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11.1.17

पुस्तक सप्लाई में दलित जनप्रतिनिधियों के हस्तक्षेप की जरूरत

-एच.एल.दुसाध
सर्दियों में भारत और दक्षिण एशिया के बुद्धिजीवियों का वार्षिक मिलन-स्थल का रूप ले चुके    ‘नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला ‘(एनडीडब्ल्यूबीएफ) 7 जनवरी से शुरू हो रहा है,जिसका समापन  जनवरी,2017 को होगा. पुस्तक व्यवसाय को बढ़ावा देने व लोगों में पुस्तक-प्रेम पैदा करने के उद्देश्य से आयोजित इस मेले की शुरुआत 1972 में हुई,जिसका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी.गिरी ने किया था.विंडसर प्लेस में 18 मार्च से 4 अप्रैल,1972 तक चले पहले पुस्तक मेले का आयोजन 6790 वर्ग मीटर में क्षेत्र में हुआ था,जिसमें 200  प्रकाशकों ने भाग लिया था.मेले के मौजूदा स्थल प्रगति मैदान में जब इसकी शुरुआत 1976 से हुई तब 7770 वर्ग मीटर में फैले उस  पुस्तक में 266 प्रकाशकों ने शिरकत किया था.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय,भारत सरकार की स्वायत्तशासी संस्था नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित इस अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले का आयोजन पहले एक साल अन्तराल के बाद होता रहा,किन्तु 2012 से प्रतिवर्ष होने लगा. यह मेला उत्तरोत्तर विकास करते जा रहा है,इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि 1972 में जहां यह 6790  वर्ग मीटर में 200 प्रतिभागियों के साथ शुरू हुआ था वहीँ विगत वर्षों से इसका आयोजन लगभग 35-40 हजार वर्ग मीटर में हो रहा है,जिसमें औसतन एक हजार के करीब पुस्तक प्रकाशक व वितरक शिरकत कर रहे हैं.इस मेले के प्रति लोगों के बढ़ते आकर्षण ने यह साबित कर दिया है कि इंटरनेट टेक्नोलाजी के तुंग पर पहुँचने के बावजूद मुद्रित पुस्तकों की अहमियत जरा भी कम नहीं हुई है.ऐसे में उम्मीद करनी चाहिए कि 7 जनवरी से शुरू हो रहा 25 वां ‘नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला’ नोटबंदी के असर से मुक्त रहकर इसके आयोजकों को सदम्भ यह कहने का अवसर देगा कि तमाम बाधा -विघ्नों को पार करते हुए पुस्तके अब भी लोगों को बुरी तरह खींचती हैं.

बहरहाल नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में हिंदी-अंग्रेजी सहित देश के विभिन्न आंचलिक भाषाओँ और विदेशों के भारी संख्यक प्रकाशक प्रगति मैदान में एक बार फिर अपना स्टाल सजायेंगे, किन्तु इनमें किसी दलित प्रकाशक का स्टाल ढूंढना मुश्किल होगा.ऐसा इसलिए कि उनकी संख्या इतनी कम होती है कि अन्य प्रकाशकों की भीड़ में उन्हें ढूंढना मुश्किल होता है .ऐसा सिर्फ नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में ही नहीं,बल्कि कोलकाता ,लखनऊ,पटना,मुजफ्फरपुर,इलाहबाद व अन्य कई शहरों में आयोजित होने वाले पुस्तक मेलों में भी होता है.इन मेलों में दलित प्रकाशकों की नगण्य उपस्थिति देखकर किसी को भी लग सकता है कि दलित प्रकाशक नहीं के बराबर हैं,पर वास्तविकता इससे भिन्न  है.वस्तुस्थिति तो यह है कि हिंदी ,मराठी सहित देश की अन्यान्य भाषाओँ में 500 से अधिक दलित प्रकाशक पुस्तक व्यवसाय में लगे हैं.इनकी संख्या की सही झलक अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय पुस्तक मेलों में नहीं,आंबेडकर जयंती,दीक्षा-दिवस ,बाबासाहेब महापरिनिर्वाण दिवस,बसपा की रैलियों ,बामसेफ इत्यादि के सम्मेलनों में दिखती है.

दरअसल पूरे देश में ही व्यवसायिक नहीं,मिशन भाव से ढेरों दलित प्रकाशक अपने काम में लगे हैं.आज आमूल समाज परिवर्तनकारी जिस दलित आन्दोलन की सर्वत्र चर्चा सुनाई पड़ रही है,वह वास्तव में साहित्यिक आन्दोलन है,जिसमे लेखकों के समान ही दलित प्रकाशकों बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान है.विगत कुछ वर्षों में शहरों से लेकर दूर-दराज के गाँव तक जो ढेरों दलित लेखकों का उदय हुआ है,वह इन प्रकाशकों के बिना संभव ही नहीं होता.किन्तु जिस तरह गैर-दलित मिशनरी प्रकाशकों को व्यवसाइयों और दूसरे सक्षम लोगों का आर्थिक सहयोग मिलता है,वैसे सौभाग्य से ये वंचित रहते हैं.दुर्बल आर्थिक पृष्ठभूमि के ये प्रकाशक सामान्यतया खुद की गाढ़ी कमाई और आत्मीय- स्वजनों के आर्थिक सहयोग से पुस्तक प्रकाशन जैसा कठिन कार्य अंजाम देते रहते हैं.इस काम में उन्हें दलित लेखकों का भी सहयोग मिलता है.वे इनसे रायल्टी की मांग नहीं करते .किताब छपने के बाद प्रकाशक उन्हें किताबों की 20-25 प्रति भेंट कर देते हैं,इसी से वे संतुष्ट रहते हैं.लेकिन इतनी विषम स्थितियों कार्य कर रहे इन प्रकाशकों के समक्ष जो सबसे बड़ी चुनौती मुंह बाए खड़ी रहती है,वह है पुस्तकों का वितरण .

वास्तव में दलित प्रकाशकों की शोचनीय स्थिति के मूल में है पुस्तकों की वितरण व्यवस्था.मुख्यधारा के वितरक इनकी पुस्तकों के प्रति एक अस्पृश्यतामूलक भाव रखते हैं,दलित साहित्य के आलोड़न  सृष्टि करने के बावजूद.ऐसे में उनके आकर्षक व सर्वसुलभ पुस्तक भंडारों तक इनकी पुस्तकों की पहुँच नहीं हो पाती.समस्या यहीं तक नहीं है,केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा जो लाखों-करोड़ों की खरीदारी होती है,और जिसके चलते ही विशेशाधिकयुक्त तबको का पुस्तक उद्योग पर भयावह एकाधिकार है ,उसमें उनके लिए अघोषित प्रतिबंध है.ऐसे में उन्हें हार-पाछ कर उन दलित वितरकों पर निर्भर रहना पड़ता है जो सामान्यतया पुस्तकों के साथ ही बुद्ध ,फुले,डॉ.आंबेडकर कांशीराम, मायावती इत्यादि की तस्वीरें,सीडी ,पंचशील के झंडे वगैरह बेचते हैं.लेखकों और प्रकाशकों की भांति ही मुख्यतः मिशन भाव से आंबेडकरी साहित्य के प्रसार-प्रचार में लगे अधिकांश वितरक भी अंशकालिक तौर पर इस कार्य में लगे हैं.इनमें गिनती के कुछ लोगों के पास खुद की दुकानें हैं.दुकानें हैं भी तो सर्वसुलभ स्थानों पर नहीं हैं.ऐसे में लोगों तक पुस्तकें पहुंचाने के लिए उन्हें मुख्यतः जयंतियों,रैलियों,सम्मेलनों इत्यादि खास-खास अवसरों पर निर्भर रहना पड़ता है.लेकिन ऐसे अवसर तो रोज-रोज नहीं आते,लिहाजा अधिकांश समय इन्हें हाथ पर  हाथ धरे बैठा रहना पड़ता है.पुस्तक-वितरण की इस सीमाबद्धता का सीधा असर प्रकाशकों की आय पर पड़ता है.धनाभाव से पुस्तकों की गुणवत्ता प्रभावित होती है.यह धनाभाव ही उन्हें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेलों में शिरकत करने से रोकता है.इसलिए नई दिल्ली विश्व पुस्तक में जैसे आयोजनों में दलित प्रकाशकों की संख्या का सही प्रतिबिम्बन नहीं हो पाता.

बहरहाल दलित प्रकाशक विश्व पुस्तक मेले जैसे आयोजनों में अपनी पर्याप्त उपस्थिति तब तक दर्ज नहीं सकते,जब तक उनके लिए  मुख्यधारा की पुस्तक सप्लाई के बंद दरवाजे नहीं खुल जाते .देश के विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न तबके का विविध वस्तुओं की सप्लाई ,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग,परिवहन,फिल्म-मीडिया,शासन-प्रशासन की भांति पुस्तक सप्लाई पर भी 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा है.उन्होंने पुस्तक सप्लाई में ऐसा चक्रव्यहू रच रखा है,जिसे भेद पाना दलित प्रकाशकों के लिए दुष्कर है.लेकिन राष्ट्र अगर पुस्तक उद्योग में दलितों की दुरावस्था मोचन के लिए इच्छुक है तो दुष्कर होने के बावजूद सप्लाई के बंद खोले जा सकते हैं.इसके लिए सर्वोत्तम उपाय है पुस्तकालयों के लिए की जाने वाली खरीदारी में सोशल डाइवर्सिटी लागू करना है .सोशल डाइवर्सिटी अर्थात विविध सामाजिक समूहों का शक्ति के विविध स्रोतों-आर्थिक,राजनीतिक,धार्मिक इत्यादि –में संख्यानुपात में भागीदारी .पुस्तक सप्लाई में यह सिद्धांत लागू होने पर एससी/एसटी के प्रकाशकों को बाध्यतामूलक रूप से केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा की जाने वाली खरीदारी की कुल अनुमोदित राशि में 22.5 प्रतिशत मूल्य की पुस्तकें सप्लाई का अवसर मिलेगा.आज केंद्र और राज्य सरकारों के साथ ढेरो बुद्धिजीवी और उद्योगपति भी दलितों में उद्यमशीलता को बढ़ावा देने की बात करते देखे जाते हैं .ऐसे लोगो को यह बात गांठ बाँध लेनी होगी कि पुस्तक प्रकाशन उद्योग सहित उद्यमिता के दूसरे क्षेत्रों में दलितों की शोचनीय स्थिति का प्रधान कारण सुनिश्चित मार्किट का अभाव है.यदि यह तय हो जाय कि दलितों द्वारा तैयार पुस्तक सहित अन्यान्य उत्पाद एक निश्चित मात्रा में ख़रीदे जायेंगे ,तब विभिन्न वस्तुओं के प्रोडक्शन के लिए देखते ही देखते ढेरों दलित उद्यमिता के क्षेत्र में कूद पड़ेंगे.

बहरहाल दलितों की पुस्तक सप्लाई में हिस्सेदारी सुनिश्चित हो इस दिशा में विशेष जिम्मेवारी बनती है एससी/एसटी समुदायों से आये सांसद और विधायकों की .सुरक्षित सीटों से जीतने वाले ये जनप्रतिनिधि बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर का कुछ ऋण उतारने के लिए यदि केंद्र और राज्य सरकारों पर दवाब बनायें तो पुस्तक सप्लाई में दलितों की हिस्सेदारी सुनिश्चित होना खूब कठिन नहीं होगा.यदि वे ऐसा दबाव नहीं बना सकते तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि विकास निधि के इस्तेमाल के लिए बनाये गए प्रावधान का उपयोग करते हुए अपने-अपने क्षेत्र में मिडिल-हाई स्कूल,कालेज-विश्व विद्यालयों और पब्लिक लाइब्रेरियों की खरीदारी में दलित प्रकाशकों के हिस्सेदारी सुनिश्चित करवाएं.स्मरण रहे सांसद विकास निधि के उपयोग की जो गाइडलाइन है उसकी पैरा 3.29 में स्पष्ट उलेख है कि वे अपने क्षेत्र में हर वर्ष 22 लाख तक की पुस्तकें खरीद सकते हैं.कुछ इसी किस्म का प्रावधान विधायक विकास निधि में भी किया गया है.इन प्रावधानों का इस्तेमाल कर वे पुस्तक उद्योग में दलितों की शोचनीय स्थिति में निश्चय ही बदलाव ला सकते हैं.ऐसे में क्या यह उम्मीद करनी ज्यादती होगी कि दलित जनप्रतिनिधि बाबासाहेब का ऋण उतारने के लिए पुस्तक सप्लाई में दलित प्रकाशकों के हित में आवश्यक हस्तक्षेप करेंगे!यदि वे ऐसा करते हैं तो निश्चय ही उन्हें अपने बुद्धिजीवी वर्ग से संकट में आवश्यक सहयोग मिलेगा.नहीं तो राजनीतिक आरक्षण के खात्मे के लिए चल रही साजिश पर वे चुप्पी ही साधे रहेंगे.

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क:9654816191)

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