मित्रों,जबसे सुप्रीम कोर्ट ने भारत के प्राकृतिक संसाधनों के आर्थिक उपयोग
के संबंध में अपना मत दिया है भारत की केंद्र सरकार के मंत्रियों के कदम
जमीन पर पड़ ही नहीं रहे हैं और वे लगातार इसकी गलत और दुर्भावनापूर्ण
व्याख्या कर रहे हैं। कदाचित् कहीं-न-कहीं उनके मन में यह गलतफहमी घर कर गई
है कि अब वे प्राकृतिक संसाधनों का मनमाना और ईच्छित आबंटन करके जितनी
चाहे उतनी रिश्वत खा सकते हैं और फिर उस रकम को ठिकाने लगाने के लिए विदेशी
बैंकों में थोक के भाव में खाते खोल सकते हैं।
मित्रों,सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में केंद्र सरकार को कतई घोटाले करने की छूट नहीं दी है। उसने तो राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत मांगे गए परामर्श के उत्तर में बस इतना कहा है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के कई संभावित तरीके हो सकते हैं जिसमें से नीलामी भी एक है। सरकार चाहे तो जनहित में इनमें से कोई भी तरीका अपना सकती है। सरकार चाहे तो पहले आओ पहले पाओ की नीति (2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला) भी अपना सकती है और चाहे तो चयन समिति बनाकर (कोयला-खान आबंटन घोटाला) भी अपना सकती है। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहा है कि पहले आओ पहले पाओ की नीति के तहत अपने मित्रों और सगे-संबंधियों को पहले से ही अधिसूचना की सूचना दे दो और 10-15 मिनट में ही उनके बीच संसाधन आबंटित भी कर दो जैसा कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नहीं कहा है कि कोल-गेट की तरह एक ऐसी चयन समिति का गठन कर दो जो सिर्फ दिखावे के लिए हो और फिर अपनों और अपने लोगों के नाम पर जितना चाहे आबंटन करवा लो।
मित्रों,अगर सुप्रीम कोर्ट को ऐसा मानना होता तो वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले की सुनवाई को अपने इस मत से अलग नहीं कर देता और वह यह नहीं कहता कि उसके इस मत का इस महाघोटाले की सुनवाई पर कोई असर नहीं पड़ेगा। मैं नहीं समझता कि सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कहना कहीं से भी गलत है कि आबंटन के कई तरीके हो सकते हैं। निश्चित रूप से हो सकते हैं। तरीका चाहे नीलामी का हो या कोई और असल चीज है पारदर्शिता और निष्पक्षता। माना कि नीलामी ही की जाती है और बोली के मामले में गोपनीयता और निष्पक्षता नहीं बरती जाती है तो फिर ऐसी नीलामी का क्या मतलब रह जाएगा?
मित्रों,नीतियाँ बनाना और लागू करना निश्चित रूप से कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार या एकाधिकार में आता है और आना चाहिए। नीतियाँ चाहे जो भी हों उनका प्रभाव तभी देशहितकारी होगा जब उनको बनाने और लागू करनेवाले लोगों की नीयत साफ हो,उसमें कोई खोट नहीं हो। अपेक्षित सफलता के लिए हमेशा नीतियों के साथ-साथ नीयत का भी स्वच्छ होना आवश्यक होता है। हमारी केंद्र सरकार के मंत्रियों को हमेशा यह बात जेहन में ताजा करके रखनी चाहिए कि जब-जब वे नीतियों के क्रियान्वयन में चूक करेंगे और उन्हें टकसाल या पैसों का पेड़ समझेंगे तब-तब सीएजी उनको टोकेगा क्योंकि उसका काम ही क्रियान्वयन अर्थात् नीयत को देखना है। वे जब-जब धनार्जन के अनुचित तरीके अपनाएंगे और देश के खजाने को भारी नुकसान पहुँचाकर अपनी और अपनों की जेबें भरने का प्रयास करेंगे तब-तब उनको जनता और अदालत के सामने जवाब देना पड़ेगा और तफरी के लिए ही सही जेलयात्रा भी करनी पड़ेगी। इसलिए केंद्र सरकार के महान कुतर्कशास्त्री मंत्रियों को चाहिए कि वे शीघ्रातिशीघ्र अपनी नीयत को ठिकाने पर लाएँ और सुप्रीम कोर्ट के मत को देश के विकास की दिशा में एक अवसर के रूप में लें न कि इसे पैसे का पेड़ या कल्पवृक्ष समझ लें। अब वह समय नहीं रहा कि जब गदहा जलेबी खाता था और मालिक को पता भी नहीं चलता था। अगर नेता लोग 21वीं सदी के धूर्त और चालाक नेता हैं तो आज की जनता भी 21वीं सदी की होशियार जनता है जो न केवल सबकुछ जानती है बल्कि समझती भी है।
मित्रों,सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में केंद्र सरकार को कतई घोटाले करने की छूट नहीं दी है। उसने तो राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत मांगे गए परामर्श के उत्तर में बस इतना कहा है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के कई संभावित तरीके हो सकते हैं जिसमें से नीलामी भी एक है। सरकार चाहे तो जनहित में इनमें से कोई भी तरीका अपना सकती है। सरकार चाहे तो पहले आओ पहले पाओ की नीति (2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला) भी अपना सकती है और चाहे तो चयन समिति बनाकर (कोयला-खान आबंटन घोटाला) भी अपना सकती है। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहा है कि पहले आओ पहले पाओ की नीति के तहत अपने मित्रों और सगे-संबंधियों को पहले से ही अधिसूचना की सूचना दे दो और 10-15 मिनट में ही उनके बीच संसाधन आबंटित भी कर दो जैसा कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नहीं कहा है कि कोल-गेट की तरह एक ऐसी चयन समिति का गठन कर दो जो सिर्फ दिखावे के लिए हो और फिर अपनों और अपने लोगों के नाम पर जितना चाहे आबंटन करवा लो।
मित्रों,अगर सुप्रीम कोर्ट को ऐसा मानना होता तो वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले की सुनवाई को अपने इस मत से अलग नहीं कर देता और वह यह नहीं कहता कि उसके इस मत का इस महाघोटाले की सुनवाई पर कोई असर नहीं पड़ेगा। मैं नहीं समझता कि सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कहना कहीं से भी गलत है कि आबंटन के कई तरीके हो सकते हैं। निश्चित रूप से हो सकते हैं। तरीका चाहे नीलामी का हो या कोई और असल चीज है पारदर्शिता और निष्पक्षता। माना कि नीलामी ही की जाती है और बोली के मामले में गोपनीयता और निष्पक्षता नहीं बरती जाती है तो फिर ऐसी नीलामी का क्या मतलब रह जाएगा?
मित्रों,नीतियाँ बनाना और लागू करना निश्चित रूप से कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार या एकाधिकार में आता है और आना चाहिए। नीतियाँ चाहे जो भी हों उनका प्रभाव तभी देशहितकारी होगा जब उनको बनाने और लागू करनेवाले लोगों की नीयत साफ हो,उसमें कोई खोट नहीं हो। अपेक्षित सफलता के लिए हमेशा नीतियों के साथ-साथ नीयत का भी स्वच्छ होना आवश्यक होता है। हमारी केंद्र सरकार के मंत्रियों को हमेशा यह बात जेहन में ताजा करके रखनी चाहिए कि जब-जब वे नीतियों के क्रियान्वयन में चूक करेंगे और उन्हें टकसाल या पैसों का पेड़ समझेंगे तब-तब सीएजी उनको टोकेगा क्योंकि उसका काम ही क्रियान्वयन अर्थात् नीयत को देखना है। वे जब-जब धनार्जन के अनुचित तरीके अपनाएंगे और देश के खजाने को भारी नुकसान पहुँचाकर अपनी और अपनों की जेबें भरने का प्रयास करेंगे तब-तब उनको जनता और अदालत के सामने जवाब देना पड़ेगा और तफरी के लिए ही सही जेलयात्रा भी करनी पड़ेगी। इसलिए केंद्र सरकार के महान कुतर्कशास्त्री मंत्रियों को चाहिए कि वे शीघ्रातिशीघ्र अपनी नीयत को ठिकाने पर लाएँ और सुप्रीम कोर्ट के मत को देश के विकास की दिशा में एक अवसर के रूप में लें न कि इसे पैसे का पेड़ या कल्पवृक्ष समझ लें। अब वह समय नहीं रहा कि जब गदहा जलेबी खाता था और मालिक को पता भी नहीं चलता था। अगर नेता लोग 21वीं सदी के धूर्त और चालाक नेता हैं तो आज की जनता भी 21वीं सदी की होशियार जनता है जो न केवल सबकुछ जानती है बल्कि समझती भी है।
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