार से लोग भइया कहते हैं। एक दोस्त ने सूचना दी कि उन्होंने सक्रिय मीडिया जीवन से विदाई ले ली है। ऐसा बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य संबंधी वजह से। अब जीवन के उत्तरार्ध में नई पारी शुरू करेंगे।
पहले पहल तो विश्वास नहीं हुआ। कहीं, यह खबर भी उसी तरह की अफवाहों की तरह तो नहीं जिसमें पत्रकारिता के तमाम बड़े लोगों को लेकर गाहे बगाहे बातें बनाई या फैलाई जाती हैं। बाद में एक और वरिष्ठ साथी से कनफर्म किया तो उन्होंने कहां कि हां, ये बात सच है। एक सादगी भरे समारोह में उनके चाहने वालों और उनसे जुड़े लोगों ने उन्हें भावभीनी विदाई दी।
मैं एकदम से खुद के उस दौर में पहुंच गया जब मैं लखनऊ में पहुंचा था, नौकरी करने। बीएचयू से पत्रकारिता का कोर्स पूरा ही किया था तब। अनिल यादव जी ने अपने यहां रहने, खाने और जीने का मौका दिया था। तब कई अखबारों में फ्री लांस लिखने के साथ साथ नाटक वगैरह भी किया करता। बाद में जब नौकरीर करने का इरादा किया तो कहीं बात बनती नहीं दिखी। तब अपने बड़े भाई और गार्जियन सरीखे अनेहस शाश्वत ने रुपये दिये, ताकि दूसरे शहरों में अखबारों के दफ्तरों में जाकर ट्रेनी की नौकरी खोज सकूं। पर हर जगह निराशा हाथ लगी। फिर लखनऊ लौट आया।
बाद में गिरीश मिश्रा जी की वजह से दैनिक जागरण, लखनऊ में 1500 रुपये की ट्रेनी की नौकरी मिली। वहां लगभग आठ महीने रहा लेकिन उतने ही दिनों में अखबार के अंदर के काम का जानकार बन गया। खबर बनाने, अनुवाद करने, पेज लगवाने से लेकर एडीशन निकालने तक। गिरीश मिश्रा जी, वंदना दीदी, विष्णु त्रिपाठी, प्रदीप मिश्रा, हेमंत तिवारी....लंबी लिस्ट है, जिनसे उन दिनों कामकाज करना सीखा।
उन्हीं आठ दस महीनों में विनोद भइया के व्यक्तित्व व उनकी उपलब्धियों से रूबरू हुआ। किस तरह लखनऊ में दैनिक जागरण को शून्य से शिखर पर पहुंचाया और एक ऐसा ट्रेंड व स्टाइल बनाया जिसे दूसरे अखबार फालो करने के लिए बाध्य होते। लखनऊ और आसपास के जिलों में कई दशकों तक नंबर वन पोजीशन बनाए दैनिक जागरण की सफलता का श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को जाता है तो वो हैं विनोद भइया। दबंग व प्रभावशाली व्यक्तित्तव, उतने ही मानवीय, रीयलिस्टिक, तीखी समझबूझ वाले, विजुलाइजर.....। ढेरों बातें कहीं की जा सकती हैं उनके बारे में। मैनेजमेंट का गुण कोई उनसे सीखे, पत्रकारिता की समझ कोई उनसे सीखे, प्रोडक्ट को बेचना और नंबर वन बनाना कोई उनसे सीखे, आम आदमी की संवेदना और स्टाइल को कोई उनसे समझे, न्यूज की परिभाषा कोई उनसे सुने.....।
जब मैं आईनेक्स्ट कानपुर में था तो उनसे दोबारा मिलना जुलना हुआ। बिलकुल साफ विजन व फंडे वाले। कहीं कोई कनफ्यूजन नहीं। संपादकीय, प्रसार, मार्केटिंग, बिजनेस.....हर विभाग पर अद्भुत पकड़। नेतृत्व क्षमता ऐसी कि वो आफिस में हो या न हों, सब कुछ उन्हें पता चलता रहता था।
सत्ता से जब टकराये तो उसे झुका के माना। जो चीज चाहा, उसे हासिल किया। जब गुस्साये तो ऐसे कि सामने वाला जितना बड़ा हो, उसे उखाड़ने में लग जाते। जब कृपालु हुवे तो ऐसे कि तुरंत सड़क से शिखर तक पहुंचा दिया.....।
हर आदमी में कमी होती है, उनमें भी है। पर वो कमियां उनकी सफलताओं के शतांश भी नहीं। जब कोई ऊंचाई पर जाता है तो उसके प्रशंसक भी होते हैं और आलोचक भी।
आज जब उनकी विदाई की सूचना मिली तो मुझे लगा, कि उनको जरूर भड़ास की तरफ से नई पारी के लिए शुभकामनाएं दे देनी चाहिए।
आप भड़ासियों में से कई लोग ऐसे होंगे जिन्होंने विनोद भइया से सीखा होगा, उनके नेतृत्व में काम किया होगा, उनकी बदौलत पत्रकारिता में आगे बढ़े होंगे। मैं चाहूंगा कि विनोद भइया से जुड़े अपने संस्मरण भड़ास पर जरूर डालें ताकि उस व्यक्तित्व की उपलब्धियों को पूरी दुनिया के सामने लाया जा सके।
जय भड़ास
यशवंत
20.1.08
भइया की विदाई
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh
Labels: इधर-उधर, मीडिया, विदाई, विनोद भइया, संस्मरण
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5 comments:
मित्र, मन का भंडास निकल जाए तो राहत महसूस होती है. आपके ब्लाग पर आज ठहरकर कुछ ऐसा ही महसूस हुआ. छत्तीसगढ़ के तमाम नामी अखबारों में ओहदेदार होने का अहसास कराने वाले पदों पर 20 साल से ज्यादा वक्त गुजारने के बाद तय कर लिया कि अब सब छोड़कर ब्लाग मंडली में दोस्त बनाए जाएं. कभी यहां आकर देखें www.cgreports.blogspot.com
राजेश
मैं जब आई-नेक्स्ट लखनऊ में आया तो विनोद शुक्ला के प्रति मेरे मन में तमाम किस्म के पूर्वाग्रह थे. ज्वाइन करते ही जब यह पता चला कि बहुत निजी किस्म की पसंद-नापसंद से (मसलन मैं किसका भाई हूं..) उन्होंने मेरी ज्वाइनिंग पर सख्त ऐतराज जताया और लगातार इस कोशिश में रहे कि इस नए बच्चा अखबार और उससे जुड़े़ लोगों को कैसे औकात में लाया जाए. खास तौर पर मैं छिपे तौर पर उनके निशाने पर रहा. आई-नेक्स्ट में आते ही जिम्मेदारियों का मानों पहाड़ टूट पड़ा. मैं डेस्क इंचार्ज था और हमारी एडीटर को उस समय तक हिन्दी पत्रकारिता के दावं-पेंच जरा भी नहीं पता थे. सो जो कुछ भी छपता उसका जिम्मेदार एक तरह से मैं ही था. शुक्ला जी कई बार आक्रामक रुख में आए. मुझे उनकी आक्रामकता से ज्यादा उनकी बदतमीजियों से (जिसकी मैं बहुत चर्चा सुन चुका था) से परहेज था. शायद यदि उनके उस रूप से पाला पड़ता तो मेरे पास नौकरी छोड़ने का ही चारा बचता. मगर दो बातें हुईं- एक तो उनसे मेरी मुठभेड़ बहुत कम हुई और जब भी हुई उन्होंने मुझसे मेरे बारे में कुछ नहीं पूछा और बेटा कहकर ही संबोधित किया. इतने दिनों में उनके तौर-तरीके देखकर मैं कई मायनों में उनसे प्रभावित हुआ. खास तौर पर क्षेत्रीय अखबार की उन्हें गहरी समझ थी. उन्हें खबरों की और खबरों को बेचने की समझ थी. उन्हें वह जज्बा भी था जो नई चीजों से उन्हें जोड़े रखता था. नई चीजों की आलोचना करने का उनके भीतर हौसला था. वे किसी के प्रभाव में जल्दी नहीं आते थे और अपने ठेठ देसी अंदाज में अंग्रेजी बोलने वालों के बीच खुद को रखते थे. शायद वे एक बड़े पत्रकार बन सकते थे मगर जैसा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में और खासकर वहां के सवर्णों के साथ होता है धुर किस्म के जातिवादी आग्रहों ने उन्हें ऐसा नहीं बनने दिया. व्यक्ति पूजा में मेरी कभी आस्था नहीं रही और ब्राह्मणवाद से घोषित रूप से चिढ़ मगर उनकी मौलिक और प्रैक्टिकल सोच का मैं कायल अवश्य हो गया.
Dinesh Shrinet
उफ, विनोद शुक्ल उर्फ भइया नहीं रहे। यकीन नहीं हो रहा। पिछले साल लखनऊ से राजू ने पंकज बिहारी को मेरे यहां भिजवाया था। तब सबके बारे में खूब चरचा हुई थी। पंकज ने बताया था भइया बीमार रहते हैं। हालांकिभइया से मेरा कोई सीधा नाता नहीं है. लेकिन उनके दर्शन दो बार हुए हैं। एक बार लखनऊ में राजू के घर रुका था तब। राजू आज कानपुर से ही भइया के साथ जागरण में आया था। इस दौरान हजरतगंज कोतवाली के सामने वाले दफ्तर में भइया से मिला था। दूसरी मुलाकात राजू की शादी में हुई थी। भइया पूरे तामझाम के साथ बारात में पहुंचे थे। वह बकायदा पगंत में बैठे थे भोजन के लिए। उनके कहने पर रामकरेला की सब्जी तत्काल तैयार कराई गई थी।
हमलोगों ने उन्हें बचपन से पढ़ा है। कभी आज में तो कभी जागरण में...। उनके न रहने पर सिर्फ और सिर्फ विनम्र श्रद्धाजंलि...। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे। बच्चों को इस सदमे को बर्दाश्त करने की हिम्मत दे.....।
उफ, विनोद शुक्ल उर्फ भइया नहीं रहे। यकीन नहीं हो रहा। पिछले साल लखनऊ से राजू ने पंकज बिहारी को मेरे यहां भिजवाया था। तब सबके बारे में खूब चरचा हुई थी। पंकज ने बताया था भइया बीमार रहते हैं। हालांकिभइया से मेरा कोई सीधा नाता नहीं है. लेकिन उनके दर्शन दो बार हुए हैं। एक बार लखनऊ में राजू के घर रुका था तब। राजू आज कानपुर से ही भइया के साथ जागरण में आया था। इस दौरान हजरतगंज कोतवाली के सामने वाले दफ्तर में भइया से मिला था। दूसरी मुलाकात राजू की शादी में हुई थी। भइया पूरे तामझाम के साथ बारात में पहुंचे थे। वह बकायदा पगंत में बैठे थे भोजन के लिए। उनके कहने पर रामकरेला की सब्जी तत्काल तैयार कराई गई थी।
हमलोगों ने उन्हें बचपन से पढ़ा है। कभी आज में तो कभी जागरण में...। उनके न रहने पर सिर्फ और सिर्फ विनम्र श्रद्धाजंलि...। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे। बच्चों को इस सदमे को बर्दाश्त करने की हिम्मत दे.....।
उफ, विनोद शुक्ल उर्फ भइया नहीं रहे। यकीन नहीं हो रहा। पिछले साल लखनऊ से राजू ने पंकज बिहारी को मेरे यहां भिजवाया था। तब सबके बारे में खूब चरचा हुई थी। पंकज ने बताया था भइया बीमार रहते हैं। हालांकिभइया से मेरा कोई सीधा नाता नहीं है. लेकिन उनके दर्शन दो बार हुए हैं। एक बार लखनऊ में राजू के घर रुका था तब। राजू आज कानपुर से ही भइया के साथ जागरण में आया था। इस दौरान हजरतगंज कोतवाली के सामने वाले दफ्तर में भइया से मिला था। दूसरी मुलाकात राजू की शादी में हुई थी। भइया पूरे तामझाम के साथ बारात में पहुंचे थे। वह बकायदा पगंत में बैठे थे भोजन के लिए। उनके कहने पर रामकरेला की सब्जी तत्काल तैयार कराई गई थी।
हमलोगों ने उन्हें बचपन से पढ़ा है। कभी आज में तो कभी जागरण में...। उनके न रहने पर सिर्फ और सिर्फ विनम्र श्रद्धाजंलि...। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे। बच्चों को इस सदमे को बर्दाश्त करने की हिम्मत दे.....।
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