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19.5.10

वो सुबह कभी तो आयेगी-ब्रज की दुनिया


मैंने देखा है, पाया है, अनुभव किया है कि,
मेरे चाहने, प्रयास करने, चीखने-चिल्लाने से;
नहीं बदल रहे हालात, नहीं खत्म हो रही बदईन्तजामी ;
तो क्या मैं चाहना ही बंद कर दूं, दिल और दिमाग को
चुप्पी साध लेने को कह दूं,
छोड़ दूं देखना सपना, स्वीकार कर लूं नियति को;

मेरे सपने, बहुत छोटे से सपने हैं,
किसी भी ईमानदार आदमी की आँखों में
पलनेवाले सपने;
जिन्हें भ्रष्टाचार के ढोर चरने में लगे हैं;
मैंने देखा है सपना कि रसोई गैस की कालाबाजारी
बंद हो गई है,
और एजेंसीवाला ग्राहक को समय पर गैस दे रहा है;

मैंने देखा है सपना कि प्रखंड, जिला और राज्य
कार्यालयों के कर्मी और अधिकारी,
बिना किसी सुविधा-शुल्क लिए ही कर रहे हैं
निर्गत सभी तरह के प्रमाण-पत्र;
मैंने देखा है सपना कि संसद और विधानसभाओं
के किसी भी सदस्य पर कोई आपराधिक मामला
दर्ज नहीं है;

मैंने देखा है अपने स्वप्न में कि
मुकदमा लड़ने के लिए नहीं बेचनी पड़ती
भैंस चेथरू पासवान को;
और सारे-के-सारे जजों ने घूस लेना
छोड़ दिया है और दूध को दूध
और पानी को पानी करने में लग गए हैं;

मैं देखता हूँ सपने में कि
हिंदी अब सरकारी रखैल नहीं है
और बन गई हैं भारत की राजभाषा,
साथ ही हिंदी के रचनाकार नहीं रह गए हैं
पिछलग्गू समीक्षकों-संपादकों के;

मैं देखता हूँ कि वर पक्ष
वधू पक्षवालों के आगे खड़ा है
हाथ जोड़े अकिंचन भाव से,
और नहीं मांग रहे दहेज़

मैं देखता हूँ कि प्रेस निष्पक्ष
हो गया है और
बिना पैसे लिए छापी जा रही
हैं गरीबों से सरोकार रखनेवाली ख़बरें;

सपने अनगिनत हैं और अधूरे सपनों में उग आये
हैं कांटे हकीकत के,
चुभने लगे हैं सपने मेरी आखों को;
फ़िर भी भले ही करना पड़ रहा है एक
लम्बा इंतजार मुझे,
पर पूरी तरह नाउम्मीद भी नहीं हूँ मैं;
मुझे अब भी उम्मीद है कि मेरी ज़िन्दगी
में कभी-न-कभी आएगी उस दिन की सुबह
जब मेरे सारे-के-सारे सपने सच हो चुके होंगे.

1 comment:

अरुणेश मिश्र said...

सामयिक एवै लोकोपयोगी ।