"हुई मुद्दत के गालिब मर गया फिर भी याद आता है
वह हरेक बात पर कहना की यूँ होता तो क्या होता"|
अजमल आमिर 'कसाब' को अंततः विशेष अदालत ने सजा सुना ही दी| उसे पांच गंभीर मामलों में फांसी पर लटकाने की सजा दी गई है| तथाकथित भारतीय राष्ट्रवाद की इस अप्रतिम जीत पर राष्ट्रवाद का लबादा ओढे लोगों में उत्साह का आलम यह था की उनहोंने अनदिने आये इस दीपावली को सड़कों पर खूब धूम-धाम से मनाया| महाराष्ट्र सहित अन्य कई जगहों पर मिठाइयाँ बंटी और पटाखे छोड़े गए, यानी की भरपूर जश्न का माहौल| फांसी की तारीख जल्द ही मुक़र्रर होगी और फिर लोग बेसब्री से उस दिन का और वैसी ही घटना का इंतजार करेंगे जैसा की १४ अगस्त २००४ को कोलकाता के धनंजय चैटर्जी को फांसी दिए जाने के वक्त उनहोंने किया था| घटना की पुनरावृति हो रही है मीडिया लोगों तक इसे बखूबी परोसने और कमाई के इस नायाब तरीके को यूहीं हाथ से जाने तो देगा नहीं इसलिए जब तक कसाब के शरीर को फांसी पर से उतारा नहीं जाता तब तक उसकी मौजूदगी सम्बंधित खबर की खाल उतरने की रहेगी ही|खैर
उपरोक्त बात तो रही सूद की अब मूल बात यह है की जिस देश में आय-दिन गांधी और उनकी कृतियों की वर्तमान प्रासंगिकता पर बहस-मुबाहसे होते रहते है वहीँ दूसरी तरफ उनके विचारों को बर्बरता से रौंदा जाता है| आखिर यह बात समझ में नहीं आती की जिस देश में गांधी की अहमियत इतनी ज्यादा हो की उसे राष्ट्रपिता का दर्ज़ा दिया जाए और इससे बढ़ कर यह नाम लोगों की भावनाओं को धर्म की भांति छूता हो वहां उसके विचारों की कोई अहमियत ही नहीं| अगर आज गांधी होते तो कसाब को फांसी दिए जाने सहित तमाम ऐसे मुद्दों पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती यह सवाल हमारे जेहन में क्यों नहीं कौंधता- यह एक शास्वत सवाल है| अहिंसा के जरिये भारत को पराधीनता की जकड़न से निकाल एक नई लोकतांत्रिक पहचान दिलाने वाले गांधी ने हमसे नहीं कहा था की उन्हें लोग राष्ट्रपिता के रूप में याद रखें| यह नेहरु थे जिन्होंने उन्हें यह कहा और जनता की आम सहमती इसमें रही| केवल राष्ट्रपिता भर कह देने से एक पिता के प्रति सारे कर्तव्य ख़त्म नहीं हो जाते| उसके जीवित रहने या मृत्यु के बाद उसके विचारों को आत्मसात करना भी हमारी जिम्मेदारी हो जाती है| पर हमें संवेदनशील और सहिष्णु होना पसंद नहीं आया|
भारतीय समाज आखिर किस मिट्टी का बना है - पता नहीं| ख़ुशी और गम इसे किन-किन विषयों में मिलेगा कहा नहीं जा सकता| दोनों ही मनोदशाओं की परिणति अतिवाद होता है| विचारों से ज्यादा भावना प्रबल इस समाज का अतिवादी स्वरुप सचिन के छक्के से लेकर कसाब की फांसी और गड्ढे में बच्चे के गिरने से लेकर दंतेवाड़ा की घटना में देखी जा सकती है| आखिरकार हम किस छलावे में फंसे हैं| खुद को भूल जाने का यह बहाना भी बहुत खूब है की ऐसी घटनाओं पर हम पटाखे छोड़े और मिठाइयाँ बाटें| हमें सोचना होगा की कहीं यह पटाखे तो हम उन लोगों के विचारों की लाश पर नहीं छोड़ रहे जिन्होंने हमारे अन्दर भारतीय राष्ट्रवाद के बीज बोए थे| एक जगह मैंने पढ़ा था की- "जिस तरह हांथियों के मरने पर जैसे उसकी लाश को कुल्हाड़ी से काट कर उसी से उठाया जाता है उसी तरह पुराने समाजों का जनाज़ा भी इसी तरह उठता है"|
राष्ट्रपिता की हत्या हो गई और धीरे-धीरे वैचारिक स्तर पर भी गांधी का जनाज़ा निकल गया| राष्ट्र अब अनाथ हो गया लगता है| हे राम !
26.5.10
उठ गया अब उसके विचारों का जनाज़ा भी - हे राम !
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