Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

4.4.20

क्या कोरोना के उपचार की कोई जड़ी बूटी जंगलों में होगी?


वैज्ञानिक, तकनीकी क्रांति के बूम की बजाय इससे पहले का युग आज होता तो कोरोना महामारी रोकने के लिए लोग प्रयोगशाला में वैक्सीन विकसित होने की प्रतीक्षा करने की बजाय देहाती वैद्य के पास पहुंचते जो उनके विश्वास के मुताबिक जंगल जाकर एक वनस्पति उखाड़ लाता जिसमें इस बीमारी का सहज निदान छुपा होता।

महामारियों के युग की शुरूआत कब से हुई यह बताना मुश्किल है लेकिन बीमारियों के बारे में कहीं न कहीं यह भी सत्य है कि तुम्ही ने दिल दिया है तुम्ही दवा देना। प्रकृति बिगड़ने से बीमारी पनपती थी और उसका इलाज प्रकृति में ही छुपा होता था। लगता यह है कि जब तक मनुष्य ने अपने लाभ के लिए जैविक प्रहार की नीचता तक जाना नहीं सीखा था तब तक बीमारी महामारी का रूप धारण करने से बची रहती थी। अग्रेजों ने अमेरिका की खोज के बाद वहां सोने के खनन का अपना रास्ता प्रशस्त करने के लिए मूल निवासियों के थोक में सफाये हेतु उन्हें चैरिटी के नाम पर मलेरिया के रोगियों के कम्बल सप्लाई कर दिये यह इतिहास का एक जाना माना तथ्य है। क्या ब्रिटिश काल में भारत में जो प्लेग फैला था उसके पीछे भी अग्रेजों का कोई जैविक प्रहार था, यह बात अनुसंधान का विषय हो सकती है।

द्वंदात्मक विकास की अवधारणा कोई अनूठा माक्र्सवादी पेटेंट नहीं है। एक ओर प्रकृति को सुरक्षित और संरक्षित करने का तकाजा है दूसरी ओर अगर प्रकृति ने ही मनुष्य में आविष्कारक प्रतिभा न दी होती तो प्रकृति से छेड़छाड़ क्यों होती। आविष्कारों पर ही प्रगति का पहिया अभी तक घूमा है और आविष्कार क्या है प्रकृति के अनुशासन को भंग करने की कीमत पर मनुष्य द्वारा अपनी कृत्रिम सर्जना को धोपा जाना लेकिन आविष्कार की जो बेचैनी मनुष्य के अंदर मौजूद है उसे लेकर यह अवधारणा सही और पूर्ण है। कोरोना के वैश्विक संकट ने जो कि मानव जाति के लिए अस्तित्व की समस्या तक घातक हो गया है ऐसे दार्शनिक प्रश्नों को भी खड़ा कर डाला है जिन पर मनन करना दिलचस्प है।

बात कोरोना से शुरू हुई है तो चिकित्सा विज्ञान से ही इसे समझते हैं। सभ्यता के पहले चरण में जैसे ही बीमारी ने मनुष्य को चपेटा उसकी छठी इन्द्रिय के रूप में सक्रिय आविष्कारक चेतना ने उसे आसपास उस जड़ी बूटी के पहचान की शक्ति दी जिससे वह तत्काल अपने को उपचारित कर सके। यह निर्मल निष्पाप आविष्कारक प्रतिभा का उदाहरण है। आज क्या है प्रयोगशाला में एक जटिल बीमारी के कारगर उपचार के नाम पर प्रभावी दवा विकसित की गई लेकिन इसके पीछे जो प्रेरणा काम कर रही है वह लाभ और स्वार्थ की चढ़ी परत से कलुषित प्रेरणा है। इसलिए प्रयोगशाला चलाने वाले यह नहीं चाहते कि वे बीमारियों का अंत कर दें। इससे तो उनका कारोबार एक दिन बंद हो जायेगा। वे अपना कारोबार चलाये रखने के लिए बाजार में जब एक बीमारी का इलाज लाॅच करते हैं तो उसमें नई बीमारी खड़ी करने वाला वायरस भी मिला देते हैं। कम्प्यूटर के क्षेत्र में जो कंपनियां एंटीवायरस बनाती हैं कहा जाता है कि वे अपने उसी साॅफ्टवेयर में नये वायरस को लोड करने का इंतजाम भी करती हैं। ताकि कभी संतृप्तिकरण न हो पाये।

सृजन और आविष्कार को पहले व्यवसाय से दूर रखा गया था। जड़ी बूटी पहचानने वाले वैद्य पुश्तैनी होते थे। क्योंकि उनके परिवार में लालच से दूर रहने का डीएनए संस्कार के रूप में घुला रहता था। पुराने वैद्य दो काम करते थे एक तो वे अपने उपचार की कोई कीमत नहीं मांगते थे जिसे लाभ हो वो स्वेच्छा से उनकी कोई सेवा कर जाये तो कर जाये। दूसरे वे अपनी जानकारी को गुप्त रखते थे ताकि उनका चिकित्सा विज्ञान ऐसे लोगों तक न पहुंच जाये जो उससे धंधा करने लगें। जाति के स्तर पर पंडितों में ही बहुधा वैद्यगीरी होती रही है। लालच से दूर रहने के कारण वे सादगी से काम करते थे और इसकी वजह से जब तक आयुर्वेद का जिम्मा उनके पास रहा उसकी कहानी एैलोपेथी की चमक दमक के आगे पिटती रही। बाद में जब इस वैद्य कुल के बाहर के बाबा रामदेव ने आयुर्वेद में अवतार लिया तो उन्होंने इसे धंधा न बनाने की जो लक्ष्मण रेखा थी उसे लांघने में कोई संकोच नहीं बरता और उनके मार्केटिंग के हथकंडों के चलते आयुर्वेद के सामने एैलोपेथी कई बीमारियों में पानी मांगने लगी। पर सोचने वाली बात यह है कि बाबा रामदेव आयुर्वेद की श्रृद्धा उत्पन्न करने वाली उस महिमा को सहेजकर रख पाये हैं जो पुराने वैद्यों ने अर्जित की थी।

कवि जन्मना होता था धंधा करने की प्रेरणा से कोई कवि नहीं बन जाता। यही बात चित्रकारी की है। हालांकि आज सृजनात्मकता में भी मार्केटिंग पैठ कर चुकी है। यही बात हम वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में कहना चाहते हैं। एडिसन ने बल्ब इसलिए नहीं बनाया कि इसका धंधा करके वह दौलत कमा सकेगा। उसके अंदर वैज्ञानिक आविष्कार की कुदरती बेचैनी थी जो उसे गैलिलियों जैसे विज्ञान परंपरा के महान पूर्वजों से विरासत में मिली थी। विज्ञान की दुनिया विलक्षण लोगों में आविष्कार की निस्वार्थ बेचैनी के तहत आगे बढ़ रही थी। लेकिन बुरा हो पेशेवरीकरण का जिसने सारी विधाओं को अपने आगोश में जकड़कर इंसान का शैतानीकरण कर दिया। बाजार ने हमारे अंदर यह एहसास भर दिया है कि नये आविष्कार नहीं होंगे अगर वैज्ञानिकों को अपने लिए भारी कमाई की संभावनायें नहीं दिखेगी। नये आविष्कार मनुष्य के जीवन को अधिक सुविधाजनक व सुरक्षित बनाने के लिए आवश्यक हैं। लेकिन यह अर्ध सत्य है। आविष्कारक चेतना को लालच में पगाकर भ्रष्ट किये जाने से उसके कारण स्थितियां मनुष्य के लिए पहले से जटिल और खतरनाक होती जा रहीं हैं।

बाजार आज यह स्थापित करके भ्रमित कर रहा है कि संयम, अपरिग्रह, समाधि, साधना आदि के मूल्य शगल के तौर पर मनुष्य ने कभी सृजित किये थे जिनसे हमेशा बंधकर रहने की बाध्यता नहीं है। परिस्थितियां जब बदल चुकी हैं तब इन बंदिशों का कवच तोड़कर आगे बढ़ना युग धर्म का तकाजा है। इस प्रवंचनापूर्ण विश्वास ने नैतिक व्यवस्था को ध्वस्त करके रख दिया है। इससे पहले यूरोपीय जातियां बर्बर हुई और अब एशियाई जातियां मुनाफे के लिए उन्हीं की तरह बर्बर हो रही हैं। चीन को तो फिर भी इसका लाभ है व्यक्ति के तौर पर भले ही नहीं लेकिन राष्ट्र के तौर पर वह बहुत मजबूत हुआ है। लेकिन भारत तो दोनों तरह से घाटे में है व्यक्ति के तौर पर भी, समाज के तौर पर भी और राष्ट्र के तौर पर भी।

कोरोना के संकट को लेकर कई तरह की किवदंतिया चल रही हैं। उनकी सच्चाई जो भी हो। पर इस संकट ने यह विश्वास दिला दिया है कि हमें बाजारीकरण के विकल्प की ओर देखना पड़ेगा। इसके लिए नैतिक व्यवस्था को बलिदान नहीं किया जा सकता। भारत में पिछले कुछ वर्षो से दसियों लाख रूपये की कीमत वाली लग्जरी गाड़ियों का मास लेविल पर उत्पादन शुरू हुआ। जबकि यहां आयकर दाताओं की संख्या देखें तो वैधानिक आय की दृष्टिकोण से उनके लिए पर्याप्त ग्राहक जुटने की कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए थी।

लग्जरी गाड़ियां तो एक उदाहरण है समूचे उपभोक्तावाद को इस देश में दो नम्बर की कमाई की छूट देकर ही पनपाया जा सका है। इसी के चलते कोई सरकार भ्रष्टाचार और इजारेदारी के खिलाफ अब कोई कदम उठाने का साहस नहीं कर पा रही। इससे आम आदमी का जीवन सुविधाजनक होने की बजाय शोषण व उत्पीड़न की पराकाष्ठा के कारण व्यथित होता जा रहा है। एसी का आविष्कार भारत जैसे गर्म देश में ऊपरी तौर पर देखे तो एक तरह से वरदान है लेकिन क्या सचमुच। कितने लोग हैं जो एसी को अफोर्ड कर पायेंगे। करोड़ों लोगों के लिए तो यह पहले से अधिक गर्मी से सताने का कारक है। लाभ के लिए किये गये सारे आविष्कार चंद लोगों की विलासिता के लिए आम इंसानियत को मुसीबत में धकेलने का कारण साबित हो रही है। इसलिए आज फिर जरूरत है राष्ट्रीयकरण और निजीकरण के बीच उचित संतुलन पर आधारित मिश्रित अर्थव्यवस्था के बारे में सोचने की। आविष्कारों का लाभ समूचे समाज को सुनिश्चित करने और व्यक्तियों के सादगीपूर्ण जीवन पर बल देने की। नैतिक और आध्यात्मिक व्यवस्था को भौतिक व्यवस्था के समानान्तर मजबूत करते रहने के बारे में सोचने की ताकि कोई लाभ के लिए कोरोना जैसे जैविक प्रहार की शैतानियत तक आगे बढ़ने की न सोच पाये अगर कोरोना को लेकर चल रही किवदंतियों में कुछ सच्चाई हो तो।

--
Regards,
K.P.Singh 
Tulsi vihar Colony ORAI
Distt - Jalaun (U.P.) INDIA Pincode-285001
Whatapp No-9415187850
Mob.No.09415187850

No comments: