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19.5.10

जेब से तो कुछ नहीं जा रहा फिर इतनी कंजूसी क्यों

जिंदगी के साल कम होते जा रहे हैं और हम हैं कि अपने में ही खोते जा रहे हैं। कब, किस मोड़ पर किसकी मदद लेना पड़ जाए,यह हकीकत भी हमारी समझ में न आए। प्रेम के दो मीठे बोल, धन्यवाद का एक शब्द बोलने में हमारी जेब का एक धेला खर्च नहीं होता लेकिन हम यहां भी कंजूस बने रहते हैं, जैसे शब्दों को ज्वैलर्स की दुकान से तोले के भाव खरीद कर लाए हों। हां जब किसी की आलोचना करने का अवसर हाथ लग जाए तो इन्हीं शब्दों को पानी की फिजूलखर्ची की तरह बहाते रहते हैं।
जाने क्यों मुझे बैंक संबंधी कामकाज बेहद तनाव भरा एवं चुनौतीपूर्ण लगता है। शायद यही कारण है कि जब किसी नई बैंक में काम पड़ता है तो मैं इस सकारात्मक विचार के साथ बैंक में प्रवेश करता हूं कि कोई मददगार जरूर मिल जाएगा। माल रोड स्थित पीएनबी की शाखा में एकाउंट खुलवाने के लिए गया तो वहां पदस्थ मुकेश भटनागर मेरे लिए खुदाई खिदमतगार ही साबित हुए। कोई आपके लिए मददगार साबित हो तो क्या वह धन्यवाद का भी पात्र नहीं होता। मुझसे यह भूल हुई, लेकिन कुछ पल बाद ही मैंने सुधार कर लिया।
तनख्वाह के बदले सेवा देना किसी भी शासकीय, अशासकीय कर्मचारी का काम है। काम के बदले में हम चेहरे पर आभार के भाव और हल्की सी मुस्कान के साथ छोटे से धन्यवाद की गिफ्ट भी तो दे सकते हैं। उस कर्मचारी के लिए यह उपहार किसी भारी भरकम पुरस्कार से ज्यादा महत्व रख सकता है।
यह ठीक है कि थैंक्स की अपेक्षा के बिना भी सबकी मदद करना हमारा स्वभाव होना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह भी नहीें कि हमें यदि शुगर के कारण मीठे से परहेज करना पड़ रहा है तो मेहमान को भी फीकी चाय ही पिलाएं। हम में से ज्यादातर लोगों का रेल्वे, बस स्टैंड की टिकट खिड़की, टेलिफोन, बिजली, पानी के बिल जमा कराने, अपने कार्यालय में मातहत साथी से, बैंक, स्कूल आदि में अक्सर कर्मचारियों से काम पड़ता ही रहता है। आभार के रैपर में, मुस्कान के धागे में लिपटी थैंक्स की गिफ्ट भेंट करना अकसर हमें याद ही नहींं रहता। सुबह से शाम तक लाखों का लेनदेन करने वाले बैंक कैशियर को आपके थैंक्स से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन कल्पना तो करिए जब शाम को टोटल करते वक्त हजार-पांच सौ रुपए का अंतर आ जाए तो वह कर्मचारी खाना पीना भूल जाता है। अस्पताल में दाखिल हमारे रिश्तेदार का सफल आपरेशन करने वाले डाक्टर को तो हम थैंंक्स कहने में देर नहीं करते लेकिन बैंक में पैसा जमा करने, टिकट खिड़की या बिल जमा करने वाले काउंटर पर तैनात कर्मचारी की कार्यप्रणाली से शायद ही कोई खुश होता हो। सारे कर्मचारी एक जैसे नहीं होते लेकिन हम अपना नंबर आने तक उनके काम की समीक्षा करते हुए यह सिद्ध कर देते हैं कि उससे अधिक तेजी से काम कर के हम दिखा सकते हैं। हम ही फैसला सुना देते हैं कि सारे के सारे कामचोर, मक्कार हैं और इन्हीं जैसे कर्मचारियों के कारण देश तरक्की नहीं कर पा रहा है। दूसरों को उनकी अयोग्यता क्रा सॢटफिकेट देने के लिए तो हम उधार ही बैठे रहते हैं। कौन बनेगा करोड़पति की हाट सीट पर बैठै प्रतियोगी से ज्यादा तो हम जानते हैं। हमारा बस नहीं चलता वरना छक्का मारने से चूके सचिन को पिच पर जाकर समझा आएं कि थोड़ा सा और ऊपर उठाकर शॉट मारते तो बॉल बॉउंड्री पार हो जाती।
कभी एक दिन कैश काउंटर पर बैठ कर देखें या ओटी में आपरेशन करते डाक्टर को सहयोग करती सर्जरी वार्ड की टीम के साथियों की पल पल की मुस्तैदी देखें तो समझ आ सकता है कि नजरअंदाज किए जाने वाले हर व्यक्ति का भी कुछ ना कुछ तो सहयोग रहता ही है। इन कर्मचारियों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए थैंक्स कहना ही पर्याप्त होता है। अंजान राहों वाले, लंबे सफर में हम टैक्सी ड्राइवर के भरोसे सोते-जागते सफर पूरा करते हैं, किराया चुकाते वक्त मान लेते हैं उसका तो यह रोज का काम है। जरा सोचिए तो सही जान उसके हाथ में सौंप रखी थी, यदि उसे हल्की सी झपकी आ जाती तो...? महाभारत में अर्जुन यदि श्रेष्ठतम योद्धा साबित हुए तो इसीलिए की खुद भगवान श्रीकृष्ण उनके सारथी थे, इस सत्य को पांडव जानते भी थे।
रिश्ते हों या रोजमर्रा की जिंदगी, यदि सोचेंगे कि पैसे से सारे काम कराए जा सकते हैं तो जितना गुड़ डालेंगे उतना मीठा होगा। लेकिन हमारे व्यवहार में यदि कृतज्ञता और धन्यवाद वाला भाव होगा तो रिश्तों की बेल हरीभरी और बिना पानी के भी बढ़ती रहेगी। संसार सिकुड़कर अब छोटा हो गया है, जिंदगी के साल उससे भी कम होते जा रहे हैं। कब, किससे, किस मोड़ पर हमें काम पड़ जाए। रास्ते का हर पत्थर मंदिर में मूर्ति के काम नहीं आ सकता लेकिन डगमग करती पानी की मटकी को स्थिर करने, दीवार में कील ठोंकने के लिए या आम, इमली तोडऩे के लिए पगडंडी के किनारे पड़ा जो पत्थर हम तुरंत उठा लेते हैं, उस वक्त हमें कहां पता होता है कि पिछली बार इसी राह से गुजरते वक्त बीच राह में पड़े ऐसे ही किसी पत्थर को खेल-खेल में ठोकर मार कर दूर उछाल दिया था। निर्जीव पत्थर जब हमारे काम आ सकता है तो रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे काम आ रहे सजीव इंसानों के प्रति क्या हम थोड़े से सहृदय नहीं हो सकते, इस काम में एक पैसा भी इंवेस्ट नहीं करना पड़ता है।

2 comments:

SANJEEV RANA said...

अच्छी सोच और एक अच्छा लेख

shwetpriya said...

बहुत खूब। आप की बात गौर करने लायक है। वास्तव में हम जिंदगी की भागमभाग में ऐसी जिंदगी जीने लगे हैं कि हमें इसका ख्याल भी नहीं रहता है। एक छोटा सा लफ्ज थैंक्यू वाकई दिल को खुशी प्रदान करता है, और काम कर रहे कर्मचारी को प्रेरित करता है।