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10.4.11

सिनेमा का विश्वासघात (बॉलीवुड टाकीज)


- अतुल कुशवाह   

....यह सिनेमा है . मनोरंजन और सामाजिक बदलाव का सबसे बड़ा और ताक़तवर माध्यम । सबसे अधिक खर्चीला और इसीलिए सबसे ग्लामरस.इसके रेशमी अंधेरे में पैसा पानी की तरह बहता है और इसके मखमली उजाले में ख्वाब कोहिनूर की तरह चमकते हैं .यह लार्जेर दैन लाइफ है .यहाँ हजारों जिंदगियां जन्नत की एश्गाहों में और लाखों जिंदगियां दोजख के गटर में तब्दील हो जाती हैं.यह रिअल को रील पर रचाने का कारोबार है । इस कारोबार की प्रानबायु है दर्शक जिसके लिए रुपहले परदे पर जीवन का महाकाव्य रचा जाता है। इस महाकाव्य के चरित्रों से दर्शक का रिश्ता लगभग बैसा ही होता है जैसा शिराओं का रक्त से।
अब हम सिनेमा की भाषा में बात करते हैं। सिनेमा के परदे पर घटते 'लार्जेर दैन लाइफ के साथ' ढाई -तीन घंटे बिताकर मेहनत की गाढ़ी कमाई बॉक्स ऑफिस पर देकर दर्शक बाहर निकलता है । उसने देखा कि देश के दुश्मन, डकैत, माफिया ,सरगना ,भ्रष्ट राजनेता, बलात्कारी या किसी भी तरह के कुकर्मी का अकेले नायक ने काम तमाम कर डाला । वह मुग्ध हुआ । आश्वस्त हुआ । नाइंसाफी से लड़ा जा सकता है । उसे नेस्तनाबूद किया जा सकता है। यानी यह दुनिया बची रहेगी । वह भूल जाता है कि वह सिर्फ़ परदे का सच है और यह परदा सिनेमा का है। जिंदगी के परदे पर इस रुपहले परदे के प्रति संसार उभरता है । नायक या नायिका या चरित्र अभिनेता माफिया सरगनाओं के दरबार में नाच रहा है, गा रहा है, खाना खा रहा है , चुटुकुले सुना रहा है ,प्रतिद्वंद्वियों की शिकायत कर रहा है ,सुलह कराने की भीख मांग रहा है या किसी खास कैम्प में काम पाने के लिए धमकियाँ दिलवा रहा है. दस ,बीस ,पचास लोगों को निहत्थे निपटा देने वाला नायक दर्शक का आदर्श पुरूष ,असली जीवन में एक हास्यास्पद विदूषक या कायर और जर्जर जिस्म बनकर सजदे में दोहरा हुआ जा रहा है।

सिनेमा का दर्शक के साथ यह व्यवहार ठीक नही है। क्योंकि मनोरंजन के साथ - साथ जब से सिनेमा है , असामाजिक तत्व भी तभी से हैं। शायद ये दोगलापन हो सकता है. पहले यह दोगलापन नही था तथा बड़े पैमाने पर आज भी नहीं है। तो फ़िर यह एक विश्वाश्घात हो सकता है। यह करोड़ों लोगों के ख्वाबों और उनकी कमाई के साथ विस्वासघात है। तथा इसके समर्थन में आगे किसी भी तरह का तर्क नहीं चलेगा।


  लिंक-http://atulkushwaha-resources.blogspot.com/2009/05/viswashghat.html#links

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