आदमी अकेला नहीं जी सकता। उसकी जिंदगी धरती के अन्य प्राणियों से बेतरह जुड़ी हुई है। वह बहुत खतरनाक समय होगा, जब धरती पर केवल आदमी बच जायेगा। यद्यपि इस तरह की कल्पना की अभी कोई गुंजाइश नहीं दिखती लेकिन हम धीरे-धीरे उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। दरअसल आदमी बहुत स्वार्थी हो गया है। वह सिर्फ और सिर्फ अपनी चिंता करता है। बाकी जीवधारियों की चिंता के लिए उसके पास वक्त नहीं है।
सभी जानते हैं कि पर्यावरण में हर प्राणी की अपनी जगह है और कोई न कोई महत्वपूर्ण भूमिका उसे मिली हुई है। बहुत सारे पक्षी और छोटे उड़ने वाले जीव फलों और बीजों को दूर तक ले जाते हैं और इस तरह प्रकृति की विविधता के विस्तार में सहायक होते हैं। अनेक जानवर आदमी द्वारा इकट्ठे किये गये कूड़े-कचरे को साफ करते हैं, वह उनकी भोजन की कड़ी के रूप में इस्तेमाल होता है। कई पशु-पक्षी मरे हुए जानवरों को खाते हैं और इस तरह वे वातावरण को संतुलित रखने में मदद करते हैं। कई कीड़े ऐसे होते हैं जो जमीन की उर्वरा बढ़ाने में सहायक होते हैं और इस तरह आदमी की खाद्यान्न समस्या हल करने में मदद करते हैं।
ध्यान से देखें तो प्रकृति ने सभी प्राणियों के जीवन में अन्योन्याश्रय का संबंध बना रखा है। सृजन और विनाश की जो प्रक्रिया प्रकृति में निरंतर चलती रहती है, वह बड़ी ही अद्भुत है। जंगल में एक जानवर मरता है तो उसके शरीर से अनेक जानवर पोषण प्राप्त करते हैं। हड्डियों से चिपका जो कुछ थोड़ा-बहुत बच जाता है, उस पर छोटे-छोटे कीट पलते हैं। बचे हुए हिस्से का भी विघटन हो जाता है और वह मिट्टी के साथ मिलकर उसकी उपजाऊ शक्ति को बढ़ा देता है। दूर कहीं से हवा में उड़ते हुए बीज आकर जब वहां गिरते हैं तो अपने-आप उग आते हैं। नयी सृष्टि नयी कोंपलों में व्यक्त हो उठती हैं। यह विनाश पर सृजन नहीं तो और क्या है।
प्रकृति अपना कुछ भी जाया नहीं करती। जो चीजें आदमी के लिए घृणास्पद और त्याज्य हैं, उनका भी मनुष्य के उपयोग के लिए ही प्रकृति रूपांतरण कर देती है। हम जो त्याग देते हैं, उससे भी कुछ प्राणी पोषण प्राप्त कर लेते हैं और जो बच जाता है, वह रूपांतरित होकर अन्न या फल के रूप में हमारे पास ही वापस आ जाता है। बड़ी अद्भुत व्यवस्था है। लेकिन इस व्यवस्था को आदमी ही अपनी नासमझी से नष्ट कर रहा है।
शहर बढ़ रहे हैं, जंगल कम हो रहे हैं, पेड़ कट रहे हैं। इस नाते तमाम प्राणियों का प्राकृतिक आवास खत्म हो रहा है। जाहिर है वे खुले आसमान में अपनी रक्षा नहीं कर सकते। इससे दुहरा नुकसान हो रहा है। एक तो कई पशु-पक्षी धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर हैं, दूसरे प्राकृतिक संतुलन डगमगा रहा है। इस बार की गर्मी को ही लीजिए. कितनी भयानक है, आप कल्पना नहीं कर सकते। आम तौर पर 45 डिग्री से ऊपर तापमान। कई जगहों पर इससे भी ज्यादा। सहना मुश्किल है। जब आदमी इससे परेशान है तो पशु-पक्षियों का क्या हाल होगा।
सौ साल का रिकार्ड टूट रहा है। इतनी गर्मी पहले नहीं पड़ी। गर्मी ही क्यों, पिछली ठंड ने यूरोप और अमेरिका को जमा ही दिया था। दुबई में बर्फ पड़ी, कोई सोच भी नहीं सकता। बारिश अमूमन या तो बहुत भयानक होती है या होती ही नहीं। यह सारे खतरे आदमी ने खड़े किये हैं। खास तौर से औद्योगिक रूप से विकसित देशों ने। अब वे खतरा पहचानने भी लगे हैं लेकिन पीछे लौटने में बड़ी मुश्किल है। आगे विनाश का द्वार है पर तय कर लिया है कि आगे ही बढ़ते जाना है।
पिछले दिनों बड़ी चर्चा हुई, अब गिद्ध नहीं दिखते। पर अब तो बहुत सारे पक्षी नहीं दिखते, बहुत सारे कीट-पतंग जो हम-आप बचपन में गांवों में देखते थे, अब कहां हैं। गौरेया कितनी बची हैं? भगजोगनी कहां गयी? जुलाहे कहां हैं? बतखें कितनी बचीं? अगर हम इनके बारे में नहीं सोचेंगे तो हमारे जीवन के बारे में प्रकृति भी नहीं सोचेगी, यह साफ-साफ समझ लेने की जरूरत है।
31.5.10
विनाश का द्वार दिखता ही नहीं
Labels: pahal
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