अभिषेक कांत पाण्डेय
रेलगाड़ी में सफर करने का आनंद आपने लिया होगा लेकिन शायद ही कभी आपने गौर किया होगा कि स्टेशन व ट्रेन के बीच मासूम बच्चों की जिंदगी कहीं खो गई है। खेत-खलियान व शहरों से गुजरती हुई रेलगाड़ी जब स्टेशन पर रूकती है तो अपकी निगाह उन बच्चों पर जरूर ठहरी होगी, जो रेलवे ट्रेक पर पानी की बोतलें इकट्ठा करते हैं, या उन बच्चों की टोलियों को देखा होगा जिनके गंदे-मैले कपड़े उनकी बदहाली को बयां करते हैं। हाथ में गुटखा-खैनी का पाउच लिए टेªन की बोगियों में बेचते हैं, देश के ये नौनिहाल। जहां इन्हें स्कूलों में होना चाहिए लेकिन पापी पेट के कारण यहां इनकी जिंदगी के हिस्से में केवल ट्रेन की सीटी ही सुनाई देती है। इन बच्चों का जीवन सुबह पांच बजे से शुरू होता है, स्कूल की घंटी नहीं ट्रेन की सीटी सुनकर झुंड में निकल पड़ते हैं इनके कदम और ट्रेन की बोगियों में गुटखा-खैनी बेचकर अपने घर का पेट पालते हैं।
स्टेशन में रहने वाले बच्चों का उम्र तो बढ़ता है लेकिन उनका भविष्य यहां अंधकारमय है। रेलेवे स्टेशन में कठिन परिस्थितियों में रह रहे बच्चों के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था साथी व चाइल्ड लाइन ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए काम कर रही हैं लेकिन सरकारी उपेक्षा के चलते इन बच्चों के लिए स्थायी व ठोस काम नहीं हो पा रहा है। इलाहाबाद रेलवे स्टेशन में आप दर्जनों ऐसे बच्चों को देख सकते हैं जो प्लेटफार्म में भीख मांगते हैं और यही पर रहते हैं। इन बच्चों के माता-पिता व घर का पता नहीं हैं। ये बच्चे ट्रेन व प्लेटफार्म में ही अपनी जिंदगी बिताते हैं। गुजर बसर के लिए ऐसे बच्चे ट्रेनों में घूम-घूमकर गुटखा बेचते हैं। इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के बाहर ये दुकानदारों से गुटखा खरीदते हैं। बताया जाता है कि 125 रूपये का गुटखा 400 रूपये तक में ये बच्चे आसानी से बेच लेते हैं।
आपको बात दें कि रेलवे स्टेशन व ट्रेनों में गुटखा, बीड़ी, सिगरेट जैसे पदार्थों की बिक्री पर प्रतिबंध है। वहीं लाइसेंस प्राप्त वेंडर ही रेलवे के नियम व कानून के मुताबिक ही उचित दरों पर ही कोई वस्तु बेच सकता है। लेकिन असल खेल तो यहां से शुरू होता है अवैध वेंडर धड़ल्ले से इलाहाबाद स्टेशन व उसके आसपास के स्टेशनों में सामान बेचते हुए नजर आते हैं। रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स यानी आरपीएफ व राजकीय रेलवे पुलिस यानी जीआरपीफ की चेकिंग में अवैध वेंडर और गरीब बच्चे से अवैध वेंडर का काम कराने वाले माफिया कैसे बच निकलते हैं, इसकी गुत्थी आप यहां (इलाहाबाद स्टेशन)पर कुछ घंटे बिताकर आसानी से जान सकते हैं।
बातचीत करने पर 12 साल का राकेश (बदला हुआ नाम) इलाहाबाद स्टेशन के पास एक झुग्गी झोपड़ी में रहता है, ने बताया कि उसके मां-बाप नहीं है। वह 70 साल बूढ़ी अपनी नानी के साथ रहता है। घर का खर्च चलाने के लिए राकेश को गुटखा बेचने का काम सबसे आसान और मुनाफे वाला लगा। वह बताता है कि शुरू में तो वह डरता था लेकिन पुलिस वाले ने कई बार उसे पकड़ा लेकिन 100 रू के नोट के कमाल को बड़ी बखूबी तरीके से बयान करता हुआ उसकी समझदारी को सुनकर आप भी आश्चर्य में पड़ जाएंगे। भइया! जब पकड़ जाते हैं तो सौ-पचास थमा देते हैं, वहीं मामला रफा-दफा हो जाता है, थाने तक बात नहीं पहुंच पाती है। वहीं इन बच्चों की बदहाली और गरीबी को देखकर इन्हें जबरजस्ती स्टेशन से बाहर करना भी एक बड़ी चुनौती है। इलाहाबाद स्टेशन व उसके आसपास रहने वाले बच्चों से बात करने पर पता चला है कि पढ़ने का उनका मन करता है लेकिन परिवार की दयनीय स्थिति के कारण उन्हें ट्रेनों में गुटखा, पानी का बोतल आदि बेचना पड़ता है।
पुनर्वास के लिए हो ठोस नीति
बच्चों के पुनर्वास के मसले पर समाज सेविका नीलम श्रीवास्तव से बात की तो उन्होंने बताया कि जो बच्चे कई साल से स्टेशन पर ही अपना जीवन बिता रहे हैं ऐसे बच्चों को सुधार पाना एक बड़ी चुनौती है। नीलम बताती हैं कि रेलवे को इस काम के लिए आगे आना चाहिए प्रभावी और सही रणनीति बनानाी चाहिए। कई वर्षों से स्टेशन पर रह रहे बच्चों के लिए रेलवे को शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए ताकी इन बच्चों का भविष्य उज्जवल बन सके। नीलम ने बताया कि इनमें से कई ऐसे बच्चे हैं जो एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन घूमते रहते हैं, इन्हें पेट भरने के लिए खाना इधर-उधर से मिल जाता है लेकिन नशा करने की लत का शिकार हो जाते हैं। बडे होने पर ये अपराध की राह पकड लेते तब इन्हें सुधार पाना बहुत मुश्किल होता है। नीलम बताती है कि कुछ दिनों से घर से भागकर आए बच्चों को सही रास्ते पर परामर्श के माध्यम लाया जा सकता है। नीलम इन बच्चों की काउंसलिंग करती हैं, इन्होंने सैकड़़ों ऐसे बच्चों की काउंसिलिंग की है और उन्हें घर तक पहुंचाया है। नीलम बताती है कि स्टेशन में लंबे समय पर रह रहे बच्चों के पुनर्वास के लिए कई एनजीओ जमीनी स्तर पर काम करने से कतराती हैं। उनका काम भी केवल कागजी होता है। अगर सही मे काम होता है तो कई बच्चों का भविष्य बन सकता था।
स्टेशन पर नहीं है बच्चों का भविष्य
एक बात तय है कि स्टेशन पर बच्चों का कोई भविष्य नहीं है यहां पर उनकी उम्र बढ़ती है। उन्हें न अच्छा इंसान बनने का माहौल मिलता है न अच्छी शिक्षा मिलती है और न ही परिवार का प्यार दुलार मिलता है। 12 साल के दीपक यादव इलाहाबाद स्टेशन पर गुटखा बेचता हुआ मिला। वह बांदा का रहने वाला है और घर से बाहर भागकर ग्वालियर गया, जहां पर उसने कुछ दिन होटल मे काम किया, लेकिन होटल के मालिक उससे 16 घंटे काम कराता था। दीपक को अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था। उसने ठान लिया कि वह होटल के कैद से खुद को आजादी दिलायेगा। कई रात के बाद उसे एक मौका मिला, एक रात होटल का मेन गेट खुला पाया, बस इस गलती का फायदा उठाया व रात को वहां से निकल गया।
लेकिन उसका बालमन का आकर्षण स्टेशन में रमा और कहीं न कहीं घर में मां-बाप की प्रताड़ना का डर उसे आजादी के बाद भी घर जाने के लिए रोक रहा था। आंखों में आंसू पोछते हुए दीपक ने बताया कि वह इलाहाबाद आ गया और यहीं से गुटखा खरीदकर बेचने लगा। अभी घर छोड़े उसे कुछ दिन हुआ था। दीपक की काउंसिलिंग सामाज सेविका नीलम श्रीवास्तव ने की वह अपने घर जाने के लिए तैयार हो गया। एक संस्था की मदद से उसे घर पहुंचाने के लिए उसके घर का पता लगाया जा रहा है। इलाहाबाद रेलवे स्टेशन में पढ़ाई या मााता-पिता की नाराजगी के कारण रोजाना दर्जनों बच्चे घर से भागकर आते हैं और कुछ दिन तक यही रहते हैं तो कुछ किसी स्टेशन का रूख कर लेते हैं। वहीं वाराणसी, कानपुर, इलाहाबाद, रायपुर आदि रेलवे स्टेशनों पर बच्चों के लिए काम करने वाली साथी संस्था कठिन परिस्थितियों में रह रहे इन बच्चों की मदद करती है, ऐसे बच्चों को कांटेक्ट में लेकर उन्हें उनके घर तक पहुंचाने का काम करती है।
आरटीई यानी 14 साल तक के बच्चों को निशुल्क व अनिवावर्य शिक्षा कानून के लागू होने के बाद बदहाली के आंसू में जी रहे स्टेशन पर ये बच्चे पढ़ने व सम्मान से जीने का अधिकार के लिए किसके सामने हाथ फैलाये। गरीबी, बीमारी, नशाखोरी में जी रहे इनके मां-बाप जो इन्हें पैदा तो कर दिया लेकिन शिक्षा क्या, दो वक्त की रोटी भी नहीं दे पा रहे हैं। लाचार मां-बाप पेट पालने के लिए इन बच्चों को स्टेशन के हवाले कर देते हैं। लोहे की पटरियों में दौड़ने वाली ट्रेन की गति चाहे जितनी बढ़ जाए, रेलवे का सफर चाहे जितना सुविधाजनक हो जाए लेकिन ट्रेन की हर खिड़की से दिखने वाला देश का भयानक सच, यही है कि रेलवे ट्रेक पर बड़ा-सा बोरा लटकाये बोतल बिनते ये बच्चे, हमारे तरक्की को खोखला साबित कर रहे हैं। रायपुर, वाराणसी, मुगलसराय, पटना, मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई जैसे रेलवे स्टेशन पर आपको ऐसे बच्चे मिल जाएंगे जो अपने सुनहरे भविष्य के सपने नहीं देखते हैं, उनके सपनों में तो बस दिखता है दो वक्त की रोटी और स्टेशन का शोर।
बच्चों से बिकवाया जाता है पानी
इलाहाबाद स्टेशन में इन दिनों दर्जनों बच्चे रोज सुबह प्रयागराज व यहां से गुजरने वाली दर्जनों ट्रेनों से खाली पानी का बोतल इकट्ठा करते हैं। इन बोतलों को रिफिल कर इन बच्चों से पानी की बोतल बेचवाया जाता है, जिसमें अच्छी खासी आमदनी होती हैं। आश्चर्य की बात है कि रेलवे प्रशासन को इस बात की भनक नहीं लगती है। अवैध वेंडरों में छोटे-छोटे बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है। उनकी गरीबी और पैसों के लालच के चलते स्टेशन पर पानी की बोतल बेचने का धंधा जोरों पर है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस खेल के पीछे रेलवे के ही जिम्मेदार लोगों का हाथ है।
नशे के चंगुल में बच्चे
स्टेशन में घूमते दर्जनों बच्चे, जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। सुलेशन, स्प्रिट, व्हाइटनर, गुटखा की लत में इलाहाबाद स्टेशन में रोजना कई बच्चे घूमते हुए देखे जा सकते हैं। इन बच्चों के माता-पिता का पता नहीं है, कहां से आए ये भी नहीं मालूम। व्हाइटनर सूंघकर नशा करने वाले इन बच्चों की मदद करने की पहल के लिए कोई एनजीओ सामने नहीं आती है। चाइल्ड लाइन को अगर ऐसे बच्चे की सूचना फोन के माध्यम से दी जाती है तो वे आते और कुछ घंटे बाद फिर बच्चे को छोड़कर चले जाते हैं। ऐसे बच्चों के जीवन को सुधारने के लिए कोई ठोस नीति सरकार के पास नहीं है केवल फाइलों में काम होता है।
लेखक अभिषेक कांत पाण्डेय से संपर्क abhishekkantpandey@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.
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