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14.4.11

स्कोर क्या हुआ है अभी??? <<< सिर्फ मैं जागूँगा.....

आज मैं कोई कविता या फिर अपनी कोई बात कहने नहीं आया हूँ.... आज मैं कुछ अलग कहना चाहता हूँ.... कुछ ऐसा जो सबका हो.... कुछ ऐसा जिससे सबका फायदा हो.... हम ब्लॉग लिखते है, फेसबुक-ऑरकुट पर दोस्त बनाते है.... पर हम एक काम नहीं करते.... हम कभी उसकी बात नहीं करते जो शायद हमारे जीवन में सबसे ज्यादा जरूरी होना चाहिए... हम उसके बारे में सोंचते भी नहीं... क्योंकि हमें लगता है कि हमें इससे क्या... पर दोस्तों यकीन मानो मेरा वो सबसे ज्यादा प्रभाव हम पर डालता है... हम ही है जिसके बदौलत वो फलफूल रहा है, जिसकी बदौलत वो जिन्दा है... वो जिन्दा बिलकुल किसी जोंक की तरह... हमारे शरीर पर रहकर हमारा ही खून चूस रहा है... मैं बात कर रहा हूँ बेईमानी की... बेईमानी एक ऐसा शब्द जिससे कई और शब्दों का निर्माण हो गया है... भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती, घूसखोरी, ठगी, "नेतागिरी"... ये सब इसी बेईमानी की उपज है...

आज हमारे चारों ओर इन्ही का बोलबाला है... अगर मैं गलत नहीं हूँ तो हमारे अन्दर भी यही निवास करता है आज... हम दोष देना तो बखूबी जानते है पर कुछ करने की बात हो तो ब्लॉग या फेसबुक है न... ५ अप्रैल को अन्ना साहब ने एक आन्दोलन छेड़ा... सबने खूब हंगामा मचाया... टीवी, रेडिओ, न्यूज़-पेपर, ऑरकुट, फेसबुक, ब्लॉग, मेल्स, एस एम् एस... सब पर उसी की चर्चा... लग रहा था जैसे भारत भ्रष्टाचार मुक्त हो कर ही रहेगा... लगा जैसे लोग अब जाग गए है... लगा जैसे इस देश में क्रिकेट और फिल्म से ऊपर कुछ आ गया है... लगा जैसे युवाओं के लिए शराब, सिगरेट और लड़कियों से जरूरी कुछ हो गया है... लगा जैसे युवतियों के लिए फैशन, कपडे, मेकप से बड़ा कुछ हो गया है... लगा इस देश में ईजिप्त जैसी एक क्रान्ति होगी... पर सब ख़त्म... एक फूँक से जैसे बुलबुला बना था एक फूँक से वैसे ही फूट भी गया... किसी ने फेसबुक पर मुझसे कहा था... "अभी बहुत लड़ना बाकी है..." मेरा जवाब था उनके लिए... "आई पी एल ख़त्म होने दीजिये..." ये जवाब मेरा एक व्यंग्य था... एक ऐसा व्यंग्य जो बहुत बड़ा सच है...

कहीं भी नजर घुमा कर देखिये हर जगह बेईमानी नजर आएगी... पर हम कुछ नहीं करते... कब तक हम सोये रहेंगे... या सोये सोये ही मर जायेंगे... हम अपने आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे है... हर पीढ़ी अपने से पहले वाली पीढ़ी को दोष देती है... हम भी ऐसा करते है... पर हम खुद क्या कर रहे है... हम समाज का कैसा निर्माण कर रहे है...क्या बना रहे है हम... किस अंधी दौड़ में भाग रहे है... आज हमारी ऐसी हालात हो चुकी है कि हम कहीं के नहीं है... एक कहावत है "न घर के न घाट के"... हम भी बिलकुल ऐसे ही है... अपनी संस्कृति हमने दूसरों के लिए छोड़ दी... दूसरी संस्कृति हम अपना नहीं सके... अपना सकते भी नहीं... हम किसी के अपने हो भी नहीं सकते... जो अपनों का अपना नहीं हुआ... वो किसी और का अपना हो भी कैसे सकता है... जो अपने घर को बचा नहीं सकता, जो अपना घर नहीं बना सकता वो कैसे सोंच सकता है कि दुसरे उसे अपने घर में पनाह देंगे... मैं भी शायद ऐसा ही करता होऊंगा... पर करना नहीं चाहता... 

एक वाकया याद आ रहा है मुझे... हमारे मोहल्ले का ट्रांसफार्मर जल गया था... एक हफ्ता बिता, फिर दो फिर तीन... पूरा महिना बीत गया पर ठीक करने कोई नहीं आया... एक दो लोगों ने बिजली विभाग को शिकायत भी की पर कोई फायदा नहीं... ऑफिसर का कहना था कि नया ट्रांसफोर्मर लगाना पड़ेगा, ट्रांसफार्मर तो है पर विभाग के पास अपने बिजली मिस्त्री नहीं है, ट्रांसफार्मर ले जाने के लिए गाडी नहीं है, चढाने के लिए मजदूर और क्रेन भी नहीं है... सब खर्च आप उपभोक्ताओं को उठाना पड़ेगा... लगभग ५० हजार का खर्च होगा... भिजवा दीजिये काम हो जायेगा... समय बीत रहा था... मोहल्ले के बड़े-बुजुर्गों की परेशानी बढ़ रही थी... युवाओं पे दोष मढ़ा जा रहा था कि आवारागर्दी कर सकते है पर काम नहीं करवा सकते... पैसे बता दिए है तो कम से कम चंदा ही इकठ्ठा करके दे आये बिजली विभाग में... काफी सुनने के बाद एक दिन हम युवाओं ने सोंचा चलो चंदा इकठ्ठा कर लिया जाये... पहुंचे सबके घर पर बहुतों ने पैसे हमें देने से इन्कार कर दिए ये कह कर कि हम बच्चे है (जबकि हकीक़त ये थी कि वो सोंच रहे थे हम पैसे कहीं उड़ न दें)... कईं ने पैसे तो दिया पर काफी कम... लगभग २५० रुपये देने थे एक घर से... पर वो भी नहीं निकले लोगों से... पुरे दिन की मेहनत के बाद लगभग १५००० जमा हो पाए जो कि जरूरत से बहुत कम था... हमने भी कुछ नहीं किया... दो-चार दिनों के बाद रविवार था.. फिर से सब बड़ों की मीटिंग हुई... फिर वही दोषारोपण... उनका कहना था कि वही हुआ जिसका डर था... हमने पैसे ले लिए, काम नहीं किया और उड़ दिए... अब खोज हुई उन लड़कों की जिन्होंने पैसे इकट्ठे किये थे... हम पहुंचे बड़ों की मंडली में... पहुँचते ही डांट और कटु शब्दों की बारिश शुरू हो गयी... कुछ देर बर्दास्त किया और जब सहा नहीं गया तो सारे जमा किये पैसे उनके आगे डालते हुए सिर्फ इतना ही कहा "खुद कर लीजिये... आज वैसे भी रविवार है आपलोगों को समय न होने का बहाना भी नहीं करना होगा... हम लडकें तो वैसे भी नालायक है... बिजली की जरूरत आप लोगों को है... आवाज उठा सकते है आप लोग... हाँ आज की दिन की नींद और ताश की बाजी आपलोगों की छुट जाएगी इसका अफ़सोस है..." इतना कहते है ही बस एक झन्नाटेदार थप्पड़ गाल पर मिल गया... बड़ों ने खूब बुरा भला कहा पर किया कुछ नहीं... दिन वैसे ही बीत गया... अगले दिन कुछ पहुँच वाले लोगों का इस्तेमाल करना पड़ा... सत्संग के नाम पे चंदा इकठ्ठा करना पड़ा (सत्संग के नाम पे कुल १७५०० रुपये जमा हो गए थे)... पहले से १५००० थे ही...  उसके अगले दिन शाम तक ट्रांसफार्मर लग गया... पर किसी बुरा-भला कहने वाले बड़ों ने आकर धन्यवाद नहीं कहा... बस बिजली विभाग के ऑफिसर को धन्यवाद दे रहे थे, कुछ अपनी बडाई गा रहे थे... कुछ का कहना था कि वो न होते तो ट्रांसफार्मर लगता ही नहीं (पता नहीं वो एक महीने से कहाँ थे)... और आवारागर्दी करने वाले लड़के ट्रांसफार्मर को चढाने में मजदूरों की मदद कर रहे थे...

ये एक छोटा सा उदाहरण है हमारी नाकामी का... हम दोष देना जानते है पर कुछ करना नहीं जानते... अगर हमारे बड़े चाहते तो वो सब मिलकर बिजली विभाग पर दबाव बना सकते थे... उनलोगों के सुनी जाती.. पर नहीं सबको सिर्फ खुद से मतलब है... हम घर के अन्दर बैठ कर दोषारोपण तो भलीभांति कर लेते है पर अगर कुछ करने का वक़्त आये तो दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर लेते है... 

मैंने इतना लम्बा लिख दिया... पर क्या फायदा... कोई फर्क नहीं पड़ने वाला... ज्यादातर तो इसे पढेंगे नहीं... कुछ पढेंगे भी तो अधुरा... कुछ ने पूरा पढ़ भी लिया तो कमेन्ट बॉक्स में कुछ अच्छे शब्द लिख कर फिर इसे भूल जायेंगे... पर मैं लिखूंगा... जरूर लिखूंगा... मेरा किसी पे कोई अधिकार नहीं पर मेरा खुद पर पूरा अधिकार है... कोई बदले या न बदले मैं बदलूँगा... बहुत से महापुरुषों ने कई नारे दिए... एक नारा आज मैंने बुलंद किया है... "सिर्फ मैं जागूँगा... Only I get up..."

आप लोग भी जाग सकते है पर आई पी एल ख़त्म हो जाने दीजिये... वैसे स्कोर क्या हुआ है अभी???

3 comments:

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

हमें तो पूरी पोस्ट पढ़ी .. और सहमत हूँ की कर्म करने वाले अक्सर परदे के पीछे ही रह जाते हैं ... सुन्दर पोस्ट ..आभार

अजित गुप्ता का कोना said...

इस देश में जब तक कर्म की महत्ता स्‍थापित नहीं होगी तब तक आक्रोश ऐसे ही जन्‍म लेता रहेगा। हम सब कृष्‍ण को पूजते हैं लेकिन उनके सिद्धान्‍त कर्म को नहीं मानते। लेकिन जिस दिन यह आक्रोश भी मर जाएगा समझो समाज भी मर जाएगा।

अवनीश सिंह said...

एक दूसरे पर दोषारोपण करना हमारी आदत हो गयी है | अब इसे बदलने की जरूरत है | हम सुधरेंगे , जग सुधरेगा|
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