एक यूरोपियन विद्धान ने कहा है कि किसी भी सरकार के सहिष्णु व सभ्य होने का मापक यह है कि वह अपने जेल के कैदियों से कैसा व्यवहार करती है।काफी लोग ऐसे होते हैं,जो गैर इरादतन या परिस्थितीवश अपराध कर बैठते हैं,उन्हें श्रम करके,मेहनत करके पूंजी इकटठा करने का अवसर जरूर मिलना चाहिये।वाजिब तो यह होता है कि श्रम के अवसर कैदियों को ही क्यों,सबको प्राप्त होने चाहिये।आजकल हमारे देश में ऐसे जोर शोर से कुछ बातों को लागू करने का निर्णय ले लिया जाता है,जिनसे पहल करने वालों के कल्याणकारी ढोंग का डंका ज्यादा बजे।इस मामले में बटर-ब्रेड-बीयर संस्क्रति के वाहकों की नीयत खोटी ज्यादा दिखती है।कभी कभी इनकी मंशा साफ जब दिखती है,जब ये बैंक में आने वाले लोंगो में भोगोलिक व भाषाई भेदभाव करते हैं या दिल्ली में अन्य प्रदेशवासियों को बिहारी या चिकीं कहकर मानवीयताओ की हदें पार करते हुये देखा जाता हैं।आपको अंग्रेजी न बोलने को लेकर अक्सर शर्मिन्दा होते रहना पडता होगा,या आप इस भाषा के जानकार हैं तो दूसरों को नीचा दिखाने में गर्व होता होगा। हम सब तथाकथित योग्य बनकर या अच्छी नौकरी पाकर यह स्थापित कर चुके हैं कि अंग्रेजी की योग्यता हासिल किये बिना अब नौकरी प्राप्त करना सरल नहीं है।तो अब यह भी मान लेना व समझ लेना जरूरी है कि आपको साधारण आदमी बनकर नौकरी मिले या न मिले लेकिन अगर आप जेल जाने की अहमियत रखते हैं तो हो सकता है कि आपको रोजगार भी मिल जाये।
खैर अब सही मुददे पर आना चाहिये।आज जब समाचार पत्र में यह पढा कि कुछ कंपनियॉं तिहाड जेल में जाकर कैदियों को नौकरी देंगी,यकीन मानिये बेरोजगारों को असहज होना स्वाभाविक है।आज पता नहीं कितने बेरोजगार हैं,जो अंडर इम्पलायमेंट की दशा में भी काम करने को तैयार हैं,चाहे इसके लिये उन्हें अपनी जमीन बेचनी पड जाये।सरकारें कितनी भी रोजगार नीति की बातें करें लोंगों को नौकरी नहीं मिल रही।उत्तर-प्रदेश में एम,ए,/बी,ए,पास लोग सफाई कर्मचारी बनने के लिये बेताब हैं।इन्हें कोई कंपनी नौकरी देने के लिये आगे नहीं आती।सभी बडी कंपनियों ने अपने यहॉं ठेकेदारी पर श्रमिकों की भर्ती की हुयी है।ये ठेकेदार, कंपनी से ज्यादा रकम लेते हैं,बदले में श्रमिक को कम पगार देते हैं।मैं यकीन के साथ कह सकता हूं,कि कंपनियों को कैदियों को नौकरी देने मैं दिलचस्पी कतई नहीं है।वे आम शिक्षित हिन्दी भाषी या कम अंग्रेजी जानकार युवा को नोकरी नहीं दे सकते,वे जेल में कहॉं से योग्य कर्मियों की भर्ती कर लेंगें।आखिर जेल मैं भी सामान्य या कम शिक्षित आदमी ही मिलेगा।वास्तव मैं ये ढोंग है,जिसे कुछ चापलूस व मठाधीशी करने वाले मीडियाकर्मियों ने प्रचारित करके कंपनियों का साथ दिया है।वास्तव मैं ऐसा प्रतीत होता है जैसे जेल में कैंपस प्लेसमैंट कराना कुछ खास व उंची पहुंच रखने वाले रसूखदार अपराधियों को या जेल में बंद रइसजादो, दुष्कर्मियों को जेल से रिहा करने का आसान तरीका इजाद किया गया है।हम सब वाकिफ हैं कि इधर देश में न्यायालयों ने काफी सफेदपोशों को जेल भेजा है। एक अनुमान के मुताबिक विगत बर्ष केवल दिल्ली मैं चार हजार से ज्यादा अच्छे घरों के रइसजादों को जेल भेजा गया है।तो कहीं जेल से इन्हीं लोंगों को छुडाने का यह बहाना तो नहीं है।या फिर इमेज चमकाने या कोई पुरस्कार झटकने का प्रोपेगंडा।
हमारी बौरी सी दिखने वाली मीडिया,या किसी बडी कंपनी के मालिक का दिल जब नहीं पसीजा,जब बरेली मैं पांच-सात हजार रूपये की नौकरी को पाने की चाहत में युवाओं के खून से ट्रेनो की छत लाल हो गयी थी।यह इस देश के बेरोजगारों का दुर्भाग्य है कि उसे केवल एक दुघर्टना मानकर टाल दिया गया।और मीडिया को बौरी कहने का आशय यह है कि
क्योंकि यदि मीडिया महारथी चाहते तो यह महज एक दुर्घटना नहीं रहती,बल्कि एक आंदोलन का मुददा बन सकती थी।सरकारों को मजबूर कर सकती थी कि बताओ इस बेतहासा बेरोजगारी का इलाज क्या है।इसके बदले में मीडिया यह सर्वे कर रही है कि जेल मैं कैंपस रिक्रूटमैंट ठीक है या नहीं।मेरी नजर मैं ये सब साजिश मैं शामिल हैं,जो रेपिष्ट,अपराधी नेताओं,अपने सगे संबधियों को छुडाने का एक तरीका है।बहुत बढिया है कि जेल के कैदियों को स्वावलंबी बनाकर हम सभ्य बनें लेकिन पहले सभ्य व शिक्षित को सम्मान के साथ जीने का मौका दें।
2.3.11
नौकरी चाहिये तो जेल जाने की योग्यता हासिल करो।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment