इम्तिहान, इम्तिहान, इम्तिहान,.. न जाने जिंदगी कितने इम्तिहान लेगी, हर बार एक नया चौराहा, हर बार खो जाने का भय , मंजिल किस डगर होगी कुछ भी तो उसे खबर नहीं ,……. ……..मंथन मंथन मंथन जाने कितना ही आत्ममंथन, हर बार पहुंची उसी जगह ज्यूँ शून्य की परिधि पर चलती हुई …………..चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते,.. जब शीर्ष पर पहुचने लगे -थरथरा रहे थे कदम, फूलने लगे थे दम, मंसूबों की कतरनों को थामें, ढलानों पर फिसलने लगी ….... ……मुस्कानें, मुस्कानें, मुस्कानें , ..देखो! गालों पर खिलती हुई कानों तक पहुंची मुस्काने, चमक रहे थे जो, दिखे नहीं किसी को, उसकी आँखों के धुंधलाते सितारे … शायद उसके भीतर बहुत कुछ टूट गया था, उसका विश्वास चरमरा गया था… फिर भी अभी एक आस है, क्यूंकि अभी कुछ सांस हैं………... उसने अंधेरों में एक चिराग जला लिया है और कम पड़ती रौशनी में चश्मा पौंछ कर पहन लिया है …... क्यूंकि आखिरी सांस भी जिंदगी दे जाती है और क्या पता जिंदगी थाम के हाथ, पहुंचा दे मंजिल के पास …. ..पर फिर मंजिल पर पहुँच कर एक नया मंसूबा एक नया चौराहा, सतत चलते रहने की चाह .…. यही गति है, यही जिंदगी है, यही जीने का नाम है .............................. नूतन डिमरी गैरोला - ४/१०/१२ .... १८ : २४ ब्लॉग अमृतरस |
5.10.12
फिर एक चौराहा - डॉ नूतन गैरोला
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