(उपदेश सक्सेना)
हालांकि यह विषय काफी गंभीर है, और मुझ जैसे नाचीज़ को इस बहस में नहीं पड़ना चाहिए, मगर बात गंभीर है और मुझे अपने विचार सार्वजनिक करने का ह्क़ भी, इसलिए यह पोस्ट लिखने का साहस बढ़ा है. विषय है मुस्लिम समाज में हर दिन दिया जाने वाला नया फ़तवा. मैं समझता हूँ शायद इस्लाम में इतनी पाबंदियां नहीं बताई गई होंगी जितनी आज के मौलवी फतवे के रूप में इस्लाम का वास्ता देकर लगभग हर दिन जारी कर रहे है. कुछ मौलवी कहते हैं कि इस्लाम में फ़तवे का अर्थ शरई हुक्म है, जबकि कुछ धार्मिक नेताओं का मानना है यह इंसानी राय है. यहाँ यह लिखना भी लाज़मी है कि इंसान कई बार खुद भी गलत हो सकता है और इस सभ्य समाज में क्या किसी को धर्म के नाम पर क्या अपनी राय के बोझ में दबाया जा सकता है? देखा जा रहा है कि मुस्लिम समाज में पिछले कई वर्षों से हर मामले में मज़हब की आड़ लेने का दस्तूर सा बन गया है, ज़रूरत होती है मौके की.
क्या खाएं, कैसे खाएं, क्या पहनें,कैसे चलें, जैसे नितांत व्यक्तिगत विषयों पर मुस्लिम धार्मिक संस्थाएं फ़तवे जारी कर चुकी हैं.मुस्लिम समाज की सर्वोच्च नियामक संस्था दारुल उलूम देवबंद का कहना है कि हज़ारों साल पहले यह नियम-क़ायदे बने हैं ऐसे में इन्हें थोपे गये बताना ग़लत है.हालांकि अब समाज के बुद्धिजीवियों और कुछ धर्मगुरुओं के बीच इस बात पर बहस छिड़ गई है कि क्या फतवों के मसले पर देवबंदी ज़्यादा सख्त नहीं है?वैसे फ़तवे की परिभाषा भी स्वयं मुस्लिम समाज में बहस का विषय है. पर उपदेश कुशल बहुतेरे....यहाँ भी चल रहा है, मसलन दारुल उलूम देवबंद का एक फ़तवा है कि बैंक में खाता खुलवाना शरियत के खिलाफ़ है, लेकिन स्वयं देवबंद के कई बैंकों में खाते चल रहे हैं.जबकि इस्लाम में ब्याज़ लेना हराम बताया गया है.इन तमाम बातों पर स्थिति साफ़ होना ज़रूरी है.
कई मुस्लिम नेताओं को इस बात पर आपत्ति है कि कई गंभीर विषयों, समाज की दुर्दशा, सामाजिक बुराइयों जैसे विषयों पर कोई मौलवी फ़तवा जारी क्यों नहीं करता? अशिक्षा के दंश और आरोपों की गर्मी से झुलस रहे मुस्लिम समाज के लिए हालांकि लखनऊ के एक मौलवी का यह फ़तवा कि मुस्लिम लड़कियों को तालीम हांसिल करना उनका फ़र्ज़ है, सचमुच एक पुरसुकून ठंडी हवा का झोंका जैसा है. ज़्यादा फ़तवे भी कहीं मुस्लिम समाज के पिछड़े होने का कारण तो नहीं?
31.5.10
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