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9.8.16

क्या मीडिया जगत विज्ञापन की बेड़ियों से कभी आजाद हो पायेगा?

कई साल हो गये मुझे पत्रकारिता जगत का हिस्सा बने। अवार्ड्स मिले, एक्सक्लूसिव इंटरव्यूज किये, स्पेशल एडिशन निकाले, लेकिन ये सब उस समय व्यर्थ हो जाते हैं जब खबर के आड़े विज्ञापन आ जाता है। खबर कितनी ही बड़ी हो विज्ञापनदाता से जुड़ी हो तो उसमें बदलाव होकर रहता है। यही नहीं कुछ संस्थान तो उस पत्रकार को ही निकाल देती है जो ऐसे किसी केस में हाथ डाल देता है जिससे विज्ञापन का नुकसान हो जाये। बहरहाल इतने सालों में मैं यह नहीं समझ पाया कि विज्ञापन मिलते क्यों हैं? इसके जरिये विज्ञापनदाता अपनी पब्लिसिटी करता है? सर्कुलेशन बढ़ाता है? या फिर चाहता है कि उसके कारनामों से मीडिया नजरे हटा ले?


मैं ही क्या हर पत्रकार जो कर्मचारी है शायद ही उसके पास इसका सही जवाब हो। मुझे तो यही लगता था कि विज्ञापन बैनर की ताकत के चलते मिलते हैं। लेकिन जब खबरों के आड़े विज्ञापन आने लगे तब समझ आया कि पैसों के लिए पत्रकारिता से समझौता करना चलन बन गया है। ऐसे हालात में यह सवाल उठता है कि क्या मीडिया जगत विज्ञापन की बेड़ियों से कभी आजाद हो पायेगा?

कहते हैं किसी की सांसे रोकना हो तो उसे जान से नहीं मारते। बस गले के विशेष हिस्से पर दबाव डालिये और साँस रुकने लगेगी। पत्रकारिता का स्ट्रक्चर भी ऐसा हो गया है। मालिक को पैसा चाहिये और हर हाल में चाहिये। इसके लिए वो मार्केटिंग टीम पर दबाव डालता है। टीम कर्मचारी पर। और कर्मचारी जैसे-तैसे विज्ञापन ले आता है। जैसे-तैसे से अभिप्राय है अश्योरेंस...यानी विज्ञापनदाता की सिर्फ फेवरेबल खबर लगेगी एंटी नहीं। बड़े अखबार/चैनल तो फिर भी एकाध बारी पत्रकारिता का मान रख लेते हैं। छोटे तो पूरा ही मटियामेट कर दिए हैं। मानो सीधा मेसेज दे रहे हों कि गिने चुने विज्ञापन है इनसे भी हाथ धो लिए तो खाएंगे क्या? तो क्या पत्रकारिता अब सिर्फ पैसा बनाने का जरिया रह गई है? यह सवाल भले चन्द शब्दों का हो लेकिन इसका जवाब सोचने की जरुरत हम सभी को है।

आशीष चौकसे, पत्रकार
journalistkumar19@gmail.com

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