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23.12.07

बा कलम खुद

कुछ क़तात

मजनू होना भी मुश्किल है लैला भी आसान नहीं है/
प्यार में दीवाने होते थे वह दौर-ए-जीशान नहीं है/
प्यार भी अब तो सोच समझकर साजिश जैसा होता है /
लफ्ज़ -ए-मुहब्बत के मानों में पहले जैसी जान नहीं है /

उनका अंदाज़-ए-अदावत भी जुदा लगता है /
ज़हर भी इस तरह देते हैं दवा लगता है/
अब मुहब्बत भी सियासत की तरह होती है/
बेवफा यार भी अब जान-ए-वफ़ा लगता है/

1 comment:

अमिताभ मीत said...

सही है रवि भाई. एक क़ता मुझे भी याद आ गया. फिलहाल याद नहीं किस का है लेकिन फिर भी पेश है :

मैं हँसता हूँ मगर ऐ दोस्त अक्सर हँसने वाले भी
छुपाये होते हैं दाग़ और नासूर अपने सीनों में
मैं उन में हूँ जो हो कर आस्ताने दोस्त से महरूम
लिए फिरते हैं सज्दों की तड़प अपने जबीनों में